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‘स्त्री परिधि के बाहर’ उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जनपद सोनभद्र की रहने वाली डॉ. संगीता की 2021 में प्रकाशित आलोचनात्मक पुस्तक है। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथा का विवेचन व विश्लेषण किया है तथा हिंदी साहित्य के विकास क्रम में स्त्री रचनाकारों की कृतियों के माध्यम से किए गए अवदानों पर गंभीर चर्चा की है। पहले अध्याय में हिंदी कथा साहित्य के विकास क्रम की चर्चा करते हुए लेखिका संस्कृत-पाली होते हुए हिंदी तक की यात्रा पूरी करती हैं और इस क्रम में विगत 2500 वर्षों के उपलब्ध लिखित साहित्य/ साक्ष्यों का परीक्षण तो करती ही हैं साथ ही इन्हीं स्रोतों/ साहित्य के माध्यम से वे भारतीय समाज में स्त्री की दशा का विवेचन करते हुए भी चलती हैं। थेरी गाथाओं में विभिन्न समुदायों की स्त्रियों के आख्यान का विस्तार से उल्लेख करते हुए उन्होंने स्त्रियों की आत्मवृत्ति और भारतीय लोकजीवन परंपरा, दोनों पर प्रकाश डाला है। आत्मकथा साहित्य के विकास क्रम में जिन हिंदी की पत्र पत्रिकाओं तथा विशिष्ट पुस्तकों का योगदान है उन पर लेखिका सरसरी तौर पर नजर डालती हैं। इस कारण मुख्यधारा में प्रचलित पुस्तकों का उल्लेख तो लेखिका करती हैं परंतु कम चर्चित (पर बेहद प्रभावी) पुस्तकों का उल्लेख उनसे छूट गया है।

स्त्री आत्मकथाओं पर विचार करते हुए मोटे तौर पर चार आयाम दिखाई पड़ते हैं जिनमें- जाति, वर्ग, वर्ण, लिंग तथा धर्म सम्मिलित हैं। यह सभी आयाम आपस में उलझे हुए अथवा एक दूसरे को प्रतिच्छेदित करते हुए सामाजिक संस्तर का निर्माण करते हैं। अतः भारतीय समाज के विभिन्न पदानुक्रम में सत्ता और शक्ति के केंद्रों पर इन वर्गों के प्रतिनिधियों के फलस्वरूप ही रचनाधर्मिता का निर्माण होता है।

पुस्तक का दूसरा अध्याय स्त्री आत्मकथा के समाजशास्त्रीय अध्ययन की पड़ताल करता है। इसे सही अर्थों में पुस्तक की भूमिका की तरह देखा जाना चाहिए। समाज में विभिन्न अस्मिताएं अपनी पहचान के लिए एक दूसरे में गुंथी रहती हैं उनका स्वायत्त अस्तित्व होते हुए भी उन्हें विमुक्त नहीं समझा जा सकता। स्त्री आत्मकथाओं में पितृसत्ता, जाति, धर्म, गांव, शहर, रंग-रूप और जीविका इत्यादि एक विभेदीकरण का निर्माण करते हुए दिखाई देते हैं। गहन समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि के कारण लेखिका जाति आधारित स्त्री शोषण और उसके बहुआयामी परिणाम को बहुत ही संवेदनशीलता तथा गहराई से परखतीं हैं। लेखिका, विभिन्न प्रतिष्ठित एवं ख्यातिलब्ध साहित्यकारों के विचारों को सामने रखकर पाठक के मन में उनके प्रति विद्यमान श्रद्धा पर प्रश्नचिन्ह लगाने का आधार भी उपलब्ध कराती हैं। वर्ग, जाति और लिंग के त्रिस्तरीय शोषण, अपमान और सामाजिक असमानता पर अपने सुचिंतित विचार निष्कर्ष के रूप में प्रकट भी करती हैं।

