मैम सबसे पहले तो आपको हिंदी दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ …!

प्रश्न: बतौर हिंदी शिक्षिका हिंदी दिवस को आप किस रूप में देखती हैं?
प्रो. रमा: हिंदी दिवस की आप सबको भी बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। बतौर हिंदी शिक्षिका अगर मुझसे पूछा जाए तो मुझे साल में एक बार हिंदी दिवस मनाना कभी अच्छा ही नहीं लगता। क्योंकि मुझे…हो सकता है  मैं गलत हूँ तो आप करेक्ट करना। अगर मैं गलत हूँ तो हिंदी के अलावा और किसी भाषा का दिवस नहीं मनाया जाता। पूरे विश्व में मुझे नहीं लगता हिंदी के अलावा किसी और देश में ऐसा होता हो। सबसे बड़ी बात है भारत जैसे राष्ट्र में जहाँ हमारी हिंदी अपनी भाषा है वहाँ पर हमें हिंदी दिवस मनाना पड़ता है। हाँ अगर यह होता की अंग्रेजी दिवस कब मना रहे हैं, जर्मन का कब मना रहे हैं तब शायद इतना बुरा ना लगे। लेकिन वही बात है कि इन्हीं परिस्थितियों में अगर हम इसका सकारात्मक पक्ष देखें तो चलिए कोई बात नहीं कम से कम हिंदी पखवाड़े में हमें याद आ जाता है कि हमें हिंदी में काम करना चाहिए। हिंदी पखवाड़ा में काम करते करते शायद कोई दिन ऐसा आएगा कि हमें हिंदी दिवस ना मनाना पड़े। हिंदी हमारी रोजमर्रा की भाषा बन जाए। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा हो, हिंदी हमारे शरीर के रक्त में शामिल होनी चाहिए। हो सकता हैं…! जब हम सब हिंदी बोलने लग जाएँ हिंदी में काम करने लग जाएँ और जो कि हमारी एक संपर्क भाषा है। हमें उस संपर्क भाषा का दिवस तब न मनाना पड़े। हम सब तो उस दिन के इंतजार में अब तक बैठे हुए हैं ।

प्रश्न: आजकल के छात्रों में हिंदी के प्रति उदासीनता को लेकर मैम आप क्या कहना चाहेंगी ?
प्रो. रमा: नहीं मुझे नहीं लगता छात्रों में उदासीनता है। मुझे लगता है कि अगर हम सब शिक्षित भाषा के लिए संकल्पित हो जाएँ और हम मान लें कि जो भी व्यवस्था है, व्यवस्था में हम सब की मजबूरियाँ हैं।  हमारी भी सबकी अपनी सीमाएँ हैं। उन सीमाओं के बीच में भी अगर हम इन विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते रहें तो अच्छे परिणाम होंगे। हम व्यवस्था नहीं बदल सकते इसी व्यवस्था में अगर हम इन विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते रहे तो कम से कम जो हिंदी पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं वह हतोत्साहित नहीं होंगे। सबसे ज्यादा दिक्कत कहाँ पर आती है… जब हिंदी पढ़ने वालों की अपने मन में हीन भावना होती है कि मैं हिंदी पढ़ रहा हूँ। मुझसे कोई ढंग से बात नहीं करेगा। वास्तव में अगर देखा जाए तो हिंदी बोलते हुए भी हम अपना सारा काम कर सकते हैं। सबसे पहले एक शिक्षक होने के नाते अपने विद्यार्थियों की हीन भावना को दूर करना पड़ेगा उन्हीं हमें मोटिवेट करना पड़ेगा और हमें सबको थोड़ा-थोड़ा इनको जहाँ भी रोजगार की संभावनाएँ बनती हैं, इन विद्यार्थियों को हम रोजगार के लिए कैसे तैयार करें? मुझे लगता है कि हम सब शिक्षक यह बीड़ा उठा लेंगे तो हमारे हिंदी वाले विद्यार्थी कभी हतोत्साहित नहीं होंगे।
प्रश्न: कॉलेज में हिंदी की शिक्षिका से लेकर प्राचार्य बनने तक हिंदी आपको किस तरह से सहयोग करती रही?
प्रो. रमा: देखा जाए… मैं तो हिंदी के सहारे ही यहाँ तक पहुँची हूँ। जब मैं मीडिया में काम कर रही तब भी मेरा हिंदी का ही अनुभव था। बड़ी स्वाभाविक सी बात है कि मैं हिंदी ऑनर्स करके दिल्ली विश्वविद्यालय से ही निकली हुई एक छात्रा रही हूँ। (बीच में पूछते हुए)
मैम किस कॉलेज से..?
मेरा जानकी देवी कॉलेज था। और तभी से या कह लीजिए की जब आपका भाग्य साथ देता है तो आपकी मेहनत भी सफल होने लग जाती है। प्राचार्य बनने के बाद भी जबकि हमारा कॉलेज साइंस कॉलेज है, कॉमर्स कॉलेज है, पर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि हिंदी के कारण मेरा कोई नुकसान हुआ हो। मुझे आज तक नही लगा। प्रशासन के भी सब काम ठीक से चल रहे हैं। अगर सच में देखा जाए तो हिंदी तो मेरी बहुत बड़ी ताकत बनी है। इसी बीच में जब मेरा परमानेंट प्रिंसिपल के लिए इंटरव्यू था। तब मेरे इंटरव्यू के टाइम पर यह बात आ गई थी, की साइंस कॉलेज है, कॉमर्स कॉलेज है और हम हिंदी की एक टीचर को यहाँ पर… तो उस समय जो हमारे कॉलेज का मैनेजमेंट था। खास तौर पर जो हमारे कॉलेज के चेयरमैन थे डॉ पूनम। उन्होंने बहुत सहयोग दिया। उनका कहना था हिंदी का टीचर है तो क्या हो गया काम करने वाले इंसान होना चाहिए। अगर इंसान काम करने वाला है तो हिंदी का है, अंग्रेजी का है, साइंस का है, कॉमर्स का है उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि कॉलेज मुझे एज ए ओफ्फिसिएटिंग प्रिंसिपल तीन साल देख चुका था। उन्होंने मेरी वर्किंग देखी थी। तो अब मान लीजिए अगर मैं काम ही ना करूँ। तो उससे क्या होता? उससे मेरे काम ना करने के कारण मेरी नकारात्मक छवि होती और कहा यह जाता की हिंदी की हैं इसलिए इन्हें प्रिंसिपल नहीं बनाया जा रहा। इसलिए अगर काम पूरी ईमानदारी के साथ किया जाय तो फिर भाषा आड़े नहीं आती उसके।

