ये “दो वक़्त की रोटी” है बड़े काम की भैया,
रख लो इसे संभाल के भैया।
जिसको मिल जाए उसकी तो बल्ले-बल्ले,
ना मिले तो बुरा हाल है भैया।
सोचो गर दुनिया मेँ खाना जरूरी न होता,
तो शायद किसी को कमाना न होता।
सभी रहते मदमस्त जिंदगी में अपनी,
दर-दर की ठोकरें किसी को खाना न पड़ता।
न कोई रोता बेरोज़गारी पे अपनी,
न कोई नौकरी तलाशता।
बस पढ़ने हर कोई,
अपनी खुशी के लिए जाता।
तब शायद ऐसे ना busy होते सभी,
हर कोई अपनों में time बिताता।
सभी समझते हर किसी को,
Competition में कोई दूसरों को नीचा न दिखाता।
सुधर जाती इस देश की भी हालत,
नंगा कोई सड़कों पर भूखा न सो पाता।
गरीब छोटे बच्चे भी जीते जिंदगी ढंग से अपनी,
मजबूरन यूँ उन्हें भी सड़कों पर न बेचना सामान पड़ता।
हमारा कोई खिलौना टूट जाए तो हम कितना रोते है,
सोचो! कैसे रहते होंगे वो जो अपने अरमानों का गला घोट के जीते है।
समझ आया अब कि भूख से बड़ा कोई धर्म नहीं,
रोटी से बड़ी कोई मज़हब नहीं।
लेकिन, इसे समझते-समझते बहुत देर हो गयी।
खैर, जो possible ही नहीं,
उसे लेके क्या मसल्लत करूँ भई।
बस ईश्वर करे यही….
इस “दो वक़्त की रोटी” में,
ख़ुश रहे सभी।