सेक्सुअल भरम (bhrm) के अतिरेक और रक्तसनी छातियों वाली गुलनाज फरीबा की कहानी -स्वप्नपाश
कल पूरे एक दिन में मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास स्वप्नपाश पढ़ा। मैं मनीषा मैम से 2 कारणों से प्रभावित हूँ, एक उनके प्रकृति प्रेम और दूसरा उनके लेखन। हालाँकि पहली बार उनकी लिखी कोई कृति पढ़ी है। लेकिन फ़िर भी कुछ लोग आपके जेहन में स्वतय: आकर बस जाते हैं और कुलबुलाहट मचाने लगते हैं। कुलबुलाहट उनके लिखे को पढ़ने की ही नहीं होती बल्कि उसकी भी होती है कि अरे इतना बड़ा नाम है। आखिर क्या है इसमें एक बार पढ़कर तो देखा जाए। आलोचकों की बात नहीं कर रहा हूँ। आजकल हिंदी साहित्य में हर कोई मेरी तरह आलोचक और लेखक बना हुआ है। बिल्कुल रवीश कुमार जैसा कहते हैं। जीरो टीआरपी वाला पत्रकार ठीक वैसा ही कुछ लेखक मैं भी हूँ और मेरे जैसे कई हजारों ओर भी। ख़ैर एक बार विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने पढ़ाते हुए कहा था कि मनीषा कुलश्रेष्ठ उन्हें नकचढ़ी सी लगती है। अब यह बात मुझे हज़म नहीं हुई और मैडम के व्यक्तित्व को देखकर मुझे यकीन मानिए कभी ऐसा महसूस भी नहीं हुआ और हो भी क्यों भला जिस व्यक्ति से आप कभी मिले नहीं उनका लिखा पढ़ा नहीं एक शब्द भी तो आप पूर्वानुमान कैसे लगा सकते हैं। कल स्वप्नपाश पढ़ा तो लगा अगर उन प्राध्यापक को लगता है कि मनीषा नकचढ़ी है तो अवश्य ही ऐसे लोगों के लिए होनी भी चाहिए। एक स्वप्नपाश ने मुझे इस कदर बाँधा है और मनीषा कुलश्रेष्ठ के साहित्य लेखन का मुरीद बनाया है कि जल्द ही सारा साहित्य पढ़ डालने की कोशिश करूंगा।
अब बात कुछ उपन्यास की दरअसल यह शोधपरक उपन्यास है। जिसमें आधी हकीकत आधा फ़साना जैसा कि होता ही है हर कहानी, उपन्यास, सिनेमा आदि में। इस उपन्यास की एक विशेष बात है कि आपको 80,90 के दशक की कुछ फिल्मी सीन और आज के धारावाहिकों के कुछ सीन से इसमें चलते दिखाई देते हैं। उपन्यास की प्रमुख नायिका है गुलनाज़ फ़रीबा जो कि सिकजोफ्रेनिया बीमारी से ग्रस्त है बचपन से लेकर युवती होने तज उसका यौन शोषण होता रहता है। उसका डॉक्टर मृदुल सिन्हा भी उससे प्रेम करने लगता है। विवाहित होने के बाद भी। गुलनाज़ शारिरिक रूप से किसी आदमी की तरह दिखती है भारी-भरकम कंधों के साथ लेकिन फ़िर भी उसकी स्त्री को लोग ढूंढ ही लेते हैं। वह स्त्री जिसमें फूट फूट कर मादकता दिखती है और प्रत्येक अंग से सेक्स झलकता है। रति स्वरूपा भी आप कह सकते हैं। इस समीक्षा को लिखते समय कुछ आपत्तिजनक शब्द इसलिए भी इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं क्योंकि ये स्वाभाविक है और उपन्यास की तरह ही शायद आवश्यकता भी। उपन्यास में माँ-बहन की गालियाँ, वहशीपन, सेक्स सब जानबूझ कर ठूँसा हुआ नहीं है अपितु वह तो 2-4 जगह अपने आप आया है। जो किसी भी नज़र से अखरता नहीं बल्कि उपन्यास को पढ़ने में रोचकता बनाए रखता है। वैसे हम सब एक काल्पनिक दुनिया में विचरण करते रहते ही हैं। कभी-कभी किसी में यह जीवन जीने का एक बहाना बन जाती है और कभी-कभी उनकी काल्पनिक दुनिया का एक आशा का पंछी बन जीवन को दिशा दे जाता है। लेकिन क्या हो यदि हम उस काल्पनिक दुनिया में उसकी वीभत्सता को जीने लगें? जब हम इसे जीने लगते हैं तो वह काल्पनिक सोच अपनी जकड़न में ऐसे जकड़ लेती है कि चाहकर भी निकल पाते। मनुष्य के शरीर का अहम हिस्सा यानी उसका दिमाग आज भी विज्ञान और उसके शोधों के लिए कौतुहल का विषय है और उसी दिमाग में उठते फितूर के साथ कोई जी रहा हो तो वो कैसे जी सकेगा। जिसमें हर पल दिन