प्रश्न: आपको क्या लगता है मैम हिंदी शिक्षिका के तौर पर हिंदी के लिए काम करना ज्यादा आसान है? या अब जिस पद पर हैं उस पर? क्योंकि आप कॉलेज प्राचार्या हैं और पूरे कॉलेज की जिम्मेदारी भी आप पर ही है।
प्रो. रमा: नहीं… मुझे दोनों ही पदों पर रहते हुए किसी भी तरह की दृष्टि से काम करने में मुश्किलें इसलिए  नहीं लगी। जब तक मैं हिंदी की अध्यापिका थी…आज भी हूँ। मुझे आज भी विद्यार्थियों को पढ़ाना है। क्योंकि पहले मैं शिक्षक हूँ, बाद में मैं प्राचार्य हूँ। और शिक्षक और प्राचार्य से ज्यादा आज भी मैं एक विद्यार्थी हूँ और यह भी मेरी खुशकिस्मती कह लीजिए कि ईश्वर की तरफ से मुझे ऐसा वरदान मिला कि मुझे विद्यार्थी बहुत अच्छे मिले हैं। जो भी मैं हूँ वो विद्यार्थियों की ही ताकत है। मैं आपको बताऊँ जिन दिनों में मीडिया में मैं काम करती थी, मैंने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया दोनों में काम किया है। मेरा टीचिंग कोई पैशन नहीं था। मैं टीचिंग में नहीं आना चाहती थी। मैं तो मीडिया में काम करने वाली एक हरफनमौला टाइप की रही। कोई पाबंदी हम लोग झेल नहीं सकते थे। टीचर तो बनना ही नहीं है। लेकिन सही में ऐसे अच्छे विद्यार्थी मिलते रहे। यह विद्यार्थियों की ही ताकत है जिन्होंने मुझे एक अच्छा शिक्षक बनाया और जिनकी बदौलत मैं एज ए प्राचार्य भी इस पद पर हूँ। उसके बाद मुझे टीचिंग, नॉन टीचिंग स्टाफ सब बहुत अच्छे मिले। कॉलेज में सब लोग मिलकर काम करते रहते हैं। सहयोग करते रहते हैं। इसलिए हिंदी भाषा को लेकर मुझे कभी किसी तरह की कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ।

प्रश्न: प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जैसा कि मैम आपने बताया आपने काम किया वहाँ, हिंदी को लेकर क्या स्थिति है ? शायद वह सकारात्मक पहलू रहा जो इस वक्त आपको काम आया?
प्रो. रमा: बिल्कुल, बहुत सकारात्मक रहा। मेरा जो एक कॉन्फिडेंस डेवलप हुआ। मीडिया में कई तरह की चुनौतियाँ होती हैं। मीडिया में आपके सामने कई बार समय की कोई सीमा रेखा नहीं होती है। आपके अगर रेडियो में लेट नाइट शिफ्ट है तो आपको काम करना पड़ता है। मुझे लगता है कि वहाँ जो मीडिया में मैंने जिस तरह से काम किया जो मेरे पास तकनीकी जानकारियाँ आईं। वो सारी की सारी… जानकारियाँ नहीं थी कहना चाहिए कि एक आत्मविश्वास था। वो आत्मविश्वास आज मेरे बहुत काम आ रहा है। इसी के कारण हंसराज कॉलेज जो पूरे देश का एक प्रतिष्ठित और इतना बड़ा कॉलेज है, जिसमें हमारे पाँच हजार से अधिक विद्यार्थी हैं, दो सौ से ज्यादा टीचर्स है, दो सौ से ज्यादा हमारे पास नॉन टीचिंग स्टाफ है तो इस तरह से लगभग छह हजार का हमारा परिवार है और इन्हीं लोगों के साथ हम आगे बढ़ रहे हैं। तो मुझे लगता नहीं है कि कहीं कोई दिक्कत वाली बात है।

प्रश्न: कॉलेज में हिंदी विभाग के अलावा और भी कई विभाग हैं तो उनमें हिंदी दिवस को लेकर शिक्षकों में कैसा उत्साह रहता है?
प्रो. रमा: देखिए ऐसा है वो उत्साह तो हमें पैदा करना पड़ता है। और आप सब भली-भाँति जानते हैं कि हिंदी को यहाँ तक लाने में इतना सहयोग हिंदी वालों का नहीं है, जितना गैर हिंदी वालों का है। बाकी हिंदी विभाग के अलावा कोई भी किसी भी विभाग का हो सकता है। फिलॉस्फी विभाग के शिक्षक को हिंदी साहित्य अच्छा लग सकता है। क्योंकि साहित्य तो किसी की बपौती है नहीं और हिंदी साहित्य तो बहुत समृद्ध साहित्य है। हमारे यहाँ पर अलग-अलग विभागों में बहुत से शिक्षक हैं, जिनकी हिंदी साहित्य में रुचि है हिंदी में बात करते हैं। हिंदी में बात करने वाले लोग हैं। लेकिन जब हिंदी दिवस आता है सभी में एक अलग तरह का उत्साह होता है। कम से कम इस दिन ही सही, इस पखवाड़े में ही सही हम अच्छे काम करें, विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करें। तो एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब सब में खुद-ब-खुद उत्साह की भावना आ जाएगी।

