poem-lihaf-by-lokesh

रात बहुत सर्द थी

सोचा लिहाफ़ लेलूं

लेकिन,

उस लिहाफ़ में बेख़बर

वो भी लिपटी थी

ऐसे में ख़्याल आया

कहीं…

कहीं उसकी नींद में

खलल न हो जाए

इसी ख़्याल से

ठिठुरता रहा रात भर

लेकिन एक सुकूँ था

उसको देखकर

सबसे बेख़बर वो

किसी ख़्याल में

सोई हुई मुस्कुरा रही थी

न जाने कब रात गुज़र गई

उसे देखते-देखते

और सुबह की किरण

उसके चेहरे पर

किलकारियाँ कर रही थीं

जिससे उसकी ख़ूबसूरती में

और निखार आ रहा था

मासूम-सा उसका चेहरा

फूलों की तरह कोमल, तरोताज़ा था

जो मुझमें एक नई ताज़गी का

एहसास भर रहा था ।

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One thought on “कविता: लिहाफ़”

  1. बहुत ही सुंदर। बेहद कोमल भाव तथा शब्दों का उम्दा चयन।

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