“संस्काराद् द्विज उच्च्यते।” संस्कारों से मनुष्य का निर्माण होता है और अच्छे संस्कार मनुष्य को मनुष्यता सिखाते हैं। समयांतराल पर ये संस्कार मनुष्य समाज, साहित्य और सिनेमा से ग्रहण करता है। हर युग के अपने संस्कार होते हैं। किंतु कुछ संस्कार ऐसे होते हैं जिनमें कई युगों की यात्राएँ और अंतराल भी उसमें परिवर्तन पैदा नहीं कर पाते। इसीलिए बीसवीं सदी या उसके बाद का दौर प्रेम का उत्कर्ष काल कहा गया है। क्योंकि इन युगों में मनुष्य प्रेम का लेबिल लगाकर ही पैदा होता आया है। जैसे प्रेम करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार ही नहीं अपितु परम् कर्तव्य भी बन गया है। यूँ तो प्रत्येक युग अपने में प्रेममय ही रहा है। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल इसका सर्वोत्तम उदाहरण है, कहीं भी जाओ प्रेम के सिवा और कुछ हाथ ही नहीं लगता। वह ईश्वर की भक्ति का प्रेमयुग था तो आज का दौर मानसिक, शारीरिक, भौतिक प्रेम से भरपूर युग है। प्रेम का जाप करते हुए वे अपने को भी उस प्रेमाभक्ति में भूल जाते हैं। इसलिए आप कोई भी किताब या फ़िल्म उठाकर देखें तो आलिंगन की लड़ाई ही दिखाई देती है। चाहे वह कथा उपन्यास की हो या काव्य की। सिनेमा की सिने दृष्टि तो प्यार का जैसे अखाड़ा ही बनकर उभरी है। हर फ़िल्म में हर दूसरे पल चुंबन और आलिंगन सामने खड़ा होता है। प्रेम शून्य से ब्रह्मांड और ब्रह्मांड से शून्य की यात्रा तय करता है। प्रेम के निकलते ही वे मठों, आश्रमों, ऑफिसों में तब्दील होने लगते हैं और फाइलों के भार से दबा यह संसार वीतरागी हो जाता है। ओफ़! कितना अनर्थ होगा न प्रेमाभाव में। इसीलिए मैं इसे प्रेम युग की संज्ञा देता हूँ और खुद को भी भाग्यशाली मानता हूँ कि इस युग में मैं भी जरुर कोई मजनूं, हीर, रांझा, रोमियो जैसा महान प्रेमी बन जाऊँगा और लोग मेरे नाम की प्रेम के साप्ताहिक महापर्व और अश्वमेघ यज्ञ में सबसे अधिक आहुतियाँ लगाया करेंगे। ऊँ प्रेमाय: स्वाहा!
इसी तरह सिनेमा को बनते हुए सौ साल से अधिक का समय हो गया है और मैं देखता हूँ। हर साल 8,10 फ़िल्में प्रेम आधारित होती ही हैं।  इस फार्मूले को साहित्य के बाद सबसे अधिक सिनेमा ने ही भुनाया है और यह फार्मूला आज भी फेल नहीं हुआ है। 24 कैरेट शुद्ध सोने की भांति 24 कैरेट शुद्ध प्रेम पर भी कई फ़िल्में हमारे निर्माता निर्देशकों ने बनाई हैं। जैसे लैला-मजनू, सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, बॅाबी वगैरह। इसमें लैला- मजनू पुराने ढर्रे की और बॅाबी या टॉयलेट एक प्रेम कथा आधुनिक ढर्रे की प्रेम कहानी कहती है। फिर उसमें कुछ गाने, कुछ अश्लीलता का प्रसाद, थोड़ी सी कहानी, कूट-कूट कर रोमांस और उनका एक विरोधी समुदाय मिलाकर प्रेम कहानियाँ निर्मित होती हैं। प्रेम को सबसे अधिक निराले अंदाज में प्रस्तुत करते हुए राजकपूर साहब ने चार्ली चैपलिन के हुबहू कभी पढ़ा-लिखा, कभी गरीब, कभी ईमानदार तो कभी बेरोजगार जैसे विभिन्न रूपों में प्रेमी नायक दुनिया को दिया है। भले यह थोड़ा संदेहास्पद था पर फार्मूला बिना संदेहास्पद हिट था। इसके बाद पारिवारिक प्रेम पर आधारित ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फिल्मों ने तो जैसे