जिस प्रकार नदियों के तट पर पंडों के बिना आपको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, गंगा मैया आपका आचमन और सूर्य देव आपका अर्ध्य स्वीकार नहीं कर सकते जब तक उसमें किसी पण्डे का दिशा निर्देश ना टैग हो, उसी प्रकार साहित्य में पुस्तक मेलों में कोई काम संहित्यिक पंडों और पण्डियों के बिना नहीं हो सकता। गालिबन इन पंडों से पुस्तक मेलों की रौनक बनती है , ये पंडे-पण्डियां अव्वल तो किसी ना किसी के निमंत्रण पर पहुंचते हैं, लेकिन अगर इन्हें कोई ना बुलाये तो भी बिन बुलाए हर जगह पहुँच जाते हैं। ऐसे ही एक व्याकुल पंडी इंदौर से इंद्रप्रस्थ पहुंची जहाँ पुस्तक मेला लगा था, बेचारी आजिज थी कि उसे किसी ने बुलाया नहीं, कोई ठिकाना नहीं सो कब तक राह तकती, लोगों ने चेताया भी कि बिन बुलाए मत जाओ दिल्ली-
मगर पंडी अपने अधीरथी पति के साथ राजधानी के पुस्तक मेले में पहुँच गयी। पंडी को कोई ठिकाना नहीं मिल रहा था क्योंकि विगत वर्ष वो जिस जजमान के घर ठहरी थी इस वर्ष वो इनकी आमद भाँप कर पलायन कर गयी। राजधानी में रहने के लिये, पंडी अति व्याकुल थी। क्योंकि पंडीगिरी करने के बाद भी अगर किराया देकर रहना पड़े तो ये उसके हुनर का अपमान होता, वो कहीं जाती तो सम्भावित नई पण्डियों के घर ही रुकती थी कभी कभी पंडों के घर भी पहुँच जाती थी अपने पति के साथ।पंडी अस्त व्यस्त सी राजधानी के पंडों पण्डियों के घर रुककर पुस्तक मेला घूमने का जतन बनाती रही लेकिन दिल्ली अब सिर्फ दिलवालों की नहीं रही, बल्कि नए पंडों-पण्डियों की भी है जो दगे कारतूसों को महत्व नहीं देते।पिछले बरस वो जिस जजमानी में पति के साथ ठहरी थी और दान-दक्षिणा लेकर विदा हुई थी। दो साल बाद अब वो जजमानिन्न खुद पंडी बनने की राह पर है और योग, ध्यान और फिटनेस की पंडी बनने कहीं सुदूर पहाड़ों पर चली गई है जो दिल्ली लौट कर योग,ध्यान और फिटनेस की पण्डागीरी करेगी। दिल्ली में गेस्ट पंडी ने बहुत प्रयास किया कि रोहिणी,उत्तम नगर,शालीमार बाग के आस पास उसे कोई रहने का ठिकाना मिल जाये ताकि वो पुस्तक मेला भी जा कर रंग जमा सके और अपने रोजगार का सामान भी पीरागढ़ी से खरीद ले थोक के भाव की मेहंदी। गेस्ट पंडी व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से दीक्षा लेने के पूर्व घर घर जाकर मेहंदी लगाती और बेचती थीं ,अब भी या तो किताब बेचती हैं मेहंदी के डिज़ाइन। बस बिक्री ही उनका खुदा और जो ना खरीदे वो दुश्मन। पंडी ने ईस्ट ऑफ कैलाश में भी रहने की एक जुगत भिड़ाई लेकिन अब उस पंडी को कौन बताये कि उस पाश एरिया की पण्डियां अंग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़ती हैं और दिल्ली की गेस्ट पंडी तो ट्रेन और स्टेशन के नाम तक अंग्रेज़ी में नहीं पढ़ पाती। भले ही वो डोर टू डोर मार्केटिंग करती है,लेकिन यहाँ की सम्भावित पण्डियों ने उसे घास नहीं डाली वो दिल्ली की साहित्यिक -पण्डे-पण्डियों की संगत में रहना चाहती हैं। अंत में फरीदाबाद की एक पंडी ने उसे पनाह दी लेकिन इस शर्त पर कि इंदौर की पंडी, फरीदाबाद की पंडी को इंदौर बुलाकर साहित्यरत्न टाइप की कोई उपाधि या सम्मान देगी। सौदा पांच हजार में पटा कि फरीदाबाद की पंडी , इंदौर की पंडी और उनके पति को घर में रहने भी देगी और पाँच हजार रुपये भी देगी बस उसे साहित्य रत्न की उपाधि मिल जाये किसी तरह क्योंकि अभी तक उसके साहित्य की खिल्ली ही उड़ाई गई थी,। गेस्ट पंडी के पति को रहने का ठिकाना मिला तो इस सर्दी में तो उनकी जान में जान आई। बड़े बेबस थे गेस्ट पंडी के पति, क्या करें बेचारे। उधर दोनों पण्डियां इस म्यूच्यूअल रिश्ते पर निहाल थीं ,वो दोनों सुर में सुर मिलाकर गाने लगीं –
नाचहिं नर मर्कट की नाई