1857 का समय भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। ये ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के अवध क्षेत्रों में चला। इस ‘सत्तावनी क्रांति’ का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी-छोटी झड़पों एवं आगज़नी से हुआ था। परंतु देखते-देखते ही इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अंत भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश शासन आरंभ हो गया, जो अगले दस वर्षों तक चला।
विभिन्न इतिहासकारों ने ‘सत्तावनी क्रांति’ के स्वरूप में अलग-अलग विचार प्रतुत किए है। कुछ इतिहासकार इसे ‘सैनिक विद्रोह’ मानते हैं, तो कुछ इसे ईसाईयों के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम का षड्यंत्र मानते हैं। कुछ विद्वान बुद्धिजीवी, मार्क्सवादी विचारक एवं अमृतलाल नागर ‘सत्तावनी क्रांति’ को धार्मिक युद्ध नहीं मानते। उनका मानना है कि कुछ स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे हुए, लेकिन उनके आधार पर 1857 के संघर्ष का मुल्यांकन करना तर्कसंगत नहीं है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि..”यह पहली बार है जबकि सिपाहियों के रेजीमेंटों ने अपने युरोपीय अफसरों की हत्या कर दी है… आपसी विदेशों को भूलकर मुसलमान और हिंदू अपने अपने स्वामियों के विरुद्ध एक हो गए हैं।”1 प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा ने कार्लमार्क्स के विचारों से सहमति व्यक्त करते हुआ कहा है कि…”1857 की लड़ाई में हिन्दू और मुसलमान मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला कर रहे थे, मार्क्स के लिए यह उसकी राष्ट्रीयता का प्रमाण था। फूट डालो और राज करो की नीति राष्ट्र को तोड़ने वाली थी, इस नीति के विरोध में हिन्दू और मुसलमान मिलकर लड़ रहे थे। यह क्रांतिकारी नीति राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाली थी।”2
जिस तरहं ‘सत्तावनी क्रांति’ को हिंदू-मुसलमान साथ-साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े उससे यह स्पष्ट होता है कि ‘सत्तावनी के संग्राम ने भारतीयों के अंदर राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया। अमृतलाल नागर ने अपने संस्मरण ‘गदर के फूल में’ में लिखा है कि “अयोध्या के दंगे के बाद अयोध्या के हिन्दुओं का मुसलमानों के साथ-साथ लड़ना निसन्देह इस बात का प्रमाण है कि वे लोग स्थानीय मुसलमानों से अधिक विदेशी ईसाइयों को अपने धर्म का शत्रु मानते थे। अमीरअली और हनुमान गढ़ी के बाबा रामचरणदास एक साथ अंग्रेजों से लड़े।”3
अतः कहा जा सकता है कि सत्तावनी का संग्राम कोई धार्मिक विद्रोह नहीं था। भारतीय इतिहास में 1857 के संग्राम का महत्वपूर्ण स्थान है।अमृतलाल नागर ‘गदर’ शब्द को क्रांति के पर्याय के रूप में उल्लेख करके स्पष्ट कर देते हैं कि ‘गदर’ का अर्थ केवल ‘सिपाही विद्रोह’ से नहीं लगाया जा सकता है। क्रांति शब्द स्वयं में व्यापक अर्थ ग्रहण किए हुए है। क्रांति किसी भी कारण से हो सकती है हालांकि क्रांति के प्रस्फुटित होने के पीछे हमेशा शासन के प्रति असंतोष होता है।
अमृतलाल नागर ‘गदर के फूल’ नामक संस्मरण में लिखते हैं कि….”सन् सत्तावन का सिपाही विद्रोह ऐसा गजब का था कि एक बार सारे उत्तराखंड में व्याप्त हो गया। सिपाहियों के जोश में अफीमची विलासी और अपने मिथ्या जोश में संगोतियों के सिर पर रण पूजने की कायरता रखने वाले, फूट में पड़े सामंतों की भुजाओं में क्षात्र-रक्त हुमक पड़ा। यह क्या मामूली बात है? सिपाहियों के परिवार वाले और उनके जैसे लाखों ग्रामीण जन जिस ज्वाला में खेलते-खेलते बढ़ गए, उस गदर और सिपाही विद्रोह को कोटि-कोटि प्रणाम।”4