प्रश्न: मैम जब आपने हिंदी को मुख्य विषय के तौर पर चुना और उसे करियर के रूप में आपने बदला तो आपके मन में क्या विचार थे?
प्रो. रमा: देखिए ऐसा है कि हमारा जो है आर्य समाज परिवार था। और मिलिट्री परिवार था।  अनुशासन था। आर्य समाज के कारण हमारे माता-पिता हमें बचपन से ही आर्य समाज में लेकर जाते थे। वहाँ गायत्री मंत्र बोलने के लिए कहते थे। 12वीं तक आते-आते जैसा लोग कहते हैं! अब उस वक्त का मुझे तो याद नहीं है लेकिन मैं हिंदी की एक अच्छी डिबेटर मानी जाने लगी थी। और मजे की बात यह है कि जब दिल्ली विश्वविद्यालय में 12वीं के बाद एडमिशन लेना था तो सबसे पहले मैंने इकोनॉमिक्स ऑनर्स में एडमिशन लिया। दौलत राम कॉलेज में। और मैं सिर्फ एक दिन गई वहाँ। मुझे लगा बड़ा भीड़ रहता था बहुत ज्यादा ट्रैफिक उन दिनों में भी था। और क्योंकि एडमिशन के दिन चल रहे थे। ऑनलाइन होते नहीं थे खूब भीड़ होती थी। तो मुझे लगा कि इस भीड़ में मैं कहीं अपने आपको एडजस्ट नहीं कर सकती और उन्हीं दिनों मेरी जो सबसे बड़ी बहन थीं वो जानकी देवी कॉलेज में पढ़ती थी। जब मैंने घर में जाकर बात की तो उन्होंने कहा कैंपस कॉलेज में तो ऐसा होता ही है। तुम एक काम करो अभी अगर एडमिशन हो सकता है तो जानकी देवी कॉलेज में आ जाओ। अब जानकी देवी कॉलेज में जाने की बात हुई तो मैंने इकोनॉमिक्स ऑनर्स… थोड़ा सा जो साथ के लोग थे, फ्रेंड्स वगैरह थे पॉलिटिकल साइंस में, तो मैंने कहा ठीक है मैं जानकी देवी कॉलेज में जाऊँगी और पॉलिटिकल साइंस ले लेती हूँ। मैंने जानकी देवी कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस में एडमिशन लिया। जानकीदेवी में पॉलिटिकल साइंस पढ़ते पढ़ते एक-दो दिन में ही वहाँ पर हमारी हिंदी सब्सिडरी की क्लासेस होती थी। तो वहाँ जो हमारी टीचर थीं मुझे ध्यान है डॉ. सुषमा पाल मल्होत्रा। उन्होंने कहा तुम तो हिंदी में बहुत अच्छा कर सकती हो तुमने पॉलिटिकल साइंस क्यों लिया? तुम आगे क्या करना चाहते हो? मैंने कहा! मैंने तो ऐसा अभी कुछ सोचा नहीं की मैं क्या करना चाहती हूँ। बस यह है कि मुझे डिबेट वगैरह बोलना अच्छा लगता है। और मैंने ट्वेल्थ क्लास का उनको प्रोफाइल दिखाया यह सब चीजें की हुई हैं। उन्होंने कहा तुम तो कॉलेज में बहुत अच्छी डिबेट कर सकते हो। तो जब उन्होंने कहा तुम हिंदी में बहुत अच्छा कर सकते हो तो मैंने एकदम से कहा… मैं हिंदी ऑनर्स कर लूँ मैडम। उन्होंने भी तुरंत कह दिया हाँ हिंदी ऑनर्स में एडमिशन ले लो। तो मैंने कहा हिंदी ऑनर्स में कैसे एडमिशन मिलेगा? तो जानकी देवी कॉलेज में हिंदी डिपार्टमेंट की टीचर इंचार्ज थी उस समय डॉ. सुदर्शन मल्होत्रा। उन्होंने उनसे बात की और हिंदी विभाग में सीट खाली थी। मैंने भी तब हिंदी ऑनर्स में एडमिशन ले लिया। देखिए वह भाग्य है… कैसे कहाँ  इकोनॉमिक्स ऑनर्स, पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स और कहाँ मैं वह सब छोड़कर हिंदी ऑनर्स में आ गई। सबसे बड़ी बात है हिंदी ऑनर्स में भी एडमिशन लेने के बाद कॉलेज ने मुझे हिंदी ऑनर्स तक ही सीमित नहीं रहने दिया। फिलॉंसॉफी की डिबेट्स होती थी। उसमें मैं जाती थी। पॉलिटिकल साइंस… जिस डिपार्टमेंट की डिबेट होती थीं। सब में मैं ही रिप्रेजेंट करती थी। धीरे-धीरे मैं पूरे कॉलेज की स्टूडेंट बन गई फिर यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट बन गई रास्ते आगे खुलते चले गए और मैं आगे बढ़ती चली गई। तो कहीं हिंदी मेरे लिए बाधा नहीं बनी।

प्रश्न: हिंदी पढ़ने के लिए किसी ने प्रेरित किया या कोई आदर्श आपका?
प्रो. रमा: देखिए मैं आपको बताओ, हिंदी ऑनर्स का तो मैंने आपको बता ही दिया। ऐसे ही हमारे ट्वेल्थ क्लास में टीचर होती थी मिस सरोज भाटिया। वो जो मिस भाटिया थी स्कूल की प्रिंसिपल थी स्कूल में मैंने उनसे इलेवंथ क्लास में पढ़ा। जब मैंने इलेवंथ क्लास में सब्जेक्टस लिए मेरे पास पॉलिटिकल साइंस था, इकोनॉमिक्स था, उस समय के सब्जेक्ट थे और हिंदी मेरे पास था। स्कूल में जो हमारी प्रेयर मीटिंग होती थी उसमें हमें न्यूज़ पेपर पढ़ना होता था। तो उन्होंने मुझसे प्रेयर में समाचार पत्रों को पढ़वाना शुरू कर दिया। मुझे अच्छा लगता है, इतने लोगों के सामने कोई टीचर उत्साहित कर रहा है। फिर जो है उन दिनों में…! जैसे आज भी होती हैं उन दिनों यूथ पार्लियामेंट होती थीं। यूथ पार्लियामेंट में मुझे मिसेज इंदिरा गांधी का रोल करने को मिल गया। अच्छा वो जो यूथ पार्लियामेंट हुई थी। उस समय पर यूथ पार्लियामेंट पूरे देश में नंबर वन पर रही। प्रीमियर में हम तीसरे चौथे नंबर पर आए और फाइनल में हम नम्बर एक पर आ गए। तो मुझे बहुत अच्छा लगा। तो उन्होंने जो मिस भाटिया थी मेरी टीचर उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। तो एक तरह से हिंदी के प्रति मेरी लगन तो पैदा हो गई। मुझे लगा कि मैं हिंदी डिबेटस अच्छा कर रही हूँ। वहीं अगर कोई चाहता तो शायद उस उम्र में मैं इंग्लिश की डिबेट की तरफ भी मुड़ सकती थी। अगर कोशिश की जाती लेकिन ऐसा कुछ नहीं। तो वहाँ स्कूल में हिंदी की टीचर मिली कॉलेज में मुझे हिंदी के टीचर बहुत अच्छे मिले। तो वो टीचर जिस तरह से मुझे प्रोत्साहित करते चले गए और मैं आगे बढ़ती चली गई। अच्छा घर में हमारे क्या था, घर में साहित्य से कोई जुड़ा हुआ नहीं था। मैंने आपको बताया क्योंकि घर में आर्य समाज का माहौल था तो वह मुझे आर्य समाज में भेजा करते थे। धीरे-धीरे मैं आर्य समाज की अच्छी वक्ता बन गई। तो मुझे लगा मेरे इर्द गिर्द सारी हिंदी ही हिंदी है। इस तरह से लोग भी मुझे मिलते रहे। मुझे प्रोत्साहित करते चले गए प्रेरित करते चले गए और मैं पढ़ती पढ़ाती आगे बढ़ती  रही।

