साहित्य के वाद (छायावाद, प्रगतिवाद) से परे के कवि रामधारी सिंह दिनकर की आज 111वीं जन्म जयंती  है। 23 सितम्बर 1908 सिमरिया में जन्में और साल 1974 की 24 अप्रैल को पंचतत्व में विलीन हो जाने वाली इस महान विभूति को आज लगभग विस्मृत सा कर दिया गया है, इसलिए यह कवि अब बहुत ही कम जगहों पर पढ़ाए जाते हैं। दिनकर न केवल लेखक थे अपितु  कवि व निबन्धकार भी थे। आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित इस कवि का जन्म बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले में हुआ। इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई करने के अलावा उनकी संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू विषयों पर भी अच्छी पकड़ थी।
तन्त्रता से पूर्व तक वे एक विद्रोही कवि के रूप में जाने जाते रहे किन्तु उसके बाद उन्हें राष्ट्रकवि के नाम से जाना गया। यूँ तो दिनकर  छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे । एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी । इसका प्रमाण हमें उनकी रचना कुरुक्षेत्र और उर्वशी में देखने को मिलता है। उनकी रचना उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ से नवाजा गया तो कुरुक्षेत्र, द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत को आधार बनाकर लिखे गए प्रबंध काव्य  को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में स्थान मिला। इसमें उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता अप्सरा की कहानी है तो कुरुक्षेत्र महाभारत के शान्तिपर्व का कविता स्वरूप।
नकर भागलपुर विश्वविद्यालय में उपकुलपति भी रहे और भारत सरकार के हिन्दी भाषा के सलाहकार भी बने। साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें पद्म विभूषण से भी अलंकृत किया गया तो संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी भी हासिल हुआ। लगातार सामाजिक, आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ लिखने इस कवि को एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में पहचान इनकी  काव्य रचनाओं के लिए ही मिली। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी तथा परशुराम की प्रतीक्षा भी शामिल है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो;
सको क्या जो दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।

कुरुक्षेत्र की ये पंक्तियाँ तो लगभग सभी को मुँह जबानी याद है किन्तु अफ़सोस  उन्होंने जो ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पुस्तक में जो कहा, जिसकी प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी तथा उसमें नेहरू ने दिनकर को अपना ‘साथी’ और ‘मित्र’ बताया। उन्होंने इसमें लिखा है – “आज सारा विश्व जिस संकट से गुजर रहा है, उसका उत्तर बुद्धिवाद नहीं अपितु धर्म और अध्यात्म है। धर्म सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र है। धर्म ही कोमलता है, धर्म, दया है, धर्म विश्वबंधुत्व है और शांति है।”

हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर सिर्फ पूर्वाग्रहों के आधार पर बहस करनेवालों को एक बार दिनकर की यह किताब पढ़नी चाहिए। दिनकर ने यहां बाबर के वसीयतनामे के हवाले से यह दिखाया है कि किस तरह से बाबर ने हुमायूं से इस देश में सारे धर्मो के साथ बराबरी का बर्ताव करने की बात कही थी- “हिंदुस्तान में अनेक धर्मों के लोग बसते हैं। भगवान को धन्यवाद दो कि उन्होंने तुम्हें इस देश का बादशाह बनाया है। तुम तअस्सुब से काम न लेना; निष्पक्ष होकर न्याय करना और सभी धर्मों की भावना का ख्याल करना।”  

वे आजादी की लड़ाई में भी मुसलमानों भूमिका की याद दिलाते हुए लिखते हैं –

‘भारत का विभाजन हो जाने के कारण ऐसा दिखता है, मानो, सारे के सारे हिंदू और मुसलमान उन दिनों आपस में बंट गए थे तथा मुसलमानों में राष्ट्रीयता थी ही नहीं. किंतु यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. भारत का विभाजन क्षणस्थाई आवेगों के कारण हुआ और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि मुसलमानों में राष्ट्रीयता नहीं है।’

राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे। दिनकर की याद में साल 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया।

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

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समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

वर्तमान हिंदी साहित्य अध्ययन में दिनकर हिंदी पट्टी के मानस में जितनी जगह घेरते हैं, उतनी जगह हिंदी साहित्य के इतिहास की किताबों में नहीं घेरते। ‘उर्वशी’ पर हुए विवाद को छोड़ दें, तो हिंदी आलोचना और गंभीर साहित्यिक बहसों से भी उन्हें एक तरह से बाहर रखा गया है।

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