अवध क्षेत्र का जिला बाराबंकी ‘सत्तावनी क्रांन्ति’ के संग्राम में अपने वीर-बांकुरों के योगदान के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सर्वप्रथम अमृतलाल नागर ने शहीदों के सम्बंध में जानकारी एकत्र करना यहीं से प्रारंभ किया। ‘गदर के फूल’ में अमृतलाल नागर इस क्षेत्र के प्रमुख वीरों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट करते हैं कि-“भिलाना निवासी श्री हरिदत्त पांड्य ने खट से नाम गिना डाले। तारापुर के बेनी पाठक लड़े, ठाकुर औतार सिंह लड़े, हसौर के रामसेवक पांड्य लड़े।”5
‘सत्तावनी क्रांति’ में दरियाबाद का नाम भी लिया जाता है। वहां पर अंग्रेजों एवं ठाकुर रामसिंह के बीच युद्ध हुआ था। मुझे पता चला है कि किले से दो मील दूर वह गोराबाग उर्फ़ गौराबैरक है जहाँ सिपाही विद्रोह आरंभ हुआ था और बहुत से गोरे मारे गए थे। अंग्रेजों से रामसिंह की गोराबाग में लड़ाई हुई परंतु रामसिंह पराजित हूए। इस प्रकार के इतिहास में ‘1857’ के संग्राम से सम्बंधित युद्ध के अधिकांश उदाहरण देखने को मिलते हैं। अमृतलाल नागर लिखते हैं कि–“दरियाबाद के राय अभिरामबली, सिकरौरा के ज़मीदार अजब सिंह और उनके साथी अल्लहाबख्श, ये सभी सतावनी के वीरों में थे अल्लहाबख्श कयामपुर के आगे बारिनबाग रोड पर अंग्रेजों से लड़ते हुए मारे गए।”6
ऐसा लगता है कि ‘सत्तावनी क्रांति’ में आम जनता के मन में अपने जन-नायकों के प्रति घोर श्रद्धा थी। इसलिए इस संग्राम में लखनऊ पतन के पश्चात बेगम हज़रतमहल, युवराज बिरजीश कदर, नाना घोंडपंत, राणा वेणीमाधव सिंह, बोंडी के राजा हरदत्त सिंह, तथा गोंडा नरेश राजा बख्श सिंह गुप्त रूप से यहीं एकत्र हुए थे। नवाबगंज, बेहरामघाट आदि स्थानों पर देशभक्त वीरों ने मोर्चे लगा दिए थे ताक़ि पीछा करने वाली अंग्रेजों की सेना को मार्ग में ही रोका जा सके।इन वीर-बांकुरों का योगदान अपने नेताओं से कम नहीं है। इन्होंने अपने नेताओं की अंग्रेजों से रक्षा करते हुए अपने प्राणों को ज़िले के अमर शहीद ठाकुर बलभद्र सिंह का उल्लेख करते हैं-“नवाब गंज की लड़ाई का अमर शहीद तैंतीस गांवों का साधारण ज़मीदार चेहलारी का ठाकुर बलभद्र सिंह सत्तावनी क्रांति का ऐसा अनुपम वीर और आचरण शील युवक था कि उसके विदेशियों द्वारा वर्णित कारनामों से किसी भी भारतीय का मस्तिष्क गौरव से ऊंचा उठता है।”7
इसलिए आज भी बाराबंकी जिले के गांव-गांव में असंख्य जन की वाणी, पर चहलारी के अमर शहीद बलभद्र सिंह का नाम मौजूद है।
“चलहारी को नरे निजदल मो सलाह कींन,
तोप को पसारा जो समीपै दागि दीना है।
तेगन से मरि मारि तोपन को छीन लेते,
गोरन को काटि काटि घीधन करे दीना है।
लंदन अंग्रेज़ तहा कम्पनी की फौज बीच,
मारे तरवारिन के कीच करि दीना है।
बेटा श्रीपाल को अलेद्रा बलभद्र सिंह,
साका रैकवारी बीच बाँधि दीना है।”
उपरोक्त लोकगीत से अमर नायक ठाकुर बलभद्र सिंह की लोकप्रियता का जनमानस को पता चलता है। जिसने अंग्रेजों के समक्ष न तो हथियार ही डाले, और न ही आत्मसमर्पण किया। अठारह वर्ष के अमर नायक बलभद्र सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम के कारण अपने प्राण गवा दिए। अमृतलाल नागर लिखते हैं कि-“अठारह वर्ष के नौजवान बलभद्र सिंह ने तो समर में अनोखी वीरता दिखलाते हुए अवध की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण निछावर किए थे।”9
अमृतलाल नागर ने 1857 के संग्राम की स्मृतियों को बटोरने के लिए फैजाबाद की भी यात्रा की। वह लिखते हैं कि-“फैज़ाबाद का नाम ‘गदर’ के इतिहास के मौलवी अहमदुल्ला शाह के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गया है।”