कभी अपनो ने लूटा
कभी गैरो ने लूटा।
पर में लुटता ही रहा।
इस सभ्य समाज में।।
किससे लगाएँ हम गुहार,
जो मेरा दर्द समझ सके।
मेरे ज़ख़्मों पर,
मलहम लगा सके।
और अपनी इंसानियत,
को दिखा सके।
और मुझे एक,
इंसान समझ सके।
कभी दोस्ती के नाम पर,
तो कभी रिश्तेदारी के नाम पर।
लोगो ने मुझे बहुत कुछ दिया है।
जो में लौटा नही सकता।
क्योंकि में उन जैसा,
गिर नही सकता।
और अपने संस्कारो को,
भूल नही सकता।
इसलिए में उन जैसा,
कभी बन नही सकता।