प्रश्न: आजकल के छात्रों और शिक्षकों में हिंदी को लेकर कोई अच्छी बात जो आप देखती हैं?
प्रो. रमा: नहीं कोई अच्छी बात क्या…? बहुत सारी अच्छी बातें हैं। आप देखो ना आज के माहौल में भी जहाँ चारों तरफ अंग्रेजी का साम्राज्य में दिखाई देता है। वहाँ के माहौल में भी बच्चे हिंदी ऑनर्स करने आते हैं ना। बच्चे जो हैं संस्कृत ऑनर्स करने आते हैं ना। आज भी अगर हम… यह तो हो गई छात्रों की बात। हंसराज कॉलेज में हमारे पास फर्स्ट या सेकंड, ज्यादा से ज्यादा हम सेकंड कट ऑफ तक जाते हैं। सेकंड कट ऑफ तक आते आते हमारे एडमिशनस क्लोज हो जाते हैं। जबकि इकोनामिक ऑनर्स में हम सातवीं आठवीं कट ऑफ तक जाते हैं। यानी बच्चे पढ़ना चाहते हैं नंबर एक। अब हम बात करते हैं पढ़ाने वाले टीचर्स की। तो आज भी हम डाटा देखें तो मुझे लगता है कि सबसे ज्यादा कैंडीडेट्स जो हैं वह हिंदी पढ़ाने वालों के हैं। छह सौ सात सौ। मतलब पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन हमारी व्यवस्था ऐसी है कि हम सबको रोजगार नहीं दे पाते अगर यही हमारी थोड़ी व्यवस्था अच्छी हो जाए। मुझे लगता है ना हिंदी पढ़ने वालों की और ना हिंदी पढ़ाने वालों की कमी है। बल्कि हमें पढ़ने वालों को भी और पढ़ाने वालों को भी हमें प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

प्रश्न: और इसी तरह से कोई कमी जिसे आप सुधार करना चाहे छात्रों और शिक्षकों को लेकर….
प्रो. रमा: कमी तो देखो ऐसा है मैं कमी तो उसे नहीं कहना चाहूँगी। सुझाव ही कहना चाहूँगी। हमें अपने काम करने की ऊर्जा को, अपने सकारात्मक दृष्टिकोण को और बढ़ाना होगा। और जो हिंदी वालों के अंदर एक हीन भावना रहती है सामने वाला हमें कुछ नहीं कह रहा। एक सामने वाला व्यक्ति है वह बड़े शान से कहता है मैं तो अंग्रेजी में बात कर सकता हूँ हिंदी में बात नहीं कर सकता। तो हिंदी में बात करने वाला व्यक्ति क्यों नहीं कह सकता कि मैं अंग्रेजी में बात नहीं कर सकता। मैं हिंदी मैं बात कर सकता हूँ। हाँ अगर हम भारत से बाहर हैं मान लिजिए अगर हम अमेरिका में, जापान में, हम जर्मन में, वहाँ जाते हैं। वहाँ एक व्यक्ति कहता है मैं हिंदी में बात नहीं कर सकता। मैं तो अंग्रेजी में बात कर सकता हूँ। वहाँ भारत के व्यक्ति को बराबर उसके अंग्रेजी में बात करनी चाहिए। लेकिन भारत में रहते हुए अपने देश में रहते हुए ऐसी कौन सी मजबूरी है हमारे सामने कि कोई भी व्यक्ति अपनी भाषा में बात नही कर सकता। हमें भी उतनी ही जितनी शान से कहा जाता है एक अंग्रेजीदार लोग कहते हैं, जितनी शान से… हम हिंदी में नहीं बोल सकते हैं। ऐसे ही हिंदी वालों को भी आगे आना होगा सॉरी हम भी अंग्रेजी नहीं बोल सकते हम हिंदी में ही बात कर सकते हैं। आप भारत में रह रहे हो। हम भारत देश के लोग हैं। हमारी अपनी भाषा हिंदी है। हम हिंदी में बातचीत करें। तो इस तरह से हम सबकों एक करना शुरू कर दें। तो मुझे लगता है कि स्थितियाँ बहुत बदल जाएँगी।

प्रश्न: आप खुद में हिंदी को लेकर सबसे अच्छी बात क्या पाती हैं?
प्रो. रमा: हिंदी में काम करना अच्छा लगता है। हिंदी ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया है तो मुझे तो हिंदी सबसे अच्छी लगती है बहुत अच्छी लगती है।

प्रश्न:  मैम… कमी या सुझाव जो आप खुद में सुधार करना चाहेंगी?
प्रो. रमा: देखिए ऐसा है अभी मैं पहले पिछले प्रश्न पर देखो तो आपने एक अच्छी बात पूछी की हिंदी में  आपको सबसे अच्छी बात क्या लगती है? जो मुझे अंग्रेजी की सबसे ज्यादा खराब लगती है। हिंदी में जैसे हम बोलते हैं वैसे लिखते हैं। जैसा हम लिखते हैं वैसा हम पढ़ते हैं। बाकी भाषा में हम ऐसा नहीं करते। आप लोग अक्सर बड़ा कॉमन सा एग्जांपल देखते हैं। बी यू टी बट होता है तो पी यू टी पुट कैसे हो जाता है? अगर हम बाजार कह रहे हैं। बाजार बड़ा सीधा सा है, जो बोल रहे हैं वही लिख रहे हैं। और जो हमारे सामने लिखा हुआ है। जो हम पढ़ रहे हैं…जब लिखने पढ़ने बोलने का एक ही तरीका होता है तो मुझे लगता है कि उससे अच्छी भाषा हो ही नहीं सकती। तो इसलिए हिंदी में यह चीज मुझे बहुत अच्छी लगती है।