सफलता की प्रमाणिकता का ठप्पा ही लगा दिया। इस बीच त्रिकोणीय प्रेम की बात भी लाजमी है। जब दो प्रेमियों के बीच एक खलनायक आया और प्रेमकहानी का त्रिकोण बना। महबूब खान साहब ने इस त्रिकोणीय प्रेम में खूब रंग जमाया और ‘अंदाज’ फ़िल्म का निर्माण किया। इस फार्मूले और रेसिपी में राज साहब ने ‘संगम’ बनाकर और यश चौपड़ा जी ने उसमें भारतीय प्रेम के रंग मिलाकर इस प्रेम रंग को और चटखकर दिया। शिफोन की सफेद साड़ी में लिपटी उनकी इन हसीनाओं को ही देख और उनके इस निराले अंदाज को देख फ्रांस की सरकार ने भी उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान “ऑनर ऑफ़ लिजा” से नवाजा। तो इस तरह सिनेमा में दुःख, मस्ती, संगीत का तड़का लगा और कहावत सिद्ध हुई “हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा”।
इन प्रेम कहानियों में प्रेमी युगल में से किसी एक की याद्दाश्त खो जाना भी एक अजब संयोग था। बीच-बीच में जानवरों की मदद से भी प्रेम करना सिखाया गया। ‘हाथी मेरे साथी’ इसका सफ़ल उदाहरण है।
राजकपूर साहब से लेकर अक्षय कुमार के वर्तमान दौर में कई प्रेमी आए। विजय के नाम से बच्चन साहब, राज, राहुल के नाम से शाहरुख खान ने धूम मचाई तो प्रेम नाम से सलमान इतने पसंद किए गये कि  तकरीबन 10 से अधिक फिल्मों में उन्होंने प्रेम उपनाम का अवतार ही धर लिया। इसीलिए प्रेम रतन धन पायो में ‘प्रेम इज बैक’ की लाइन वाले पोस्टर में दोनों हाथ ऊपर किए नजर आए। सिनेमाई पर्दे पर प्रेम को दर्शाने के लिए माणिक मुल्ला का यह कथन भी ध्यान में रखना होता है जिसमें वे कहते हैं कि- “कुछ पात्र लो और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो। जैसे यानी जो भी निष्कर्ष निकालना हो, फिर पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वे अपने आप में प्रेम के चक्र में उलझ जाएँ और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचे जो तुमने पहले से तय कर रखा है।
इन निष्कर्षों का सफ़ल उदाहरण प्रस्तुत करती कुछ फ़िल्में हैं। जिनमें से प्रेम आधारित अमर फ़िल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ और ‘मुगले आजम’ का किस्सा तो सब जानते ही हैं। प्रेम आधारित कुछ अन्य तथा जरूरी फ़िल्में हैं- ‘गाइड’ (1965), ‘मैंने प्यार किया’(1989), ‘प्यासा’(1957), कभी-कभी’(1976), ‘मधुमती’(1958), ‘देवदास’ (2002 और ), ‘सिलसिला’ (1981), ‘वीर-जारा’ (2004) ‘मोहब्बतें’ (2000), ‘दिल तो पागल है’(1997), ‘गदर एक प्रेम कथा’(2001), ‘एक था टाइगर’(2012), ‘राजा हिन्दुस्तानी’(1996) आदि इन फिल्मों में प्रेम के हर रूप को साकार करने में इनके गीतों ने भी अहम भूमिका निभाई है। प्रेम की कई कहानियाँ हैं। जिनके बलबूते हमारे इश्क परवान चढ़ते नजर आते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा यह है कि आजाद ख्यालों से नाता जोड़ता हमारा मध्यवर्गीय समाज आज भी शादी-ब्याह में जाति बंधन को नहीं तोड़ पाया है और यही प्रेमियों के राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। संभवतः इसलिए कहा गया है-

प्यार भी भला कहीं किसी का पूरा होता है।
प्यार का तो पहला ही अक्षर अधूरा होता है।।

 

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