कोई औरत कब पूरी होती है ? इसका अंदाजा लगाना हो तो आप सुरेन्द्र वर्मा के लिखे इस नाटक को पढ़ लीजिए और अगर पढ़ने में आनंद नहीं आता तो कम से कम इस फिल्म को देख लीजिए। सुरेन्द्र वर्मा ने यह नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ 1975 में लिखा था जिसे आज तक पढ़ने का मौका तो मुझे नहीं मिला परन्तु अब जब बीसियों बार तक कम से कम इसे विभिन्न जगहों पर फिल्माया जा चुका है और यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। तो उस पर हाल ही में 4 सितम्बर 2018 को रिलीज हुई फिल्म को यूँ ही देख लिया। सोचा चलो कम से कम देखा जाए। हालांकि इस नाटक का नाम कई बार सुना है पर वही बात आप जैसी कि पढने के बजाए देखने का जो मज़ा मुझे मिलता है वह अप्रतिम है। अब जल्द ही यह नाटक पढ़ने की भी उत्सुकता है मात्र यह जानने के लिए की इस फिल्म को हुबहू वैसा ही बनाया गया है या कहीं कोई छुट सिनेमा के नाम पर ली गई है।
खैर अब यह तो पता चल चुका है कि यह नाटक सुरेन्द्र वर्मा ने लिखा था लेकिन बात फिल्म की मात्र। फिल्म के पोस्टर या कहीं कोई और ज्यादा चर्चा में रहने की बात करना समय जाया करना होगा क्योंकि इसे आम कमर्शियल फिल्मों की तरह न तो माउथ पब्लिसिटी मिली और न ही कोई अलग से। हिंदी सिनेमा में ऐसी कई बेहतरीन फ़िल्में आती है और चली जाती हैं। जिसका हमें पता या तो कभी चलता नहीं या फिर चलता है तो भी शायद हम उन्हें देखना नहीं चाहते। जब तक कोई बड़ा आदमी उसकी खुले दिल से तारीफ़  न कर दे। नियोग प्रथा के बारे में जैसा कि आप सब जानते ही हैं। फिर भी बता दूँ जब कभी हमारे राजा-महाराजाओं के यहाँ सन्तान नहीं होती थी तो वे इस घिनौनी प्रथा का सहारा लिया करते थे। वह राजा जो संतान उत्पन्न करने में नाकामयाब है या यों कहें कि नपुसंक है, हिंजड़ा है तब ये फैसले लिए जाते थे। जिन्हें धर्म की चादर में लपेट पवित्रता और शुचिता का नाम दे दिया जाता था और रानी एक रात के लिए धर्मनटी बनकर अपनी इच्छा से किसी एक पर पुरुष को चुनती और उसके साथ संबंध बनाती। उस एक रात के संबंध में भी अगर वह गर्भवती नहीं हो पाती तो इसी तरह उसे दो मौके और दिए जाते। कुलमिलाकर उस रानी को यह अधिकार होता था कि वह उस पर पुरुष के साथ तीन रातें गुजार सके और राज्य को उत्तराधिकारी प्रदान कर सके। माना की एक स्त्री को यह अधिकार है कि वह मातृत्व सुख को भोगे किन्तु पुरुष अथवा राजा नपुंसक है तो उसे राज्य को बचाने के लिए किसी ऐसे पुरुष को चुनने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है जिसको वह जानती तक नहीं और एक मुलाक़ात के बाद सबकुछ कर सकती है। अपना शरीर, अपना वजूद सबकुछ उसे दे सकती है।
फिल्म में यही सब है लेकिन एक बात नई है कि शीलवती नाम की उस रानी के लिए जब नियोग प्रथा करवाई जाती है तो उसके लिए बकायदा एलान होता है, नगाड़े बजते हैं, शहनाइयां बजाई जाती है। देखा जाए तो कितनी विचित्र बात है न इस हिदू धर्म में। एक औरत का बलात्कार हो या वह अपनी मर्जी से किसी और व्यक्ति से सम्बन्ध बनाए तब उसके चरित्र पर लांछन लगाया जाता है और जब वहीं दूसरी ओर पुरुष नपुंसक है, क्लीव है तो उसी औरत को धर्म की इन नकली, सड़ी-गली बेड़ियों में जकड़ उसे मजबूरन किसी और के पास सुलाया जाता है। हालांकि इस फिल्म को देखने और सम्भवत: इस नाटक को पढ़ने के बाद हर किसी तर्कशील मनुष्य के मन में ये सवाल वाजिब रूप से उठने ही चाहिए। नियोग प्रथा कहीं न कहीं देखा जाए तो उत्तर आधुनिक पोर्नोग्राफी का ही रूप है और यह आज भी हमारे देश में, हमारे हिन्दू धर्म में कहीं न कहीं बरकार है। कितने ही ऐसे लड़के हैं जो दिन या रात के उजाले में किसी राह चलती लड़की को देख या किसी स्त्री की बाहों में चंद लम्हे भी नहीं गुजार पाते और अपने आपको  गीला कर बैठते हैं । दूसरी और वही लड़के  या पुरुष दंगल करते हैं और शारीरिक सौष्ठव दिखा कर अपनी मर्दानगी का झूठा सबूत पेश करते हैं।