प्रश्न: आपके कॉलेज या स्कूल के दिनों में हिंदी से संबंधित कोई घटना जो आपको प्रेरित करती हो या ऐसा वाकया जिसे आप हमसे  साझा करना चाहें?
प्रो. रमा: ऐसा है कि… वही है…! एक जो मुझे कभी-कभी मुझे उसका बढ़ा नुकसान भी होता है। लेकिन कभी-कभी फायदा भी हो जाता है कि मैं आशु भाषण शुरू से बहुत अच्छे तरीके से करती रही हूँ। मेरे से रटा नहीं गया कभी नहीं रटा गया। रटने की मेरी प्रवृत्ति ही नहीं है। यहाँ तक कि मैं दो लाइने भी रट नहीं सकती। अब क्या है ना कि स्कूल के दिनों में यूथ पार्लियामेंट होनी थी और मुझे मिसेज इंदिरा गांधी का रोल प्ले करना था और वहाँ पर मुझे बिल्कुल…! पूरी कोशिश की गई बहुत अच्छे से अभ्यास करवाया गया था। स्पेशली रटवाया गया था। और लगभग मैंने कोशिश की भी रटने की। मजे की बात यह है कि जिस दिन हमारा फाइनल राउंड था। फाइनल राउंड में जिस दिन मुझे अपना वह सारे का सारा बोलना था….मैं पढ़ तो सकती नहीं थी क्योंकि मुझे बोलना था। जो मुझे बोलना था वह मेरे रटे हुए से बिल्कुल अलग था। मतलब मैं सारा भूल गई। लेकिन पता नहीं ऐसी कौन-सी ईश्वरीय शक्ति या किसकी वह प्रेरणा थी। मेरे सामने मुझे लगता है मेरे टीचर्स, वह जो मेरे उस समय मित्र और जो सहयोगी बैठे हुए थे, उन्हीं की वह प्रेरणा थी कि मैं अपना वह जो रटा हुआ था वह सारा भूल गई और उसके बावजूद भी मैं कहीं रुकी नहीं। मैं लगातार बोलती चली गई सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि मैं रुकी नहीं। अब मुझे याद भी नहीं कि मैं क्या बोली लेकिन जो टीचर्स थे एकदम से वो भूल जाएँ, टीचर्स के तो होश उड़ जाते है ना। वह एक हमारा फाइनल राउंड है। और फाइनल में कहाँ हम तीसरे चौथे पर है उन्हें लगा अब हम तो बहुत पीछे चले जाएँगे। और मजे की बात है कि वह बहुत अच्छा अनुभव रहा उससे हमारा जो समय यूथ पार्लियामेंट थी पूरे देश में पहले स्थान पर आई और व्यक्तिगत रूप से भी मुझे पहला पुरस्कार उस समय मिला। उस घटना ने मुझे बहुत प्रेरित किया और मुझे लगने लगा रटने की कोई जरूरत नहीं होती। हमेशा जो है आपके मस्तिष्क में चीजें आनी चाहिए। अपना आत्मविश्वास बढ़ाओ। भाषा पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए। उस दिन से मैंने थोड़ा सा, ज्यादा पढ़ना शुरू किया। मैं समाचार पत्र ज्यादा पढ़ने लगी। मैं साहित्य पढ़ने लगी। जिससे कि मेरे पास भाषा की इतनी सामग्री होनी चाहिए कि मुझे बोलते समय कहीं भी कोई दिक्कत ना हो तो उस चीज को मैं कभी आज तक भूल नहीं पाई हूँ।

प्रश्न: हिंदी विषय में आपके प्रिय लेखक/कवि/रचनाकर कौन हैं? एक से अधिक भी हो सकते हैं। उसी तरह आपकी पसंदीदा रचना/कृति कौन सी है ? एक से अधिक भी हो सकते हैं।
प्रो. रमा: देखिए ऐसा हैं मैं बताऊँ, हालांकि इधर के बहुत सारे साहित्यकार आ गए हैं। मुझे मन्नू भंडारी को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है। चित्रा मुद्गल को पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैत्रेयी पुष्पा जी जब हिंदी अकादमी में थी, और मेरी उनसे जब इधर काफी बातचीत हुई तो उनसे काफी प्रभावित हुई। और उनको खूब पढ़ना शुरू किया। लेकिन फिर भी मैं आपको बताऊँ भीष्म साहनी की तमस ने मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया। ऐसे ही जब बात करते हैं फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आँचल की। मतलब मुझे लगा कि इनके बराबर की कृतियाँ ही नहीं है कोई। इन सबको पढ़ने के बाद प्रेमचंद को भी पढ़ा। आजकल इतना कुछ लिखा जा रहा है फिर भी इनमें से कोई भी सूर, तुलसी, मीरा की जगह नहीं ले सकता। मुझे महादेवी वर्मा की कविताएँ बहुत पसंद हैं। प्रेरित करती हैं मुझे वो। उनके संस्मरण और रेखाचित्र अद्भुत हैं। इन सबके बावजूद आज तक मुझे कोई भी महिला लेखिका मीराबाई के मुक़ाबले खड़ी नज़र नहीं आती। मीराबाई ने जिन परिस्थियों में लिखा और जिस तरह से लिखा। मुझे लगता है नारी/स्त्री मुक्ति आंदोलन का सशक्त उदाहरण तो मीरा प्रस्तुत करती हैं। तो इस तरह से हर समय के कुछ न कुछ साहित्यकार प्रेरित करते रहते हैं।

प्रश्न: रोजगार में हिंदी अनुवाद/पत्रकारिता के साथ साथ अब हिंदी सिनेमा भी काफी प्रखर रूप से उभरकर सामने आ रहा है? हिंदी सिनेमा लेखन/डबिंग के लिए कौन कौन से प्रयास कॉलेज/विश्वविद्यालय स्तर पर किए जा रहें हैं?
प्रो. रमा: सही में, सिनेमा में काम करने का बहुत स्कोप है। मुझे भी सिनेमा के बारे में पढ़ाने के लिए लगभग ना के बराबर किताबें हैं खासतौर से हिंदी भाषा में। तो इसका मतलब स्कोप तो बहुत है सिनेमा में। काम तो बहुत है। अगर हम रोजगार की बातें करें तो कभी मैंने ये स्वीकार ही नहीं किया कि हिंदी में रोजगार ही नहीं है। मैं हमेशा कहती हूँ रोजगार बहुत है। जब मैं कहती हूँ कि अच्छे लोग होने चाहिए। तो अच्छे लोगों से मेरा तात्पर्य सही हिंदी लिखने वालों से है। वर्तनी की अशुद्धियाँ न करते हों, जो सही बोलते हों। जब मैं सही लिखने, सही बोलने की बात कर रहीं हूँ तो मेरे सामने कहीं साहित्यिक भाषा नहीं है, क्लिष्ठ भाषा नहीं है। हमारी रोजमर्रा की भाषा भी सरल, सहज भाषा हो सकती है। तो उस तरह के लोग आगे आने चाहिए। लिखने वाले, अच्छा लेखन करने वाले लोग आएँ। हमें सतही लेवल के कोर्सेस नहीं करवाने चाहिए। हम अच्छे कोर्सेस करवाएँ। मान लीजिए सिनेमा का कोर्स है। सिनेमा का कोई ऐसा पाठ्यक्रम बनें; मैं चाहती हूँ कोई आगे आए। हम उस कोर्स को करवाने के लिए बिल्कुल तैयार हैं। जब विद्यार्थी सिनेमा में वो कोर्स करके जाए तो सिनेमा की दुनिया में जुड़े लोग उसका स्वागत करें, अच्छा आपके पास इतनी जानकारी है। जब व्यक्ति के पास जानकारी होती है, जब व्यक्ति के पास ज्ञान होता है। सिनेमा के पास बहुत सा काम होता है। सिनेमा कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता। उसके अंदर कई लोगों की एक बड़ी टीम होती है। मतलब एक रफ कॉपी से लेकर उसको अंतिम रूप देने तक उसमें कितने लोग होते हैं। तो अगर हिंदी के लोग, मैं आपको सही बता रहीं हूँ, हिंदी के लोग अच्छा काम करते हुए, अपना आत्मविश्वास बढ़ते हुए, कर्मठ होकर इस फील्ड में आएँ तो केवल सिनेमा ही नहीं मीडिया में भी काम करने का बहुत स्कोप है। लेकिन कहें कि अगर हमें वर्तनी का ज्ञान नहीं है, भाषा का ज्ञान नहीं है, व्याकरण का ज्ञान नहीं है, हम गलत बोल रहे हैं, गलत लिख/पढ़ रहे हैं तो रोजगार की बात करें तो कह सकते हैं कि पहले भी रोजगार कि कमी थी और आज भी रोजगार की कमी है।

