बचपन से किशोरावस्था तक, जब हम किसी भी पशु-पछी को बस एक उपभोग की चीज़ मानते थे, दर्द से कोई वास्ता नहीं था तब-तक उनकी चीर फाड़, निगल जाने को भी कभी ग़लत नहीं माना, न ही कभी कोई कष्ट ही हुआ। यही पेड़-पौधों के साथ व्यवहार रहा। चाहे जब काट दिया या उखाड़ फेंका।
हम बेशक डॉक्टर न बन पाए हों पर बायलॉजी की क्लास में ज़िंदा केंचुए, मेढकों पर खूब प्रयोग भी किये। जब अपने किसी दर्द के चलते दूसरों के दर्द का अहसास हुआ तबसे पूर्णतया शाकाहारी हो गए, पर ढोंगी नहीं हुए कि किसी को पका कर खाते रहें और किसी की मौत पर आंसू बहाकर हो हल्ला मचाएं।
सोशल मीडिया के ज़माने में आये-दिन किसी चीखते छटपटाते ज़िंदा पिल्ले, सुअर या किसी पक्षी को आग पर भुनते हुए की वीडियो देखता हूँ तो खुद के मानव होने पर शर्म आती है। बहुत से वीडियो में किसी निरीह जानवर; ऊंट, गाय, बैल, भैंस को पकाने से पहले क्रूरता से पीट पीट कर या चाकू से गोद-गोद कर मारते भी देखा है।
हम स्वार्थी मनुष्यों के लिए गाय तब-तक माता है जब-तक वह दुधारू है या उसका गोबर, कंडा हमारे काम का है और जब-तक उसके बच्चे का मुंह थन से हटाकर खुद हमें उसका दूध पीने को नहीं मिलता। यह रिश्ता भी किसी गाय ने हमसे नहीं जोड़ा बल्कि हमने अपने स्वार्थवश या उसके दोहन को जस्टिफाय करने के लिए ही ओढ़े रखा। मधुमक्खी को इसलिए पालते पोसते हैं क्योंकि मेहनत से अपने लिए बनाए गए उसके शहद को हमें खुद चट करना होता है। पेड़ हमारे लिए देव सदृश हैं पर उन्हें हम तब-तक निर्ममता पूर्वक जलाते काटते रहते हैं या जंगल नष्ट करते रहते हैं जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं निकलता। नदियां सूखी तो उन्हें बचाने का ध्यान आया। और यह सब ही क्यों हम तो उग्रता या स्वार्थवश दूर दराज या अनजान क्या, नाते रिश्तेदारी, दोस्ती यारी में ही एक दूसरे का खून बहाने को अक्सर आतुर रहते हैं। किसी पशु-पछी को उसके भ्रूण से लेकर बूढ़ा होने या मरने तक, खाने पकाने से लेकर उसकी चमड़ी, हड्डी तक को प्रयोग में लाने वाले हम ही तो हैं।
अंततः हम वो शरारती, स्वार्थी और उजड्ड जीव हैं जो मात्र कुछ देर के अपने आनंद/मौज मस्ती के लिए किसी गर्भवती हथिनी को पटाखा खिला कर खुद चैन की नींद सो लेते हैं। किसी कुत्ते की पूंछ में पटाखा बांधकर आग लगा देना। कबूतर को आतिशबाजी की तरह उड़ा देना, किसी घोड़े की बदसलूकी पर लाठी मारकर उसकी जान ले लेना, मुर्गे, सांडों आदि के खून खराबे वाले खेल में हमें खूब रस आता है। बहुत से लोग मुर्गा, बकरी आदि लाड़ से पालते हैं और फिर अपने क्षणिक स्वाद के लिए चाहे जब उन्हें ही अपना ग्रास बना डालते हैं।
सरकार के लाइसेंस शुदा बूचड़खानों में कितने बकरे, भैंस, सुअर आदि रोज़ क्रूरता से मारकर पैक करके सप्लाई कर दिए जाते हैं, उनका हम कभी कोई हिसाब नहीं रखते। जीव तो जीव ही है, चाहे वह संरक्षित प्रकृति का हो या असंरक्षित। जान और दर्द तो सब में एक सा ही होता है।
बहुत से लोग अपने स्वाद की आड़ में और जीवन के लिए पारिस्थितिकी संतुलन का हवाला देते हुए पशु-पछियों को मारकर खाने को वैध ठहराने में आगे रहते हैं पर वो यह भूल जाते हैं कि यदि यह बैलेंस वाली बात पशु-पछियों के दिमाग में भी आ जाये तो हमारा क्या होगा। आखिर अपना जीवन तो उन्हें भी प्यारा होगा और वो खुद भी चाहे जैसे खुद के अस्तित्व को भी बचाना ही चाहेंगे।
#HappyWorldEnvironmentDday