10…. लेकिन मौलवी अहमदुल्ला शाह वह स्थान न पा सका, जो उसे मिलना चाहिए था। इन्होंने पूरे हिंदुस्तान में खासतौर से अवध क्षेत्र के जन नेताओं के बीच सम्पर्क सूत्र का काम किया। संग्राम के प्रारंभिक समय में शाह की कोई दिलचस्पी नहीं थी। परंतु जब अपने साथियों पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को देखकर इनके मन में ब्रिटिश सरकार के प्रति विद्रोह का भाव जागृत हुआ। अमृलाल नागर ने कहा है कि-“हिन्दुओं के प्रति हो सकता है कि प्रारंभ में इन्हें लगाव न रहा हो, परंतु बाद में इनकी नीति बदल गई थी। वे अंग्रेजों के समान हिंदू रजवाड़ों के साथी भी हो गए थे। बेगम हज़रत महल की सरकार से भी उन्होंने जहाँ तक अंग्रेजों को हराने के प्रश्न था, समझौता किया।… … … फैजाबाद, रायबरेली, सीतापुर, लखनऊ और उन्नाव जिलों में मौलवी साहब के तूफानी दौरे हुआ करते थे। कहते थे इनके भाषणों से आग बरसती थी।”11
अतः निःसंकोच कहा जा सकता है कि पूरे अवध क्षेत्र में आमजनमानस को मौलवी अहमदुल्ला शाह ने ही ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए तैयार किया। यही कारण है कि स्वयं कौशल एवं संगठन क्षमता को देखकर भयभीत हो गई थी। इनके अतिरिक्त फैज़ाबाद जिला मंगल पांडेय से सम्बंधित होने के कारण भी जाना जाता है। मंगल पांडेय को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दी थी। तभी फैज़ाबाद की सैनिक छावनी में सैनिकों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह किया था। तत्कालीन अंग्रेज़ कर्नल मार्टिन की रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए अमृतलाल नागर अपने संस्मरण में लिखते हैं कि-“मंगल पांडेय को जब फांसी दे दी गई है तब से समस्त भारत की सैनिक छावनियों में ज़बर्दस्त विद्रोह प्रारंभ हो गया है।”12
1857 के संग्राम में अवध के क्षेत्रों में सुल्तानपुर के अतिरिक्त गोंडा, बहराइच, सीतापुर, रायबरेली, हरदोई, उन्नाव, लखनऊ आदि का महत्वपूर्ण स्थान रहा। उपरोक्त के अतिरिक्त नवाबों, सामंतों एवं ज़मीदारों के बरअक्स आम जनता ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया, और शहीद भी हुए कुछ ऐसे वीर योद्धा भी थे जिन्होंने ‘सत्तावनी क्रांति’ के नेताओं को अपने यहां शरण दी। अवध क्षेत्र में इस संग्राम का केंद्र बिंदु लखनऊ था। जिसकी चर्चा करते हुए अमृतलाल नागर लिखते हैं कि-“30 मई से जो लखनऊ में सैनिक विद्रोह आरंभ हुआ तो अवध में जगह-जगह आग भड़क उठी। सीतापुर, मुहम्मदी, औरंगाबाद, गोंडा, बहराइच, मल्लापुर, फैज़ाबाद, सुल्तान, सलोन, बेगमगंज,दरियाबाद सभी जगह अंग्रेज़, स्त्रियों, बच्चों एवं पुरषों को बड़े-बड़े संकटों का सामना करना पड़ा। अवध का कोना-कोना अंग्रेजों की प्रभुसत्ता से मुक्त हो गया था, केवल उसकी राजधानी लखनऊ पर उसका कब्ज़ा था परंतु यह कब्ज़ा एक तरह से बेमानी था।”13
अतः कहा जा सकता है कि 1857 का संग्राम भारतीय जनता का ब्रिटिश सरकार के प्रति संगठित प्रतिरोध था और यह प्रतिरोध मौलवी अहमदुल्ला शाह और चेहलारी के ठाकुर बलभद्र सिंह, राजा वेणीमाधव बख्श, राजा नरपत सिंह आदि के नेतृत्व में किया गया था।’सत्तावनी क्रांति’ में अपने बलिदानों के द्वारा आम-जनता के ह्रदय में ‘राष्ट्रीय चेतना’ का बीज प्रस्फुटित किया। इतिहास में इनके योगदान को भले की विस्म्रत कर दिया जाए, लेकिन लोकमानस की चेतना में ये हमेशा जीवित रहेगा।
संदर्भ सूची:-
(1) मार्क्स और ऐंगल्स:भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, 1857, पृष्ठ,5
(2) रामविलास शर्मा: भारत में अंग्रेजीराज और मार्क्सवाद, पृष्ठ, 178
(3) डॉ शरद नागर: अमृतलाल नागर रचनावली, (भाग..6), राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली, संस्करण 1991, पृष्ठ, 71
(4) वहीं पृष्ठ, 146
(5) अमृतलाल नागर:गदर के फूल, सूचना विभाग, लखनऊ, पृष्ठ,12
(6) वहीं, 15
(7) वहीं,43
(8)वहीं, 11
(9) वहीं 1
(10) डॉ शरद नागर: अमृतलाल नागर रचनावली, (भाग..6), राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली, संस्करण 1991, पृष्ठ 48
(11) वहीं 49
(12)अमृतलाल नागर: गदर के फूल, सूचना विभाग, लखनऊ, पृष्ठ,75
(13) वहीं, पृष्ठ,240