हो या रात एक दूसरा ही संसार वह अपने साथ-साथ लिए फिरता है। इसे आप अवचेतन मन भी कह सकते हैं। ऐसा बहुधा होता है कि कुछ कुछ रोज़ाना हमारे अवचेतन में जमा होता रहता है लेकिन वह अवचेतन जब कभी भयानक बीमारी का रूप ले ले तो वह उसकी जान भी ले सकता है। जैसा गुलनाज़ के साथ उपन्यास के अंत में होता है। यह अवचेतन भयानक तब हो जाता है जब यह अवास्तविक रूप में रहते हुए भी वास्तविकता का आभास कराता है। आपसे बतियाने लगता है, आपको अपने वशीभूत करने लगता है। आपकी सोचने समझने की क्षमता को ऐसे जकड़ लेता है कि आप न चाहते हुए भी उसके नियंत्रण में होते चले जाते हैं और कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं, फिर वो दूसरे को नुकसान पहुँचाना हो या खुद को। एक सिकजोफ्रेनिया से ग्रस्त व्यक्ति की ज़िन्दगी की ये कड़वी हकीकत होती है कि वह मानसिक विदलन या मति भरम में ही हर दम रहता है। वो चाहकर भी स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाता। उसे अपने आस-पास एक दूसरी दुनिया ही हर पल दिखाई देती है।
ऐसा व्यक्ति एक ही पल में दो दो ज़िन्दगी जी रहा होता है। ठीक ऐसी ही जिंदगी उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ की नायिका गुलनाज फरीबा जीती है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे कई बार चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति की भी याद आई। जिसे पढ़ते हुए या बचपन में टीवी पर देखते हुए हम भी चंद्रकांता या शक्तिमान की तरह सपनीली दुनिया में विचरण करने लगते थे। यह सपनीली दुनिया से एक कदम आगे बढ़कर सिकजोफ्रेनिया की डायरी बन जाती है। किसी किताब के बारे में इतना विस्तार से पहली बार लिख रहा हूँ।
मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी साहित्य की एक स्थापित लेखिका हैं। किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ यदि पाठकों को एक ऐसी दुनिया में ले जाए जहाँ उसका परिचय किसी से नहीं होता तो हकीकत से बेहतर उसे उसके सपनों की दुनिया लगने लगती है। यह कभी हकीकत डराती है कभी स्वप्न में डुबोती है। इस तरह की दो जिंदगियों में सामंजस्य बिठाना आसान नहीं होता न ही पाठक के लिए और उपन्यास के पात्रों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। इस उपन्यास की तारीफ़ यही है कि हम सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जितना इसे पढ़ते समय हम उद्वेलित होते हैं नायिका के साथ रोते-बिलखते हैं उसके जीवन को जितना अपना बना लेते हैं उतना ही लिखते समय लेखिका के साथ हुआ होगा इसमें कोई दोराय नहीं। उसके स्किज़ोफ्रेनिक होने की एक वजह है कि उसकी माँ ने गर्भावस्था के अंतिम महीनों (7 महीनों) तक डांस किया जिसका असर उस पर पड़ा और दूसरा धूम्रपान, मदिरापान करने से भी वह ऐसी बन गई। ऐसे बच्चों को अपनों के साथ की बहुत जरूरत होती है। उनकी विशेष देखभाल की जाए तो संभव है वो साधारण ज़िन्दगी जी सकें लेकिन जिसके माता-पिता दोनों ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से घिरे हों और बच्ची आया के सुपुर्द हो तो वहाँ ये समस्या हमेशा रहेगी। यह वर्तमान समाज और वैश्वीकृत ब्रह्मांड में एक अभिशाप बन रहा है क्योंकि जो प्यार और देखभाल माता पिता दे सकते हैं वह आया नहीं। जिस उम्र में एक माँ की सबसे ज्यादा जरूरत एक जवान होती लड़की को होती है उस उम्र में भी वो आया पर ही निर्भर रहे तो अपने शरीर में होते बदलाव को लेकर वो बच्ची गुलनाज़ की तरह ही आशंकित रहेगी। यहाँ तक कि सेक्स भी उसके लिए कभी रुचिकर विषय नहीं रहा