kavita wah janta hi nahi

बकरे को उसने
बड़ी दुलार से
पाला – पोसा किया
विश्वास की कोमल जगह पर

उसे बलि चढ़ा दी निर्ममता से,
मालिक का यह दुलार नाटक
वह नादान जान नहीं पाया
उसके हर बात को वह

मिमियाता रहा, सिर हिलाता रहा,
माँस के हर टुकड़े में आज
जीभ का स्वाद बन गया,
दिन के उजाले में

सच का पोल खुल गया
मगर, जाति भेद का तंत्र
मनुष्य का स्वार्थ कुतंत्र
कुटिल यंत्र जानने का अब
बकरे की जान नहीं रह पाया।

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