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तेजी के साथ बदलते मूल्यों, नई पीढ़ी ओर पुरानी परम्परागत व्यवस्था का टकराव लाज़मी है, पर समाज अपने आप नहीं बदलता। बदलाव तभी होगा जब पीड़ाओं से गुजरने के बजाय उन समस्याओं का हल ढूंढे। तेजी के आगे बढ़ने वाला भारतीय समाज कई समस्याओं से गुजर रहा है। वह वहाँ आकर मौन रह जाता है। जहा उच्च शिक्षा हासिल कर उचे पदों पर पहुंचने वाली बेटियां भी आज घरेलू-हिंसा, मानसिक उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना कर रही है। हमें घुटते रहने के बजाय बदलने की पहल करनी होगी। बदलाव तब ही होगा जब इन पीड़ाओं से गुजरने वाले माता-पिता बेटियों के हित में निर्णय ले। आज तेजी से बदलते वक़्त के साथ भी आज भारतीय समाज बेटियों के साथ घरेलू हिंसा, बेटियों के साथ भेदभाव, भ्रूण हत्या आदि की बात पर ठहरा हुआ जान पड़ता है। कहीं जीवनसाथी कि तलाश रुढ़ परंपराओं में फंसकर राह भटक जाती हैं। जब बेटी को पढ़ा रहे होते हैं, तब घर में बहुत से लोग टेढ़ी नजर से देखते हैं। बेटी पढ़ाओ, न पढ़ाओ उसकी शादी अच्छी जगह हो जाए यह बड़ी बात मानी जाती हैं। यह समाज का अनोखा रंग है जो अपनी एक अलग चादर ओढ़े है। जहाँ बेटियों पर तंज तो कसा जाता है पर उसके हक के लिए आवाज उठाने के लिए कदम पीछे हटा लिए जाते है। लोग क्या कहेंगे के डर से अपनी आवाज को एक कमरे में बन्द कर दिया जाता है। लोग तो कहेंगे ही, क्योंकि वे अपनी सोच के चलते विवश होते है। तनाव लेने से अच्छा है, खुलकर आवाज उठाए, अपने हक के लिए लड़े। अत्याचारों को तब तक बन्द नहीं किया जा सकता जब तक इसके लिए खुलकर आवाज नहीं उठेगी।

क्यों ऐसा होता है जब कोई अपने हक के लिए आवाज उठाता है, तो कहीं राजनैतिक मुद्दा न बन जाए करके बन्द कर दिया जाता है या डरा धमका कर फाईल बन्द कर दी जाती हैं। उसी की फाईल को ओपन रखा जाता है, उसी को इंसाफ मिलता है, जो अपनी आवाज को बुलदियों के साथ रखता है। हमें अपने हक के लिए खुद ही लड़ना होगा। कई बार ऐसा होता है, अभिभावक बेटी पर भरोसा नहीं कर पाते है ओर उसे ही चुप करा दिया जाता है। बिटिया खूब पढ़े, तरक्की करे पर उसकी शिक्षा संपूर्णता में हो। ऐसा की वह शादी जैसा निर्णय खुद मजबूती के साथ ले सके। किसी फिल्मी शादी या पर्दे पर दिखाई जाने वाली किताबी बातों से प्रभावित न हो ओर व्यहवारिक हकीकत को समझ कर ही निर्णय ले।

यह समाज अभी संक्रमण काल में है, जिसकी सोच और नज़र को उठाने में समय लगेगा। हमें घुटते रहने की बजाय बदलने की पहल करनी होगी। अभिभावक की चिंताएं और सामाजिक संरचना इतनी गहरी है कि उनका आपस में टकराना स्वाभाविक ओर चुनौतीपूर्ण। जैसे जैसे सामाजिक व्यवस्था व्यक्तिगत होती जाएगी उसमें बदलाव आते रहेंगे ओर कुछ समस्याएं भी दिखेगी। अभिभावक इस बात को ध्यान रखे कि वे अपने बच्चो से खुलकर बात करे। एक खुला माहौल बनाने का प्रयास करे ताकि बेटियां आधुनिक परिवेश के बारे में खुलकर बात कर सके। डर कर ना रहे। अपने हक के लिए आवाज उठा सके। आगे आ सके।

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