mohabbat

ख़ुदी से जिंदगी में एक भूल कर बैठे
वफ़ा-ए-इश्क़ मे ख़ुद को फ़ुज़ूल कर बैठे

ये सोचते थे कि खुशबू कभी तो आएगी
ख़िज़ाँ के मौसमों में ये मलूल कर बैठे

यही तो होना था अंजाम आज़माने का,
तबाह कर वो न-क़ाबिल-क़ुबूल कर बैठे

मिले नहीं वो मिली तो फ़क़त सभी यादें
गुलाब के सभी काँटे हुलूल कर बैठे

पुरानी हो गई थी दास्तां मोहब्बत की
नज़र मिला के ख़ुदी को नुज़ूल कर बैठे

रह-ए-वफ़ा में मिले और भी मगर उल्फ़त
रहेंगी उनसे ये कैसे उसूल कर बैठे

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One thought on “ग़ज़ल : ख़ुदी से ज़िदगी में एक भूल कर बैठे”

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