इसी सितंबर के शुरू में हिंदी-कश्मीरी संगम के बैनर तले बीस से अधिक लेखक लद्दाख के लेह नगर में जमा हुए। चार दिन के कार्यक्रम में पहले दो दिन साहित्य पर खुली बातचीत के लिए थे और बाद के दो दिन लद्दाख घूमने के लिए। हिंदी भाषा के व्यवहार की दृष्टि से उसी अवसर के कुछ अनुभव साझा करना सही होगा :
दृश्य-एक : लद्दाख में लेह से काफी दूर फूलों की घाटी है। वहाँ के किसानों के बगीचों में तीन-सौ से भी अधिक क़िस्मों के फूल हैं। घाटी के बीच एक पहाड़ी नदी कल-कल करती बह रही है, जो किसी ग्लेशियर से निकली है। यह जगह कभी व्यापार का रास्ता रहे सिल्क-रूट के निकट है। इस रूट के बंद हो जाने पर बेकार हुए ऊंटों को सवारी के लिए पर्यटकों की सेवा में लगा दिया गया है। इनके मालिक सभी से हिंदी में बात करते हैं और उनके ऊंट भी हिंदी में दिए निर्देशों का पालन करते हैं।
दृश्य-दो : उसी फूलों की घाटी में एक विशाल कक्ष है, जिसकी अधिकतर दीवारें काँच से बनाई गई हैं। भीतर बैठ कर बाहरी दृश्यों का आनंद लेते हुए थकान कम करने का ऐसा अवसर कम ही मिलता है। यह एक रेस्तरां है, जिसके काउंटर पर डजेन खड़ी है। सैलानी अपने हाथों में लंच-पैकेट लिए आते हैं और चुपचाप अपनी इच्छानुसार मेजें चुन लेते हैं। डजेन उन्हें देख कर खुश होती है, उसकी आँखों में घनी आशा की चमक है। लेकिन यह चमक ज़्यादा देर तक नहीं रहती, क्योंकि सैलानी उसके रेस्तरां को न चाय का आदेश देते हैं न कुछ खाने का, यहाँ तक कि एक बोतल पानी भी नहीं खरीदते। डजेन थोड़ी देर प्रतीक्षा करती है, फिर अचानक काउंटर से सैलानियों के बीच आ खड़ी होती है, वाणी में संयम, किंतु स्वर में कठोरता भरते हुए कहती है, ‘आप सबको टेबिल का चार्ज देना होगा।’ सैलानी उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगते हैं। उनमें से एक बोलने की कोशिश करता है, ‘हमें तो गाइड ने कहा है कि यहाँ बैठ कर लंच करना है।‘ डजेन बीच में ही बोल पड़ती है, ‘गाइड ने आप लोगों को लंच करने की जगह बता दी, लेकिन यह तो सोचना चाहिए कि यहाँ बैठ कर होटल को भी कुछ-न-कुछ ऑर्डर देना चाहिए। खाना नहीं, तो कम से कम चाय या कॉफी या बिस्किट-चौकलेट, चलिए कुछ नहीं तो पानी की बोतल तो लेनी चाहिए।’ डजेन यहीं नहीं रुकी, उसने आगे कहा, ‘और आप लोगों को कुछ भी नहीं लेना था, तो कम से कम बैठने के लिए पूछना तो चाहिए था। आप लोग सोचिए, यहाँ आकर कुछ भी नहीं खरीदेंगे, तो हमने इस जंगल में इतना बड़ा होटल बनाया है, यह कैसे चलेगा?’ तब तक सैलानियों की अगुआई करने वाले एक-दो लोगों ने समझदारी दिखाते हुए डजेन से माफी मांगी और अपने सदस्यों को समझा कर कुछ-न-कुछ ऑर्डर देने का आग्रह किया। इसके बाद लगभग सभी ने अपने-अपने लंच-पैकेट वापस थैलों में रख लिए और डजेन के काउंटर पर जा-जाकर आलू-परांठे, प्याज-परांठे, कोल्ड-ड्रिंक, चाय-काफी के इतने ऑर्डर दिए और बार-बार “सॉरी, हमसे भूल हो गई, हमें सोचना चाहिए था, हमें माफ कर दो” बोला कि डजेन के चेहरे पर आनंदभरी रौनक लौट आई। इस पूरी घटना में हिंदी के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं बोली गई, न सैलानियों द्वारा और न डजेन के द्वारा। दक्षिण भारत के सैलानियों की हिंदी, लद्दाख की डजेन की हिंदी, मुंबइया हिंदी, गुजराती हिंदी और मध्य-भारत की हिंदी में एक्सेण्ट का जो वैविध्य है, उसने फूलों की घाटी में कभी न भूलने वाले अनुभव की सृष्टि की। विदा होते समय डजेन की आँखों में भावुकता तैर रही थी। सैलानी भी अपने को नहीं रोक सके थे।
दृश्य-तीन :  खारदोङ्ला दुनिया की सबसे ऊँची सड़क पर भी सबसे ऊँचा स्थान है। लेह से फूलों की घाटी की दिशा में बढ़ते हुए खारदोङ्ला के बाद सड़क नीचे उतरनी शुरू होती है और कुछ देर बाद ‘भविष्य के बुद्ध’ के दर्शन होते हैं। यह तथागत बुद्ध की एक आपाद-मस्तक प्रस्तर प्रतिमा है, जिसमें बुद्ध का अति भव्य स्वरूप है और उनके चेहरे पर विश्व की समस्याओं का समाधान खोजता दिव्य-भाव है। मठ के भीतरी भाग में पूजा करते लामा सैलानियों से कहते हैं, ‘हमारा विश्वास है, आधुनिक काल में दुनिया को राह दिखाने भगवान बुद्ध आएँगे, एक दिन ज़रूर आएँगे, उनकी ज़रूरत है, एक-न-एक दिन आएँगे ही…………’ इसके बाद वे सैलानियों को प्रसाद देते हैं। सैलानी उनका आभार प्रकट करने के लिए “धन्यवाद” कहते हैं, तो लामाँ प्रत्युत्तर में हँसते हुए कहते हैं, “जुलु”। इसका मतलब भी वे समझाते हैं, ‘जुलु शब्द में आभार, प्रसन्नता, धन्यवाद, आनंद की भावना आदि समाया हुआ है। ‘यह सारा वार्तालाप हिंदी में होता है। लामा अपनी सारी बातें हिंदी में कहते हैं, सैलानी हिंदी में अपने भावों को प्रकट करते हैं, इसके साथ ही ‘जुलु’ हिंदी शब्द-संपदा का हिस्सा हो जाता है, घर वापस लौटने पर भी किसी अपने के मिलने पर जुलु कहने का मन होता है।
हिंदी के बारे में रोना-धोना बंद कीजिए। विश्वास रखिए भारत के सुदूर अंचलों के आम-जन हिंदी को सहज रूप में अपनाते जा रहे हैं। हिंदी संस्कृति की भाषा बनती जा रही है……… बस, उसे सरकारों के मकड़-जाल से बचाने की कोशिश कीजिए।…………
हिंदी-दिवस पर सभी को शुभकामानाएँ।

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