तीसरे शीर्षक में स्त्रियों के सामाजिक विडंबना में लेखिका यह बताने में कामयाब रही हैं कि प्रत्येक समाज और समय की सत्ता संरचनाएं हाशिए की अस्मिताओं को दूर रखती हैं। जब भी हाशिए का वर्ग केंद्र में आने की तड़प में होता है तो उसे बार-बार उसी सत्ता संरचना की प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। साहित्य में इस छटपटाहट की ऐतिहासिक गवाही लेखिका स्त्री आत्मकथाओं के कालक्रम विश्लेषण के द्वारा प्रस्तुत करती हैं। इसी कारण यह आत्मकथाएं प्रतिरोध का साहित्य नजर आने लगती हैं, जो सही अर्थों में सदियों से एकत्रित असंतोष और कुंठा का प्रतिफल है। पुस्तक पढ़ते हुए यह चिंता बार-बार उठ खड़ी होती है की क्या सत्ता समाज के पुरुष केंद्रित चेतना की जगह सहअस्तित्ववादी छवियों के धरातल का निर्माण हो पाना निकट भविष्य में संभव है? लेखिका मीरा और महादेवी के समय अंतराल का प्रभावी तरीके से उपयोग कर यह बता पाने में समर्थ रही हैं कि मौन को रिक्ति की बजाय अवसर की अनुपलब्धता की तरह देखा जाना चाहिए। लंबे समय तक स्त्रियों ने अपने बारे में और समाज के संदर्भ में अपने दृष्टिकोण के विषय में कुछ नहीं कहा इसलिए वर्चस्व की जंग में वे दिखाई नहीं पड़ती। ये स्त्री आत्मकथाएं उस लंबे अंतराल को पाटती दिखाई देती हैं।

इस पुस्तक का चौथा विमर्श इसकी आत्मा कही जा सकती है, जिसमें लेखिका आत्मकथाओं का मूल्यांकन करती हैं। इससे लेखिका के अंतर्दृष्टि से परिचित हुआ जा सकता है। विधवा स्त्रियों की आत्मकथाओं के माध्यम से उन्होंने सामाजिक कुरीतियों की ओर ध्यान आकर्षित कराने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है, पर ऐसा नहीं है की सभी आत्मकथाओं को लेखिका ने सम्मान ही दिया हो। “लगता नहीं दिल मेरा- कृष्णा अग्निहोत्री” की निर्मम आलोचना इस बात का प्रमाण है कि इस पुस्तक में वृहत्तर स्त्री चेतना का अंध समर्थन नहीं किया जा रहा है। इस अध्याय में भाषाई एवं भौगोलिक विविधता से संबंधित आत्मकथा के विश्लेषण से देश की बहुलतावादी संस्कृति का परिचय प्राप्त होता है। ‘हादसे’ के माध्यम से रमणिका गुप्ता का मूल्यांकन करते हुए लेखिका उनकी आत्म-केंद्रीयता को चिन्हित करने में सफल रही हैं। लेखिका का ऐसा मानना है कि स्त्री और पुरुष आत्मकथाओं में कथानक तथा भाषाई विभिन्नता को लेकर प्रश्न, वास्तव में स्त्रियों को उपलब्ध अवसर तथा समाज द्वारा प्रदत्त स्पेस के कारण हुआ है।

स्त्री आत्मकथा का दायरा बेहद व्यापक हो चुका है अतः एक पुस्तक में सबको समेट पाना असंभव है। संभवतः इस कारण विभिन्न विदेशी लेखिकाओं की आत्मकथा तथा अनेक भारतीय भाषाओं की पुरस्कृत आत्मकथाओं को इस पुस्तक में स्थान नहीं मिल पाया होगा, जो इस पुस्तक का कमजोर पक्ष है। कई जगह यह पुस्तक सब कुछ समेट लेने के शोधार्थियों के कौतूहल / वृत्ति का शिकार नजर आती है। फिर भी यह पुस्तक अपने आप को संतुलित तरीके से प्रस्तुत करने में सफल रही है। डॉ संगीता को इस पुस्तक हेतु बधाई तथा आगामी रचनाओं के लिए शुभकामनाएं।

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