प्रश्न: आपकी पसंदीदा हिंदी फिल्में और नायक/नायिकाओं के नाम ?
प्रो. रमा: देखिए ऐसा है… … मैं फिल्में बहुत देखती रही हूँ। चक दे इंडिया, तारे जमीं पर बहुत अच्छी फिल्म लगीं। मैंने हाल ही में छिछोरे फिल्म देखी। मुझे बहुत अच्छी लगी। अब नाम सुनकर मुझे अच्छी नहीं लगी थी। फिल्मों के नाम भी कैसे-कैसे रखने लग गए। छिछोरे क्या नाम हुआ। लेकिन वो भी पूरी की पूरी रिसर्च की जाती है कि नाम कैसे अट्रैक्टिव रखा जाए। और सच में जो नाम रखा गया और नाम के विपरीत जो उसका संदेश था। वो मुझे बहुत अच्छी फिल्म लगी। बाकी रही पसंदीदा एक्टर की बात तो जिस हंसराज कॉलेज कि मैं प्रिंसिपल हूँ, शाहरुख खान वहाँ से पढ़कर निकले हैं तो उनसे अच्छा हमें कौन लग सकता है। लेकिन हमें किसी एक कलाकार के साथ… मैंने अपने आप को कभी बांधा नहीं है। चूँकि शाहरुख के साथ एक भावनात्मक संबंध है। शाहरुख ने मुझे हमेशा ही प्रेरित किया है। बाकी हर फिल्म में जितने कलाकार मेहनत से काम करते हैं। गोविंदा के साथ… … मैंने दो तीन दिन रहकर उन्हें काम करते देखा है। फिल्म इंडस्ट्री की कड़ी मेहनत मैंने गोविंदा के रूप में देखी है। ऐसे ही संगीत में मुझे कैलाश खेर बहुत प्रभावित करते हैं। ग़ज़ल गायकों में ग़ुलाम अली, पंकज उदास बहुत अच्छे हैं। हमें ये मान के भी नहीं चलना चाहिए कि ये मेरा पसंदीदा कलाकार है। हम तो इसी की फिल्में देखेंगे। हम तो इसी का संगीत सुनेंगे। ऐसा नहीं होना चाहिए। हर फिल्म के साथ हमारी पसंद बढ़नी चाहिए। और हमें हर कलाकार को प्रोत्साहित करना चाहिए।

प्रश्न:  प्रायः देखने में आता है कि भाषा/व्याकरण के स्तर पर कॉलेज के छात्रों में कम और साहित्य के स्तर पर अधिक फोकस किया जाता है, जिससे भाषा/व्याकरण पर उतनी पकड़ नहीं बन पाती। जबकि अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं में इसी से सवाल होते हैं? इसके बारे में आपके क्या विचार हैं?
प्रो. रमा: देखिए हमारे विश्वविद्यालय की ये भी एक विडंबना ही है। इसकी शुरुआत विद्यालय स्तर पर ही शुरू हो जाती है। मैं आपको बताऊँ हमारे समय में अध्यापकों में स्कूलों में डंडे मार-मार कर लिखना सिखलाया है। उस समय तख्ती होती थी, कलम स्याही के साथ बार-बार उस पर लिखकर सिखलाया जाता था अध्यापकों द्वारा। हमारे शिक्षकों को लगता था कि अगर हमने व्याकरण सीख लिया तो हिंदी बोलने पढ़ने में कभी दिक्कत नहीं होगी। लेकिन विद्यालयों में भी उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। यही व्याकरण से अनभिज्ञ विद्यार्थी जब कॉलेज में आते हैं। विश्वविद्यालयों का काम तो उन्हें साहित्य की दुनिया में ले जाने का है। वो ये मानकर चलते हैं कि ये तो व्याकरण सीखकर आए होंगे। तो इसके लिए होना ये चाहिए कि प्राइमरी और उच्च शिक्षा में तालमेल होना चाहिए। और जब हमारे पाठ्यक्रम बनें तो उस वक्त हमें सचेत रहना चाहिए कि हमें विद्यार्थियों को न केवल साहित्य पढ़ाना है। बल्कि हमें इनकी भाषा पर भी पूरा ध्यान देना है, तो सुधार की बहुत गुंजाइश है। लोग आगे आएँगे, सुधार होगा तो स्थितियाँ बदलेंगी।

प्रश्न : साहित्यिक कृतियों पर जो फिल्में बनती हैं, वो इस तरह की स्थितियों में किस तरह से अपना सहयोग देती हैं? आपको क्या लगता है?
प्रो. रमा: बिलकुल…! मान लीजिए प्रेमचंद का गोदान है। प्रसाद ने भी चंद्रगुप्त लिखा है। जो टेलीविज़न धारावाहिक के रूप में भी आया। भीष्म साहनी तमस लिखते हैं और उसे अपने सामने टेलीविज़न पर प्रसारित होते हुए भी देखते हैं। ये काम तो बहुत अच्छा है। एक लेखक मुद्रित रचना के माध्यम से कुछ हज़ार लोगों तक पहुँचता है। लेकिन इलेक्ट्रोनिक माध्यम से वो लाखों-करोड़ो तक पहुँच जाता है। कोई भी रचना हो कोई भी कृति हो यदि उसपे कोई फिल्म बनती है कोई धारावाहिक बनती है तो वो बड़ी आसानी से लाखों-करोड़ो तक पहुँच जाती है। लेकिन वहाँ पर भी क्या है, मुद्रित और इलेक्ट्रोनिक माध्यम में बड़ा अंतर आ जाता है। भीष्म साहनी बहुत परेशान हुए। मैंने जो तमस लिखा और दिखाये जाने वाले तमस में बहुत अंतर है। लेकिन अंतर तो आएगा ही। इसके लिए लेखक को भी तैयार रहना चाहिए। जो भी फिल्म बना रहा हो, धारावाहिक बना रहा हो, उसे भी ध्यान रखना चाहिए लेखक/रचनाकर की मूल आत्मा को नष्ट नहीं करना। मतलब बेचने के नाम पर, हमारी टीआरपी अच्छी बन जाए, दर्शक क्या चाह रहे हैं। अगर रेडियो है तो हमारे श्रोता क्या चाह रहे हैं। दर्शकों और श्रोताओं को ही केवल ध्यान में नहीं रखना। (बीच में रोकते हुए)
कई बार बाजारीकरण भी?
हाँ उसी पर आ रहीं हूँ। वो जो वृत्ति है न। कमाने की वृत्ति, व्यावसायिक वृत्ति जिसे हम बाजारीकरण कह रहे हैं। वो वृत्ति रचना पर हावी नहीं होनी चाहिए। उससे रचनाकर को बहुत कष्ट होता है। तो अगर इनमें ताल-मेल हो जाए तो दोनों ही माध्यम अच्छे हैं जन-जन तक पहुंचाने के लिए।

