poem gudiya

याद है आज भी बचपन का अफसाना
वो बाजार मे सजा गुड़ियों का तराना।।
चाहती थी मैं वो आंख मिचती गुड़िया
पर पापा की जेब मे न थी पैसे की पुड़िया।।

मन मे ख्वाहिश दबा के भी थी मुस्कुराई
पापा की हालात देख न उन्हें मैं सताई।।
पर मेरी आंखों की भाषा,मेरी अभिलाषा
मेरी ख्वाहिश पापा ने ही खामोशी से जानी।।

डबल डयूटी कर उन्होंने गुड़िया मुझे दिलादी
आज भी पापा के बलिदान को मैं थी सजाई
आज भी वो मेरी गुड़िया मेरे सिरहाने सुलाई
वाकई कुछ किस्से मिसाल बन जिंदगी सजाई।।

मेरे पापा का परिश्रम मेरी मेहनत आज
मुझे विदया से ऊंचा औहदा थी सच दिलाई
पापा तेरी बिटिया अब बड़ी हो गई पर तेरे
बलिदान की गुड़िया संग खेल बच्ची कहलाई।।

पापा तेरी बिटिया अब बड़ी हो गई पर तेरे
बलिदान की गुड़िया संग खेल बच्ची कहलाई।।2।।

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