कोई पुरुष शारीरिक रूप से बलिष्ठ हो तभी वह पुरुष नहीं कहा जा सकता और न ही तब जब वह बिस्तर पर घंटों तक लंबी रेस का घोड़ा बना रहे। हालांकि ये दोनों चीजें होना भी जरूरी है जिस तरह मन या पेट की अग्नि सताती है उसी तरह यह शरीर की अग्नि भी स्त्री और पुरुष को समान रूप में सताती ही है। इस नाटक की तरह ही जयशंकर प्रसाद का एक नाटक है ध्रुवस्वामिनी उसमें भी कुछ इसी तरह के प्रश्न हैं किन्तु उनका स्वरूप थोड़ा भिन्न है। परन्तु पुरुष वहाँ भी क्लीव और नपुंसक रूप में जैसे की सुरेन्द्र वर्मा के नाटक में। मुझे नहीं लगता कि इस प्रथा या नाटक और फिल्म के बारे में इससे ज्यादा कुछ बताया जाना शेष है। वैसे फिल्म या कहें नाटक के सभी संवाद उच्च कोटि के हैं किन्तु एक दो जिनको बताया जाना जरूरी है वो ये कि –  संवाद बहुत बेहतरीन हैं । दुःख का अपना एक स्वाद होता है।  तब नहीं जब वो सताना शुरू करता है बल्कि  तब जब वो पक जाता है।  किसी फोड़े की तरह और फिर उसकी कसक एक मीठी चुभन की तरह होती है। और दुसरा संवाद नाटक के अंत का है वह है – तुमने मुझे रानी बनाया लेकिन मई उससे पूरी नहीं होती। एक औरत को कई मर्द चाहिए होते हैं। एक वो जो उसे समाज में जगह दे, एक वो जो उसे समझे, एक वो जो जिससे वो अपने दिल की बातें कह सके। एक वो जो उसे देह का सुख दे पाए। ये मेरा सच है। किसी और का सच अगर मर्यादा में रहना है तो मुझे उससे कोई बहस नहीं करनी। तो फिर मेरे सच को लेकर बहस क्यों ?
इस तरह से फिल्म में कई वाजिब प्रश्न हैं और किसी व्यक्ति को भले वह राजा हो या रंक। उसे पता चले कि वह नपुंसक है और अपनी पत्नी को वह सुख नहीं दे सकता जिसकी वह अधिकारिणी है तो वह शर्म के मारे मर जाए या सचमुच में आत्महंता हो जाए तो यह उसकी मर्दानगी पर ही नहीं उसके वजूद पर भी एक कलंक के समान है।  यही सब इसमें राजा उकाक के माध्यम से भी दर्शाया गया है।  फिल्म में एक और शुरुआत में जब रानी शीलवती नहीं चाहती कि वह इस नियोग प्रथा का हिस्सा बने तो वह राजा उकाक से कहती भी है कि हमारे बीच प्रेम है और वही बना रहना चाहिए।  मुझे नहीं चाहिए मातृत्व का सुख। किन्तु दूसरी ओर जब वह राज महल में उस साथी को चुनती है जिसके साथ उसका पहले विवाह किया जाना निश्चित हुआ था किन्तु फिर रिश्ता टूट गया तो उसके बाद के रोमांस को देखकर उस रानी या उस जैसी स्त्री पर भी प्रश्न खड़े करने वाले प्रश्न कर ही सकते हैं और उसे उसी कुलटा के उपनाम से नवाज सकते हैं। इस फिल्म में या इससे पहले फिल्माए गए नाटकों में बहुत सी अन्य विशेष बातें हैं जो इस फिल्म की रूह ही नहीं जान बन जाती है और आपको तथा आपके अंतर्मन को झिंझोड़ती है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है इसका बैकग्राउंड स्कोर जो फिल्म के साथ ताल से ताल मिलाता हुआ चलता है और फिल्म में रंगमच का अंश इसे रंगमंचीयता के उच्च स्तर पर ले जाता है। फिल्म में अभिनय की बात करें तो सभी कलाकार अपने अपने किरदारों के साथ पूरी तरह न्याय करते नजर आते हैं। हाल फिलहाल में जितनी भी फ़िल्में रिलीज हो रही हैं उनको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह फिल्म वाकई में आपका दिन बना देगी और आपको उस प्रथा पर सोचने को भी मजबूर कर देगी।रानी शीलवती के रूप में मधुरिमा तुली, राजा ओकाक के रूप में कजिंदर कुमार, सेनापति, राजपुरोहित और दासी या रानी की सखियों के रूप में क्रमश: तम्रण हसनी (तमरण हसनी) , जसविंदर सिंह, वैदेही मोहोले, अनमरीन अंजुम अभी प्रभावशाली रहे। सुरेन्द्र वर्मा का लिखा या नाटक तो लाजवाब है ही वहीं म्यूजिक डायरेक्टर ललित सेन, फिल्म के एडिटर रबी रंजन मित्रा और प्रोड्यूसर, निर्माता रोमांचक अरोरा का एक ऐसे कोंसेप्ट को उठाना और उतने ही बेहतरीन तरीके से उसे पर्दे पर फिल्माना आपको कतई निराश नहीं करता और न ही आप एक मिनट के लिए भी इस फिल्म से अपनी नजरें हटा पाते हैं। एक सार्थक सिनेमा का यही स्वरूप होता है कि वह आपको पूरी तरह से तीन घंटे के लिए बांधे रखे। फिल्म में एक भी गाना नहीं है इस बात का भी आपको कोई मलाल नहीं होता क्योंकि विशुद्ध रूप से साहित्य पर बनी फिल्मों में यदि गाने न भी हों तो चलता है बस उसके लिए सबसे जरूरी चीज है उसका निर्देशन बेहतर तरीके से हो।
अपनी रेटिंग 3.5 स्टार

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2 thoughts on “मूवी रिव्यू : नियोग प्रथा धर्म के बहाने उत्तर आधुनिक पोर्नोग्राफी ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’”

  1. अच्छी जानकारी दी है मित्रवर बहुत बहुत शुक्रिया

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