मानव ने उत्पात मचाकर
अब तक की मनमानी
देखो आज करोना कैसे
याद दिलाता नानी
जब से इस अदृश्य विषाणु ने
दुनिया को है काटा
चौराहों पर खामोशी है
सड़कों पर सन्नाटा
धन-दौलत-सामर्थ्य सभी कुछ
फिर भी है लाचारी
हैं स्वतंत्र, लेकिन स्वतंत्रता
पर भारी महामारी
सुप्पर पावर वाले देखो
जोड़े हाथ खड़े हैं
बड़े-बड़े महारथी धरा पर
औंधे गिरे पड़े हैं
अमेरिका, इटली, इराक
सबकी है एक कहानी
देखो आज करोना कैसे
याद दिलाता नानी
दादी बतलाती थीं उनका
बचपन बहुत सही था
कच्चे घर, लकड़ी के फाटक
ताला कहीं नही था
अतिथि और मेहमान को ‘नैतिक’
देव कहा जाता था
स्वागत में उनके, भक्तों-सा
खड़ा रहा जाता था
आपस में था प्रेम और
सद्भाव हुआ करता था
रिश्ते-नातों में तब सच्चा
भाव हुआ करता था
हाथ नहीं मिलते थे केवल
हृदय मिला करते थे
मन में हँसी-खुशी-विनोद के
फूल खिला करते थे
जगह-जगह थे ताल-तलैया
वन-उपवन और जंगल
मीठा जल संग शुद्ध हवा थी
दसों दिशा में मंगल
नदियों में निर्बाध बहा
करता था निर्मल पानी
देखो आज करोना कैसे
याद दिलाता नानी
पापाजी का दौर भी कोई
ज़्यादा बुरा नहीं था
जो भी था स्पष्ट, हृदय मे
चाकू-छुरा नहीं था
रिश्तों में था रस, नातों में
घात नहीं होता था
केवल स्वार्थ साधने को ही
साथ नहीं होता था
क्वार्टर-फ्लैट का दौर नहीं था
घर-आंगन होते थे
उछल-कूद, भागा-दौड़ी वाले
बचपन होते थे
रूखी-सूखी खाकर कितना
आनंदित जीते थे
मिट्टी के बर्तन का ठंडा
पानी हम पीते थे
याद मुझे हैं आज भी बचपन
वाले खेल निराले
लूडो-कैरम, भागा-दौड़ी
चोर-सिपाही वाले
याद करो वह गुल्ली-डंडा
पिट्ठू, राजा-रानी
देखो आज करोना कैसे
याद दिलाता नानी
जब से मैंने होश संभाला
सबकुछ लगा बदलने
मानव जैसे यंत्र हो गया
लगा रात-दिन चलने
इन्सां अब हो गए निशाचर
रात-रात भर जागें
पैसे को भगवान मानकर
इसके पीछे भागें
नए ज्ञान की चकाचौंध में
आदम खुद को भूला
पाखंडी-बहुरूपिया होकर
व्यर्थ दंभ में फूला
लूटपाट-चित्कार, कहीं भी
सच्ची खुशी नहीं है
इन्सानों की बस्ती मे
कोई आदमी नहीं है
पहले वाला प्यार नहीं
मिलता भाई-भाई में
मानव पहुंचा आसमान पर
मानवता खाई में
हमने अपने आप खड़ी की
है अपनी परेशानी
देखो आज करोना कैसे
याद दिलाता नानी