banner-mumbai-city
अपने कमरे की दरारों को
तस्वीरों से ढांककर
मैंने बनाए तुम्हारे लिए महल
चिकनी दीवारें और चमकते फर्श
तुम्हारी कारों के लिए
पथरीले रास्तों को
बदल दिया समतल सड़कों में
पार्क, माल, क्या नहीं बनाए
तुम्हारे खुश रहने
तुम्हे तुम सा बनाने के लिए
तुम्हे तो मालिक समझता था मैं
कितने मतलबी हो तुम शहर !
एक रोटी न दे सके तुम !
मैंने कभी हाथ नहीं फैलाया
तुम जानते हो कितना खुद्दार हूं मैं
ये मजदूरी का पचास रुपया
छोड़ देने वाले हाथ
कैसे लेते होंगे दया की भीख
कितना मरते होंगे भीतर
कभी सोचा है तुमने शहर ?
लो अब जा रहे है हम
अपने गांव , छोड़ कर तुम्हें
हमारा गांव आज भी खोजता है हमे
हमारा गांव दुखी है सुनकर हमारा हाल
अब गांव की देहरी पर
बूढ़े पेड़ से लग कर गले
रोएंगे हम , सुनाएंगे अपनी कहानी
मांगेंगे माफी और करेंगे
कभी न छोड़ कर जाने का वादा
थू ! है तुम पर ए शहर
कितने मतलबी हो तुम शहर ! 

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *