इंद्रधनुषी रात थकने सी लगी है।
भोर में कोयल कुहकने सी लगी है।।
गीत मंगल के सजे तोरण कलश पर
तलहथी की छाप उगने सी लगी  है।।
गंध-मेंहदी ने किया तन-मन सुवासित
बाग में  बेला चमकने सी लगी है।।
छंद बनकर बज उठीं स्वर की लहरियां
चांदनी मन में थिरकने सी लगी है।।
बिंब अनुबंधित हुए कंचन प्रभा से
दीप की लड़ियां दमकने सी लगी हैं।।
खिड़कियाँ मनकी खुलीं आंखें उनींदी
सांस मलयानिल महकने सी लगी हैं।।
चांद उगता देख दरिया के किनारे
सीपियाँ चमचम चमकने सी लगी हैं।।
रेत पर बिखरे पड़े मोती हजारों
मछलियां जल में मचलने सी लगी हैं।।

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