और यह भी संभव है गुलनाज़ जैसा ही उन बच्चियों में भी हो। गुलनाज़ में फिर भी प्यार की प्यास दिखाई देती है। वह चाहती है कोई उसे चाहे उसके शरीर को नहीं लेकिन उसकी यह प्यास हमेशा बनी ही रहती है। यहाँ तक कि एक चित्रकार होने के नाते वो अपने चित्रों में शायद अपने मन की उन्ही ग्रंथियों को उकेरती रहती है जो उसने कच्ची उम्र से भोगा फिर वो सेक्स हो, घृणा या जीवन या फिर न्युड़ीटी। उसकी हर पेटिंग में नग्न, अर्द्धनग्न पुरुष-स्त्री, कीड़े-मकौड़े सभी संभोगरत अभिव्यक्ति के रूप में दुनिया के सामने आते हैं। वह इस नग्नता के सहारे कभी ऊपर नहीं चढ़ना चाहती और न ही प्रसिद्ध चित्रकार बनना चाहती है। अपितु यह उसके भीतर की अवचेतन ग्रन्थी ही है जो उससे ये सब करवाती है। उपन्यास में हम देखते हैं मकबूल फिदा हुसैन भी है जिसे इसी नग्नता के चलते देश निकाला दे दिया गया था। खुद को बाहर निकालने का एक सशक्त माध्यम गुलनाज़ के पास चित्रकारी था लेकिन उसी माध्यम ने उससे उसका सब कुछ छीन भी लिया जब वो एक कला समीक्षक के द्वारा बलत्कृत होती है और खुद पर नियंत्रण खो देती है। पिता की मृत्यु के बाद माँ लन्दन में रहने लगी और वो यहाँ अकेली नाना के घर में, जहाँ अनेक स्मृतियाँ थीं और फिर एक दिन वो भी बेच दिया अब जैसे पूरे संसार में कोई नहीं उसका और यदि कोई है उसके आभासी किरदार, जिसे डॉक्टर मतिभ्रम कहते हैं। इसके अलावा बलात्कार पीड़ित से मीडिया का सवाल कि ‘कैसा लग रहा है’ संवेदनहीनता को मजबूती से उभारता है, पर उससे कहीं ज्यादा झकझोरता है पीड़िता का उत्तर। “मुझे अपने शरीर से घृणा होने लगी थी, जब भी यह किसी तरह के मज़े लेता मैं इसे खीझकर सजा देती। कभी दो-दो दिन कुछ न खाकर, कभी रात भर बैठे रह कर। मैं घंटों बैठी रहती, किचन के स्टोर के कोने में, जहाँ चीटियाँ और कॉकरोच सिंक में चढ़ने के लिए मेरा शॉर्टकट बेहिचक लेने लगते। ”
इसी तरह उपन्यास के कुछ रोचक बिंदु हैं –
उस ध्वस्त समय में से निकल कर मैं जो ‘बची‘थी, और परिस्थितियों के घालमेल में जो मैं बन ‘चुकी‘थी, और वह खुद जो मैं होना चाहती थी, मैं इन सब के बीच की अवस्था में थी। मैंने अब तो यात्रा मानो शुरू की थी, अभी ही तो मुझे इन यात्राओं से लगाव हुआ था। मैंने अब तक सुना था जैसे तेंदुए कभी अपने धब्बे नहीं बदलते, वैसे लोग कभी व्यवहार नहीं बदलते। मेरे आस पास के संसार में जो जैसा पैदा हुआ वह वैसा का वैसा ही रहा, लेकिन मैंने ही अपने धब्बों को अचानक बदलते देखा।
मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया। बस यह कहा कि बचपन में कहीं शुरु हुआ था। उस वक्त मैं यह सोचने लगी कि क्या वह प्रस्थान था? या कि पलायन? मुझे अपना बचपन याद आ गया, जब मैंने पहली बार मम्मी से कहा था कि –
“मम्मी सच…सच में मुनक्यो है..” मम्मी से मैंने ज़िद की कि मुझे रंग लाकर दो। मैं बना कर दिखाऊंगी ऐसी है मुनक्यो” ऐसे तो मैंने पेंटिंग करना शुरु किया। मम्मी ने मुझे अपनी स्टडी का एक कोना दिया। छोटी – छोटी ट्यूबों में भरे जलरंग, रंगीन पेंसिलें, हर तरह के ब्रश एक चौकीनुमा ज़मीन से ज़रा उठी टेबल और एक बंडल ड्रॉईंग के कागज़। मैंने मुनक्यो के चेहरे को बड़े ध्यान से पेंसिल से रचा, गोल – फूले गाल, दबी हुई छोटी नाक और लगभग बड़ी मक्खी जैसी आँख़ें और उसके पंख सी फड़फड़ाती बरौनियाँ। पतले – पतले भिंचे होंठ और बड़ा सा माथा, ढेर सी स्प्रिंगों सरीखे बहुत घुंघराले बाल। पेंसिल स्कैच देख कर मम्मी खुश हुई। जब मैंने रंग भरा और उसके त्वचा के रंग को क्रोमियम हरा रंगा तो मम्मी ने कहा – बकवास! भयानक!
अपने इन उत्पातियों के चित्र, मैं क्या हर स्किज़ोफ्रेनिक रचता है। क्योंकि कोई मानता नहीं कि उनके साथ कोई है। पेंसिल से नहीं तो कोयले से, नहीं तो खड़िया से। हाँ मैंने अपने वार्ड में देखे थे…कई कई…गुमसुम, मिट्टी में उंगलियों को फंसाकर कुछ न कुछ रचते, हम कहाँ ले जाएँ अपने दिमाग़ों के इन उत्पातियों को? इन आवाजों से. इन आदेशों से…पलायन के चार रास्ते थे. आत्महत्या, पेंटिग, डायरी और सेक्स….हम्म।
मुझे बस किसी साथ की ज़रूरत थी उस रात। मैं बहुत दिनों से एक दोस्त की तलाश में थी, जिससे बात कर सकूँ। उस पर कोकीन के नशे ने मुझमें हिम्मत नहीं छोड़ी थी कि मैं कार चला कर घर जा सकूँ। जब हम बिस्तर पर लेटे तो वह मेरे शरीर पर झूमने लगा। मेरी पीठ से खुद को रगड़ने लगा। मैं उससे कहती रही, मेरा ऎसा कोई मन नहीं है, नहीं, मुझे सेक्स नहीं चाहिए। उसे पता था मैं सच ही में कोई स्पर्श भी नहीं चाहती। लेकिन कुछ देर बाद उसने मुझे पलटा लिया और ‘कर डाला’ क्योंकि मैं मना करते – करते थक गई थी और वह कोशिश करते करते नहीं थका था। मैं सहज रिश्ते बनाना चाहती हूँ। पता नहीं लोग शरीर क्यों ले आते हैं? ऎसा क्या है इस शरीर में?
बीच रात जब मैं उठ कर उसके फ्लैट से लगी आर्ट गैलेरी में पहुँची। वहाँ मैंने पहली बार छिन्नमस्ता की पेंटिंग देखी। छिन्नमस्ता एक देवी, जो एक संभोगरत युगल पर चढ़ी हुई थी। उसने अपना कटा सिर हाथ में लिया हुआ था। दो योगिनियाँ उस मस्तक से फूट रही रक्त – धाराओं को अपने खुले मुंह में ले रही थीं। अचानक मुझे एक भीषण संगीत सुनाई पड़ा – नगाड़ों और टंकारों का।
मैं अपने अकेलेपन में लगातार चित्र बनाती रही मैं लेकिन वहम होने बंद नहीं हुए बढ़ गए। मेरा उन पर कोई बस नहीं था। मेरे दिमाग़ में कोई रोशनी जलती और कोई रंगमंच जाग्रत होता और उस पर नित नया खेल। देवदूतों की जगह पिशाच ले रहे थे… शुरु में तो मुझे लगा सड़क पर माईक्रोफोन लगे हैं और कुछ घटिया लोग कुफ्र बक रहे हैं। पर घर में ? मैं टीवी को देखती वह बंद होता, खिड़कियाँ मूंदती….लेकिन गालियाँ और गंदे कमांड। मैं रो पड़ती सारे देवी – देवताओं को बुला डालती… चुप कराओ इन …मादर…बहन….के…को !!!!! मुझे संशय हुए कि मेरी मॉम ने ‘सायकियाट्री वार्ड’ के उस क्रूर इलाज के दौरान मेरे दिमाग़ में माईक्रोचिप लगवा दिए हैं। ताकि मैं उनके कंट्रोल से न फिसलूँ।
इस उपन्यास में आर्टमिज़िया जो 16वीं सदी की महान चित्रकारा थी, कि एक रोचक कहानी का भी सहारा लिया गया है, जिसका रहस्य पाठक को सब कुछ जान लेने के बाद भी अधूरा सा ही लगता है। यही किसी कथाकार की सफलता होती है कि पाठक के मन में कुछ और सुनने की इच्छा शेष रह जाती है।
कल पूरे एक दिन में मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास स्वप्नपाश पढ़ा। मैं मनीषा मैम से 2 कारणों से प्रभावित हूँ, एक उनके प्रकृति प्रेम और दूसरा उनके लेखन। हालाँकि पहली बार उनकी लिखी कोई कृति पढ़ी है। लेकिन फ़िर भी कुछ लोग आपके जेहन में स्वतय: आकर बस जाते हैं और कुलबुलाहट मचाने लगते हैं। कुलबुलाहट उनके लिखे को पढ़ने की ही नहीं होती बल्कि उसकी भी होती है कि अरे इतना बड़ा नाम है। आखिर क्या है इसमें एक बार पढ़कर तो देखा जाए। आलोचकों की बात नहीं कर रहा हूँ। आजकल हिंदी साहित्य में हर कोई मेरी तरह आलोचक और लेखक बना हुआ है। बिल्कुल रवीश कुमार जैसा कहते हैं। जीरो टीआरपी वाला पत्रकार ठीक वैसा ही कुछ लेखक मैं भी हूँ और मेरे जैसे कई हजारों ओर भी। ख़ैर एक बार विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक ने पढ़ाते हुए कहा था कि मनीषा कुलश्रेष्ठ उन्हें नकचढ़ी सी लगती है। अब यह बात मुझे हज़म नहीं हुई और मैडम के व्यक्तित्व को देखकर मुझे यकीन मानिए कभी ऐसा महसूस भी नहीं हुआ और हो भी क्यों भला जिस व्यक्ति से आप कभी मिले नहीं उनका लिखा पढ़ा नहीं एक शब्द भी तो आप पूर्वानुमान कैसे लगा सकते हैं। कल स्वप्नपाश पढ़ा तो लगा अगर उन प्राध्यापक को लगता है कि मनीषा नकचढ़ी है तो अवश्य ही ऐसे लोगों के लिए होनी भी चाहिए। एक स्वप्नपाश ने मुझे इस कदर बाँधा है और मनीषा कुलश्रेष्ठ के साहित्य लेखन का मुरीद बनाया है कि जल्द ही सारा साहित्य पढ़ डालने की कोशिश करूंगा।
अब बात कुछ उपन्यास की दरअसल यह शोधपरक उपन्यास है। जिसमें आधी हकीकत आधा फ़साना जैसा कि होता ही है हर कहानी, उपन्यास, सिनेमा आदि में। इस उपन्यास की एक विशेष बात है कि आपको 80,90 के दशक की कुछ फिल्मी सीन और आज के धारावाहिकों के कुछ सीन से इसमें चलते दिखाई देते हैं। उपन्यास की प्रमुख नायिका है गुलनाज़ फ़रीबा जो कि सिकजोफ्रेनिया बीमारी से ग्रस्त है बचपन से लेकर युवती होने तज उसका यौन शोषण होता रहता है। उसका डॉक्टर मृदुल सिन्हा भी उससे प्रेम करने लगता है। विवाहित होने के बाद भी। गुलनाज़ शारिरिक रूप से किसी आदमी की तरह दिखती है भारी-भरकम कंधों के साथ लेकिन फ़िर भी उसकी स्त्री को लोग ढूंढ ही लेते हैं। वह स्त्री जिसमें फूट फूट कर मादकता दिखती है और प्रत्येक अंग से सेक्स झलकता है। रति स्वरूपा भी आप कह सकते हैं। इस समीक्षा को लिखते समय कुछ आपत्तिजनक शब्द इसलिए भी इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं क्योंकि ये स्वाभाविक है और उपन्यास की तरह ही शायद आवश्यकता भी। उपन्यास में माँ-बहन की गालियाँ, वहशीपन, सेक्स सब जानबूझ कर ठूँसा हुआ नहीं है अपितु वह तो 2-4 जगह अपने आप आया है। जो किसी भी नज़र से अखरता नहीं बल्कि उपन्यास को पढ़ने में रोचकता बनाए रखता है। वैसे हम सब एक काल्पनिक दुनिया में विचरण करते रहते ही हैं। कभी-कभी किसी में यह जीवन जीने का एक बहाना बन जाती है और कभी-कभी उनकी काल्पनिक दुनिया का एक आशा का पंछी बन जीवन को दिशा दे जाता है। लेकिन क्या हो यदि हम उस काल्पनिक दुनिया में उसकी वीभत्सता को जीने लगें? जब हम इसे जीने लगते हैं तो वह काल्पनिक सोच अपनी जकड़न में ऐसे जकड़ लेती है कि चाहकर भी निकल पाते। मनुष्य के शरीर का अहम हिस्सा यानी उसका दिमाग आज भी विज्ञान और उसके शोधों के लिए कौतुहल का विषय है और उसी दिमाग में उठते फितूर के साथ कोई जी रहा हो तो वो कैसे जी सकेगा। जिसमें हर पल दिन हो या रात एक दूसरा ही संसार वह अपने साथ-साथ लिए फिरता है। इसे आप अवचेतन मन भी कह सकते हैं। ऐसा बहुधा होता है कि कुछ कुछ रोज़ाना हमारे अवचेतन में जमा होता रहता है लेकिन वह अवचेतन जब कभी भयानक बीमारी का रूप ले ले तो वह उसकी जान भी ले सकता है। जैसा गुलनाज़ के साथ उपन्यास के अंत में होता है। यह अवचेतन भयानक तब हो जाता है जब यह अवास्तविक रूप में रहते हुए भी वास्तविकता का आभास कराता है। आपसे बतियाने लगता है, आपको अपने वशीभूत करने लगता है। आपकी सोचने समझने की क्षमता को ऐसे जकड़ लेता है कि आप न चाहते हुए भी उसके नियंत्रण में होते चले जाते हैं और कुछ भी करने को तत्पर हो जाते हैं, फिर वो दूसरे को नुकसान पहुँचाना हो या खुद को। एक सिकजोफ्रेनिया से ग्रस्त व्यक्ति की ज़िन्दगी की ये कड़वी हकीकत होती है कि वह मानसिक विदलन या मति भरम में ही हर दम रहता है। वो चाहकर भी स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाता। उसे अपने आस-पास एक दूसरी दुनिया ही हर पल दिखाई देती है।
ऐसा व्यक्ति एक ही पल में दो दो ज़िन्दगी जी रहा होता है। ठीक ऐसी ही जिंदगी उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ की नायिका गुलनाज फरीबा जीती है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे कई बार चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति की भी याद आई। जिसे पढ़ते हुए या बचपन में टीवी पर देखते हुए हम भी चंद्रकांता या शक्तिमान की तरह सपनीली दुनिया में विचरण करने लगते थे। यह सपनीली दुनिया से एक कदम आगे बढ़कर सिकजोफ्रेनिया की डायरी बन जाती है। किसी किताब के बारे में इतना विस्तार से पहली बार लिख रहा हूँ।
मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी साहित्य की एक स्थापित लेखिका हैं। किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ यदि पाठकों को एक ऐसी दुनिया में ले जाए जहाँ उसका परिचय किसी से नहीं होता तो हकीकत से बेहतर उसे उसके सपनों की दुनिया लगने लगती है। यह कभी हकीकत डराती है कभी स्वप्न में डुबोती है। इस तरह की दो जिंदगियों में सामंजस्य बिठाना आसान नहीं होता न ही पाठक के लिए और उपन्यास के पात्रों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। इस उपन्यास की तारीफ़ यही है कि हम सहज अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जितना इसे पढ़ते समय हम उद्वेलित होते हैं नायिका के साथ रोते-बिलखते हैं उसके जीवन को जितना अपना बना लेते हैं उतना ही लिखते समय लेखिका के साथ हुआ होगा इसमें कोई दोराय नहीं। उसके स्किज़ोफ्रेनिक होने की एक वजह है कि उसकी माँ ने गर्भावस्था के अंतिम महीनों (7 महीनों) तक डांस किया जिसका असर उस पर पड़ा और दूसरा धूम्रपान, मदिरापान करने से भी वह ऐसी बन गई। ऐसे बच्चों को अपनों के साथ की बहुत जरूरत होती है। उनकी विशेष देखभाल की जाए तो संभव है वो साधारण ज़िन्दगी जी सकें लेकिन जिसके माता-पिता दोनों ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं से घिरे हों और बच्ची आया के सुपुर्द हो तो वहाँ ये समस्या हमेशा रहेगी। यह वर्तमान समाज और वैश्वीकृत ब्रह्मांड में एक अभिशाप बन रहा है क्योंकि जो प्यार और देखभाल माता पिता दे सकते हैं वह आया नहीं। जिस उम्र में एक माँ की सबसे ज्यादा जरूरत एक जवान होती लड़की को होती है उस उम्र में भी वो आया पर ही निर्भर रहे तो अपने शरीर में होते बदलाव को लेकर वो बच्ची गुलनाज़ की तरह ही आशंकित रहेगी। यहाँ तक कि सेक्स भी उसके लिए कभी रुचिकर विषय नहीं रहा और यह भी संभव है गुलनाज़ जैसा ही उन बच्चियों में भी हो। गुलनाज़ में फिर भी प्यार की प्यास दिखाई देती है। वह चाहती है कोई उसे चाहे उसके शरीर को नहीं लेकिन उसकी यह प्यास हमेशा बनी ही रहती है। यहाँ तक कि एक चित्रकार