प्रश्न:  साहित्य के स्तर पर भी अधिकांशतः कबीर, सूर, तुलसी, प्रेमचंद आदि तक ही सीमित हो गया है छात्र इससे इत्तर जाना नहीं चाहता ऐसा क्यों?
प्रो. रमा: नहीं…! यहाँ भी मैं कहना चाहूँगी, ये बड़े दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियाँ हैं। छात्रों का ज्ञान केवल कबीर, सूर, तुलसी तक नहीं बल्कि पाठ्यक्रम तक सीमित हो गया है। ये बात हो गई है। (बीच में हाँ में हाँ मिलाते हुए)

जी मैम…! यही बात।
अगर पाठ्यक्रम को भी पढ़ ले तो बहुत गनीमत है। मैं कॉलेजेस और यूनिवर्सिटी के बच्चों को देखती हूँ कई बार तो वे सिलेबस में लगी रचना भी नहीं पढ़ते। जब से हमारा सेमेस्टर शुरू हुआ है वो अपने आप को मास्टर मानने लगता है। और वो मास्टर गाइड खरीद लेगा। हर बच्चा चैंपियन बनना चाहता है तो चैंपियन गाइड खरीद लेता है। मगर वो सिर्फ परीक्षा की दृष्टि से है। हालांकि वो भी अच्छी चीज नहीं है। हमेशा मूल रचना को पढ़ना चाहिए। मान लीजिए मन्नू भंडारी की कोई एक रचना लगी हुई है तो कोशिश करनी चाहिए कि मन्नू भंडारी की दूसरी कम से कम दस रचनाएँ तो पढ़ें। उससे परीक्षा में भी प्रश्न के उत्तर देते हुए आसानी होती है। हमें मन्नू भंडारी को समझने में आसानी होगी। फिर जो विद्यार्थी आगे चलकर एम.फिल.,पीएचडी करना चाहते है उन्हें आसानी होगी। तो जो पाठ्यक्रम का साहित्य है उसे तो पढ़ना ही चाहिए। और दूसरे साहित्य को भी जरूर पढ़ना चाहिए। केवल हिंदी ही क्यों? मैं तो ये कह रही हूँ कि जो विद्यार्थी हिंदी ऑनर्स का है, दूसरी भाषाओं का भी साहित्य पढ़े। विदेशी भाषाओं का न सही तो कम से कम भारतीय भाषाओं के साहित्य को तो पढ़े वो।

प्रश्न : शोध के स्तर पर भी उन्हीं लेखकों/रचनाकारों और ऐसे विषयों पर शोध हो रहे हैं जिन पर बहुत काम हो चुके हैं? उनके शोध के विषय किस तरह के होने चाहिए ?
प्रो. रमा: देखिए वही बात है कि हम सबकी पसंद-नापसंद होती है। अलग-अलग स्तरों पर काम होता रहता है। और आसानी से कह दिया जाता है कि राजनीति आ गई है। मान लीजिए मुझे कभी सहूलियत मिल जाती है पाठ्यक्रम बनाने की। तो मेरी कोशिश क्या होगी मैं अपने पसंदीदा दस लेखकों को लगा दूँ। ये जो सिस्टम है न जो धीरे-धीरे बढ़ रहा है, ये खतरनाक है। हमें किसी एक विचारधारा को प्रमोट नहीं करना चाहिए। जब भी हमें कभी अवसर मिले तो अपनी विचारधारा को किनारे पर करके हमें समग्रता में सोचना चाहिए। पाठ्यक्रमों में बदलाव हमें समय के अनुसार करना चाहिए। आवश्यकता के अनुसार करना चाहिए, रुचि के अनुसार करना चाहिए। और कभी भी हमें एक पक्ष का होकर नहीं करना चाहिए। और मुझे लगता है कि जिस तरह का प्रश्न आपने मुझसे पूछा है अभी हमारे पास इस तरह की कोई सहूलियत नहीं है। जो पाठ्यक्रम बनाते हैं, जो विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए लोग हैं। अगर आप उनके पास जाएँ और इस तरह के प्रश्न करें तो शायद बहुत वाजिब उत्तर आपको वहाँ से मिल पाएगा।

प्रश्न: हिंदी विषय में होने वाले शोध में अधिक गुणवत्ता कैसे आए? इसके लिए छात्रों को कोई संदेश?
प्रो. रमा: छात्रों के लिए यही संदेश है कि कंप्यूटर में होने वाले कॉपी पेस्ट अब शोध में भी दिखने लगे हैं, जो कि अच्छी बात नहीं है। उससे दूर रहना चाहिए। अभी शायद पता न चले मगर आगे चलकर बड़ा नुकसान होता है। इससे हमें बचना चाहिए। शोध अगर हम कर रहें हैं तो अपनी दृष्टि को आगे बढ़ाएँ, अच्छे से शोध करें। शोध की गहराई में जाकर अपनी पसंद का विषय लेकर, सब बातों का ध्यान देते हुए मौलिक शोध करेंगे तो मुझे लगता है कि उसके परिणाम बहुत अच्छे आएँगे।

प्रश्न: वर्तमान समय में हिंदी के पाठ्यक्रम को लेकर अगर आप कोई सुझाव देना चाहें तो वो क्या क्या बिंदु होंगे ?
प्रो. रमा: पहला सुझाव तो यही है कि हमें किसी एक विचारधारा को प्रमोट नहीं करना चाहिए। लेखक किसी एक बिरादरी का नहीं होता। साहित्यकार समग्र समाज का होता है। पाठ्यक्रम में रोजगार को ध्यान कर बनाना एक अलग विषय है। पाठ्यक्रम बनाते समय विद्यार्थियों में एक ललक तो पैदा कर सकते हैं। एक समझ तो पैदा कर सकते हैं। चाहे वो अनुवाद के माध्यम से हो, मीडिया के माध्यम से हो, सिनेमा के माध्यम से हो, जितनी भी रोजगार की संभावनाएँ हैं। क्योंकि पढ़ते-पढ़ते एक समझ विकसित हो जाती है। तो हमें वो सारी की सारी पाठ्यक्रम में चीजें शामिल करनी चाहिए।

