धोखे से पाई सफलता क्या सच में सफलता है?
चांद बुलंदी पे है फिर भी दाग़ तो दिखता है
रोज़ उसे ही लिखा मैंने कश्मकशीं देखों.
इश्क़ मेरा वो किसी ओ को ही समझता हैं
इश्क़ को मैंने जवानी का रोग ग़लत समझा.
बूढ़ा है इक मेरे महफ़िल मे आह जो भरता है
मिटते नहीं यार सच्चे दिल से इश्क़ ओ नफ़रत.
ज़िंदा यहां से तो जाने के बाद भी रहता हैं
कोई किसी के बिना मरता तो नहीं है लेकिन.
आत्मा मर जाती ये कोई – कोई ही कहता हैं
एक ही कमरे में मैं हूं ओ मेरी ही नाकामी.
जोरों से रो रहा हूं ओ वो मुझ पे ही हँसता हैं