होने के नाते वो अपने चित्रों में शायद अपने मन की उन्ही ग्रंथियों को उकेरती रहती है जो उसने कच्ची उम्र से भोगा फिर वो सेक्स हो, घृणा या जीवन या फिर न्युड़ीटी। उसकी हर पेटिंग में नग्न, अर्द्धनग्न पुरुष-स्त्री, कीड़े-मकौड़े सभी संभोगरत अभिव्यक्ति के रूप में दुनिया के सामने आते हैं। वह इस नग्नता के सहारे कभी ऊपर नहीं चढ़ना चाहती और न ही प्रसिद्ध चित्रकार बनना चाहती है। अपितु यह उसके भीतर की अवचेतन ग्रन्थी ही है जो उससे ये सब करवाती है। उपन्यास में हम देखते हैं मकबूल फिदा हुसैन भी है जिसे इसी नग्नता के चलते देश निकाला दे दिया गया था। खुद को बाहर निकालने का एक सशक्त माध्यम गुलनाज़ के पास चित्रकारी था लेकिन उसी माध्यम ने उससे उसका सब कुछ छीन भी लिया जब वो एक कला समीक्षक के द्वारा बलत्कृत होती है और खुद पर नियंत्रण खो देती है। पिता की मृत्यु के बाद माँ लन्दन में रहने लगी और वो यहाँ अकेली नाना के घर में, जहाँ अनेक स्मृतियाँ थीं और फिर एक दिन वो भी बेच दिया अब जैसे पूरे संसार में कोई नहीं उसका और यदि कोई है उसके आभासी किरदार, जिसे डॉक्टर मतिभ्रम कहते हैं। इसके अलावा बलात्कार पीड़ित से मीडिया का सवाल कि ‘कैसा लग रहा है’ संवेदनहीनता को मजबूती से उभारता है, पर उससे कहीं ज्यादा झकझोरता है पीड़िता का उत्तर। “मुझे अपने शरीर से घृणा होने लगी थी, जब भी यह किसी तरह के मज़े लेता मैं इसे खीझकर सजा देती। कभी दो-दो दिन कुछ न खाकर, कभी रात भर बैठे रह कर। मैं घंटों बैठी रहती, किचन के स्टोर के कोने में, जहाँ चीटियाँ और कॉकरोच सिंक में चढ़ने के लिए मेरा शॉर्टकट बेहिचक लेने लगते। ”
इसी तरह उपन्यास के कुछ रोचक बिंदु हैं –
उस ध्वस्त समय में से निकल कर मैं जो ‘बची‘थी, और परिस्थितियों के घालमेल में जो मैं बन ‘चुकी‘थी, और वह खुद जो मैं होना चाहती थी, मैं इन सब के बीच की अवस्था में थी। मैंने अब तो यात्रा मानो शुरू की थी, अभी ही तो मुझे इन यात्राओं से लगाव हुआ था। मैंने अब तक सुना था जैसे तेंदुए कभी अपने धब्बे नहीं बदलते, वैसे लोग कभी व्यवहार नहीं बदलते। मेरे आस पास के संसार में जो जैसा पैदा हुआ वह वैसा का वैसा ही रहा, लेकिन मैंने ही अपने धब्बों को अचानक बदलते देखा।
मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया। बस यह कहा कि बचपन में कहीं शुरु हुआ था। उस वक्त मैं यह सोचने लगी कि क्या वह प्रस्थान था? या कि पलायन? मुझे अपना बचपन याद आ गया, जब मैंने पहली बार मम्मी से कहा था कि –
“मम्मी सच…सच में मुनक्यो है..” मम्मी से मैंने ज़िद की कि मुझे रंग लाकर दो। मैं बना कर दिखाऊंगी ऐसी है मुनक्यो” ऐसे तो मैंने पेंटिंग करना शुरु किया। मम्मी ने मुझे अपनी स्टडी का एक कोना दिया। छोटी – छोटी ट्यूबों में भरे जलरंग, रंगीन पेंसिलें, हर तरह के ब्रश एक चौकीनुमा ज़मीन से ज़रा उठी टेबल और एक बंडल ड्रॉईंग के कागज़। मैंने मुनक्यो के चेहरे को बड़े ध्यान से पेंसिल से रचा, गोल – फूले गाल, दबी हुई छोटी नाक और लगभग बड़ी मक्खी जैसी आँख़ें और उसके पंख सी फड़फड़ाती बरौनियाँ। पतले – पतले भिंचे होंठ और बड़ा सा माथा, ढेर सी स्प्रिंगों सरीखे बहुत घुंघराले बाल। पेंसिल स्कैच देख कर मम्मी खुश हुई। जब मैंने रंग भरा और उसके त्वचा के रंग को क्रोमियम हरा रंगा तो मम्मी ने कहा – बकवास! भयानक!
