छोटे-छोटे शहरों में ही बड़ी प्रेमकथाएँ जन्म लेती हैं। भले इतिहास में इनका कोई जिक्र नहीं होता है लेकिन इनमें सुख-दुख के साथ हमेशा एक नया संघर्ष और जिज्ञासाएँ छुपी होती थीं। इन प्रेमकथाओं में भी एक हीरो और एक हीरोइन के साथ बहुत सारे विलेन भी होते हैं लेकिन वास्तविक जीवन का प्रेम-संघर्ष और फिल्मों के पर्दे पर दिखने वाला प्रेम बहुत अलग होता है। इन प्रेमकथाओं में प्रेमी का एक दोस्त या प्रेमिका की एक सहेली भी होती थी। जो अपने मित्र के लिए त्याग, तपस्या और बलिदान करने के लिए हमेशा तत्पर रहा करते थे। निःस्वार्थ भावना से उस प्रेमरुपी लक्ष्य को निर्धारित करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहता था। भले ही वह पर्दे के पीछे होते थे लेकिन मुख्य सूत्रधार वही होते थें। हमारे यहाँ युवावस्था की दहलीज पर प्रेम करना दुनिया का सबसे मुश्किल और खतरनाक काम था। लेकिन खतरों से खेलने के लिए सबसे बेहतरीन उमर भी यही माना गया है। यह एक ऐसा खेल था, जिसमें जीतने की बजाय हारने में ज्यादातर खुशी महसूस होती थी। यहाँ साथ देने वाले कम होते थे लेकिन अपने-पराए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ही प्यार की दुश्मन नजर आने लगती थी। उस जमाने में न टीवी था और न ही मोबाइल। मनोरंजन के लिए गुलशन नंदा जैसे उपन्यासकारों के उपन्यास थे। मन बहलाने के लिए ढ़ेर सारी फिल्में थी और सबसे ज्यादा ज्ञान तो फुर्सत में बैठे हुए मित्रों के साथ बतकही से प्राप्त होती थी। प्यार की प्रेरणा देने के लिए सबसे बड़ा रोल फिल्मों का होता था। जहाँ प्रेम में डूबे हुए नायक-नायिका ही हम सभी के प्रेरणास्रोत होते थे। अब “बस, एक सनम चाहिए आशिकी के लिए”…., “प्यार किया तो डरना क्या”…. जैसे अनगिनत गीतों को सुनकर “जब जब प्यार पर पहरा हुआ है, प्यार और भी गहरा, गहरा हुआ है” की गुनगुनाहट प्रेम के इतिहास में अपना नाम लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे। उस समय पिक्चर देखते समय हम सभी खो जाते थे। प्रेमकथाओं के सुखद अंत के लिए तीन घंटे तक सांस रोककर इंतजार किया करते थे। जहाँ हीरो-हीरोइन के दर्द हमारे अपने दर्द होते थे। उनकी खुशियाँ हमारी अपनी खुशी लगती थी। अधिकांश फिल्मों में प्रेमी-प्रेमिकाओं का सुखद मिलन ही होता था। पिक्चर हॉल रुपी कल्पनालोक से निकलने के बाद लगता था कि यह दुनिया बिना प्रेम के किसी काम की नहीं है। कल्पनालोक के बाहर भी वास्तविक नायकों को एक नायिका मिल ही जाती थी। इस खतरनाक रास्ते पर साथ देने वाला एक दोस्त भी मिल जाता था। शुरुआती दिनों में नायिका की पृष्ठभूमि और दिनचर्या पर शोधकार्य किया जाता था। उसकी पक्की सहेली की खोज के बाद उसकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कई जतन किए जाते थे। नायिका के इर्दगिर्द रहने वाले छोटे बच्चे भी तारणहार नजर आते थे फिर उसकी पसंद-नापसंदगी जानने के बाद उसका नित्य दर्शन कैसे हो? इसपर सफल योजनाएं कार्यान्वित की जाती थी।
सुबह से शाम तक निःस्वार्थ भाव से अगर किसी के आगे-पीछे ‘आप ही आप दिखोगे’ तो अगला भी समझ जाता था कि कोई घायल होने के लिए तैयार है। अगर इस दीदार रुपी कार्यक्रम के उपरांत मुस्कुराहट रुपी ग्रीन सिग्नल मिल जाए तो समझिए कि एक नयी प्रेम कहानी का जन्म हो चुका है। फिर तो बार-बार एक ही आवाज आती है “तुझे ना देखूं तो चैन मुझे आता नहीं” और चैन आने के लिए सिर्फ एक ही विकल्प था कि “तुमसे मिलने को दिल करता है” और फिर आदमी सब कुछ भूल कर “जाना होता है कहीं और, तेरी ओर चला आता हूँ” में खो जाता था। इस कहानी के शुरुआत से लेकर लंबे सफर में सबसे बड़ी मुश्किल यह आती थी कि नायिका तक अपने भाव और संदेशों को कैसे पहूँचाया जाए तो प्रत्येक शहर म़े एक दिलजला आशिक भी होता था। वह प्रेमपत्र लिखने में एक्सपर्ट होता था। उसके पास हिन्दी और उर्दू के नायाब शब्दों के साथ शेरोशायरी का अकूट भंडार होता था। और जब उसे खुश कर लिया जाता था तो फिर अपनी दीवानगी के भाव व्यक्त करने में कोई परेशानी नहीं होती थी। आखिरकार छोटे शहर की प्रेमकथाओं का दुखद अंत होता था। जब कभी प्रेमपत्र रुपी बहुमूल्य दस्तावेज नायक-नायिका के परिजनों तक पहुँच जाता था तो नायक के प्रति क्रूर, हिंसक अमानवीय व्यवहार भी किया जाता था। कभीकभार नायिका की सगाई और शादी हो जाती थी। और उसके बाद हमारा नायक अताउल्लाह खान की “अच्छा सिला दिया तुने मेरे प्यार का”… या फिर “अब तेरे बिन जी लेंगे हम”…जैसी गीतों को सुन-सुनकर आँसू बहाता रहता था। धीरे-धीरे वह परिपक्व हो जाता था और फिर ताउम्र नए नए चेहरों को देखकर झूठे गीत गाता रहता था कि “पहला-पहला प्यार है”….लेकिन वह पहला नहीं चौदहवां-पंद्रहवां प्यार होता था।