प्रश्न: राष्ट्रभाषा के रूप में अब तक इसे हमारे देश में दर्जा नहीं मिला ? राजभाषा भी है तो बस नाम की। हिंदी/अँग्रेजी में अँग्रेजी को ही सही माना जाता है। इसको आप किस नज़रिये से देखती हैं?
प्रो.रमा: देखिए ऐसा हैं मैं आपको बताऊँ पिछले कुछ समय में तो स्थितियाँ काफी सुधरी हैं। कम से कम हमारे राष्ट्रनायक, देश के प्रधानमंत्री जब बाहर जातें हैं और वहाँ भी हिंदी में बोलते हैं तो अच्छा लगता है। यही नहीं बात भी बड़ी प्रभावशाली भाषा में करते हैं तो लगता है बाहर भी उनको सुनने वाले करोड़ों लोग हैं। उनकी बोलने की शैली सबको प्रभावित करती है। यानि की हिंदी बोलकर भी व्यक्ति प्रभावित कर सकता हैं। और ये जो राजभाषा राष्ट्रभाषा की बात है तो वो एक अलग तरह की राजनीति है। अगर जनता ठान ले, तो मैं आपको सही बता रही हूँ एक दिन में हिंदी राजभाषा से राष्ट्रभाषा बन जाए। इसे कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यहाँ पर सबको आगे आना होगा। राजनेता, राजनीति उतनी पहल नहीं करेगी जितनी पहल जनता को करनी पड़ेगी। और अगर हम सही काम करेंगे, अच्छे से काम करेंगे। अगर हम सब संगठित हो जाएँ। तो मुझे नहीं लगता कि इसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक सकता है।

प्रश्न: हिंदी दिवस से लेकर, विश्व हिंदी दिवस और विश्व हिंदी सम्मेलन होते रहते हैं। हिंदी के नाम पर न जाने कितनी ही योजनाएँ चल रही हैं। पैसे भी काफी खर्च किए जा रहें हैं। सरकारी तमाम संस्थाएं हिंदी को लेकर कार्य कर रही हैं फिर भी हिंदी के प्रति सबका उदासीन नज़रिया क्यों बना हुआ है? आपके विचार और सुझाव।
प्रो. रमा: नहीं नहीं हिंदी की स्थिति बहुत बदली है, पहले जितना काम हिंदी में होते थे उससे कहीं ज्यादा काम अब हो रहे हैं। हिंदी बोलने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। हिंदी के जितने आपके समाचार, पत्र-पत्रिकाएँ हैं। चैनल आप उठाकर देखिए सोनी जैसे चैनल को आखिर क्यों हिंदी में KBC को लाना पड़ा। क्यों नहीं अँग्रेजी में चला दी। भई सबको पता है ये दिल मांगे मोर। भारत से अच्छा बाज़ार उन्हें कहाँ मिलेगा? इससे देखें तो हिंदी के लिए स्थितियाँ तो अच्छी हैं। संख्या बढ़ रही है, और बढ़ जाए ये अच्छी बात है। केवल शहरों में बैठकर नहीं देखना चाहिए कि हिंदी बोलने वाले कितने लोग हैं। और शहरों में भी देख लीजिए एक प्रतिशत लोग भी नहीं होंगे जो सुबह से शाम तक अँग्रेजी में बात करते होंगे। बहुत अच्छी अँग्रेजी बोलने वाले को खड़ा कर दीजिए। वो दो मिनट अँग्रेजी में बोलेगा और जब अपने सुख-दुख की बात करनी होगी, कोई बात शेयर करनी होगी तो हम अपनी हिंदी भाषा में आ जाते हैं। तो इसका मतलब हिंदी का प्रचार-प्रसार तो खूब बढ़ रहा है।

प्रश्न: और अंत में आपसे जानना चाहेंगे कि हिंदी को रोजगार के रूप में छात्र किस तरह से लें? और किन किन बातों पर विशेष ध्यान दें?
प्रो. रमा: अगर सब बच्चें आप जैसे मेहनती हो जाएँ। ‘आशुतोष’ और ‘अनुज’ मिलकर जो इतना काम कर रहें हैं और आपकी पूरी टीम बहुत अच्छा काम कर रही है। अगर और बच्चें भी ऐसा काम करें तो मुझे लगता है कि हिंदी और आगे बढ़ेगी।
और छात्रों के लिए यही कहना चाहूँगी कि रोजगार की कोई कमी नहीं है। उनके लिए सबसे बड़ा संदेश यही है कि मेहनत करो। मेहनत से पीछे नहीं हटना है। अपने मन में कोई हीन भावना नहीं होनी चाहिए। बहुत संभावनाएँ हैं, असीम संभावनाएँ है। अब तो हिंदी वाले केवल रोजगार ले ही नहीं सकते बल्कि रोजगार दे भी सकते हैं। आप चाहे सोशल मीडिया की भाषा उठाकर देख लीजिए। लेकिन, आपको काम पूरे लगन के साथ, पूरे परिश्रम के साथ, पूरी निष्ठा के साथ करना पड़ेगा तो आपका भविष्य सुरक्षित है, स्वर्णिम है। हम अपने आप को बदलें तो समाज बदलेगा लेकिन शुरुआत हमें अपने आप से करनी पड़ेगी। एक-एक छात्र अपने से शुरुआत करे तो मुझे लगता है कि हिंदी में बहुत अच्छा काम हो सकता है। और अंत में लगता है कि आप सभी के प्रश्न पूरे हो गए होंगे। हो सकता है और भी जिज्ञासाएँ हों उनका समाधान फिर कभी करेंगे। हिंदी दिवस की आपको हंसराज परिवार की तरफ से बहुत बहुत शुभकामनाएँ। और अंत में मैं अपनी बात इन्हीं पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहूँगी कि-
हिंदी है तो सब मुमकिन है…!


और मुमकिन तब तक है जब तक हमारे सामने “साहित्य सिनेमा सेतु” की टीम है। बीच में मैंने ‘आशुतोष’ आपका और ‘अनुज’ का जो नाम लिया था, उसका एक कारण ये भी था कि आप लोगों ने ये जो “साहित्य सिनेमा सेतु” बनाया है। इस सेतु को समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलकर और बड़ा करना है। आपका ये सेतु खूब अच्छा हो। ये सेतु आप सबको बहुत आगे लेकर जाए, इसके लिए आप सबको बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
मैम आपको भी “साहित्य सिनेमा सेतु” के पूरे परिवार की तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद…!

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One thought on “हिंदी है तो सब मुमकिन है : प्रो. रमा”

  1. अति उत्तम । ऐसे ही सफलता की सीढ़ी चढ़ते जाएं ।

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