अपने इन उत्पातियों के चित्र, मैं क्या हर स्किज़ोफ्रेनिक रचता है। क्योंकि कोई मानता नहीं कि उनके साथ कोई है। पेंसिल से नहीं तो कोयले से, नहीं तो खड़िया से। हाँ मैंने अपने वार्ड में देखे थे…कई कई…गुमसुम, मिट्टी में उंगलियों को फंसाकर कुछ न कुछ रचते, हम कहाँ ले जाएँ अपने दिमाग़ों के इन उत्पातियों को? इन आवाजों से. इन आदेशों से…पलायन के चार रास्ते थे. आत्महत्या, पेंटिग, डायरी और सेक्स….हम्म।
मुझे बस किसी साथ की ज़रूरत थी उस रात। मैं बहुत दिनों से एक दोस्त की तलाश में थी, जिससे बात कर सकूँ। उस पर कोकीन के नशे ने मुझमें हिम्मत नहीं छोड़ी थी कि मैं कार चला कर घर जा सकूँ। जब हम बिस्तर पर लेटे तो वह मेरे शरीर पर झूमने लगा। मेरी पीठ से खुद को रगड़ने लगा। मैं उससे कहती रही, मेरा ऎसा कोई मन नहीं है, नहीं, मुझे सेक्स नहीं चाहिए। उसे पता था मैं सच ही में कोई स्पर्श भी नहीं चाहती। लेकिन कुछ देर बाद उसने मुझे पलटा लिया और ‘कर डाला’ क्योंकि मैं मना करते – करते थक गई थी और वह कोशिश करते करते नहीं थका था। मैं सहज रिश्ते बनाना चाहती हूँ। पता नहीं लोग शरीर क्यों ले आते हैं? ऎसा क्या है इस शरीर में?
बीच रात जब मैं उठ कर उसके फ्लैट से लगी आर्ट गैलेरी में पहुँची। वहाँ मैंने पहली बार छिन्नमस्ता की पेंटिंग देखी। छिन्नमस्ता एक देवी, जो एक संभोगरत युगल पर चढ़ी हुई थी। उसने अपना कटा सिर हाथ में लिया हुआ था। दो योगिनियाँ उस मस्तक से फूट रही रक्त – धाराओं को अपने खुले मुंह में ले रही थीं। अचानक मुझे एक भीषण संगीत सुनाई पड़ा – नगाड़ों और टंकारों का।
मैं अपने अकेलेपन में लगातार चित्र बनाती रही मैं लेकिन वहम होने बंद नहीं हुए बढ़ गए। मेरा उन पर कोई बस नहीं था। मेरे दिमाग़ में कोई रोशनी जलती और कोई रंगमंच जाग्रत होता और उस पर नित नया खेल। देवदूतों की जगह पिशाच ले रहे थे… शुरु में तो मुझे लगा सड़क पर माईक्रोफोन लगे हैं और कुछ घटिया लोग कुफ्र बक रहे हैं। पर घर में ? मैं टीवी को देखती वह बंद होता, खिड़कियाँ मूंदती….लेकिन गालियाँ और गंदे कमांड। मैं रो पड़ती सारे देवी – देवताओं को बुला डालती… चुप कराओ इन …मादर…बहन….के…को !!!!! मुझे संशय हुए कि मेरी मॉम ने ‘सायकियाट्री वार्ड’ के उस क्रूर इलाज के दौरान मेरे दिमाग़ में माईक्रोचिप लगवा दिए हैं। ताकि मैं उनके कंट्रोल से न फिसलूँ।
इस उपन्यास में आर्टमिज़िया जो 16वीं सदी की महान चित्रकारा थी, कि एक रोचक कहानी का भी सहारा लिया गया है, जिसका रहस्य पाठक को सब कुछ जान लेने के बाद भी अधूरा सा ही लगता है। यही किसी कथाकार की सफलता होती है कि पाठक के मन में कुछ और सुनने की इच्छा शेष रह जाती है।
लेखिका – मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – 240
प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – 240