नेटफ्लिक्स रिलीज  चमन बहार स्टॉकिंग और इश्क के सांचे में एक हल्की-फुल्की कॉमेडी परोसने की कोशिश है। फ़िल्म न तो कॉमेडी का बड़ा कैनवास रचती है ना ही उसका दावा करती दिखती है और शायद यही इसकी ईमानदारी है। लेखक – निर्देशक अपूर्व धर बड़गैयाँ ने एक छोटे से किस्से को नब्बे के  दशक में पनपे हुए अब मुरझाए फूलों, बेलपत्रों आदि को खुरच कर फिर से नौजवान कर देते हैं और इस तरह से फ़िल्म के हिस्से कुछ यादगार दृश्य आ जाते हैं।
नब्बे के दशक के कुमार शानू जिन्होंने “तुझे ना देखूँ तो चैन”, “दिल चीर के देख”, “तेरे चेहरे पे अपनी नजर”, “तू मेरी जिंदगी है और अदाएं भी है”-  जैसे सैकड़ों ‘कालजयी’ गीत गाकर वैसे आशिकों की भी एक लंबी फौज खड़ी की है, जिनका काम मुँह में ‘तिरंगा’ डाल स्कूलों, महिला कॉलेजों के नुक्कड़ और ट्यूशन सेंटर्स पर खूब जवान हुआ।
नब्बे फीसद मामलों में लड़की को पता भी नहीं होता था कि उसके पीछे इतना कॉम्पटीशन चल रहा है। ये लिखते-लिखते लव हो जाए वाला ‘रोटोमैक’ इश्क का दौर था। किसी कस्बे के मिडिल या हाईस्कूल के सामने वाला विद्या पुस्तक भंडार का मालिक प्रेमरतन किताबों और कॉपियों की रैक के बगल में ऊपर की तरफ दाहिनी ओर रंग-बिरंगे ग्रीटिंग रखे रहता। जिसकी डिमांड को ‘दिलजले’ के बाद से ही सोनाली बेंद्रे और अजय देवगन ने ‘एक बात मैं अपने दिल में लिए ना जाने कबसे फिरता हूँ’ – गाकर बढ़ा दिया था या कहें कि इस संस्कृति को मशहूर कर दिया था और जहाँ बिना व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, टिंडर (सॉरी यह सब कुछ नहीं था) पर लड़की की दिनचर्या पता लगाने में दिव्यदृष्टि प्राप्त लौंडों की एक पूरी खेप तैयार थी।इनके प्रताप से तो महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई तक नहीं बचे और लिख मारा – “एक हसीना पाँच दीवाने”(सूचना : यद्यपि उनका लेख फूल और कांटे से बहुत पहले का है)। यह दौर मोबाइल का नहीं था सो ले देके पीछा करना और घरों के चक्कर के फेर में पास वाले दुकानदार से मित्रता ही सबसे अचूक नीति ही ठहरती। खैर वापिस फ़िल्म पर , चमन बहार इसी पृष्ठभूमि की कहानी है।
मुख्य नायक बिल्लू पनवाड़ी है, जिसकी भूमिका जितेंद्र कुमार ने निभाई है। वह ‘टीवीएफ’ की मशहूरियत से आगे निकल अब ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ और ‘पंचायत’ (वेब सीरीज) से अपना एक बड़ा दर्शक वर्ग बना चुके हैं। बिल्लू के उदास पैन दुकान के सामने वाले मकान में नई-नई रहने आयी स्कूली लड़की रिंकू मनोरिया की कहानी है ‘चमन बहार’। लड़की के सामने आते हैं उदास धूल उड़ाती सड़क और छुआरे जैसी बिल्लू की दुकानदारी और जिंदगी बादाम की तरह खास हो जाती है और बरफ़ का गोला किमामी नशे में उतरता जाता है।
रिंकू मनोरिया यानी रितिका बादियानी के हिस्से एक्सप्रेशन के अलावा कुछ नहीं, एक शब्द नहीं लेकिन वह जंचती हैं। ‘कोटा फैक्ट्री’ वाले आलम खान ‘सिला’ की भूमिका में जँचते हैं। फ़िल्म के गाने कथा-प्रवाह के हिसाब से बढ़िया हैं पर याद रहने लायक सारे गीत, बैकग्राउण्ड जमाने के लिए प्रयुक्त पुराने गीतों ‘इलू इलू’, ‘सात समुंदर पार मैं तेरे पीछे पीछे’, ‘भवँरे ने खिलाया फूल फूल को ले गया राजकुंवर’, ‘सारे शहर में आप सा कोई नहीं’ आदि की भेंट चढ़ जाते हैं।
फ़िल्म स्टाकिंग की कहानी कहती है लेकिन बड़े सलीके से उसे फूहड़ बनने से बचा ले जाती है और पुलिसिया इंट्री से इसे आपराधिक तय भी कर देती है। बिल्लू (जितेंद्र) अपनी दुकान जामाता है और एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर खुद भी उसी का शिकार हो जाता है। उसका इश्क में पड़ना तब और ऑथेंटिक लगने लगता है जब वह एक दृश्य में गुलशन नंदा का ‘घाट का पत्थर’ पढ़ता और पिता के आ जाने पर सिरहाने रखता दिखता है। यदि आप सच में नब्बे की पैदाइश हैं तो यह दो से तीन सेकेंड का दृश्य बिल्लू के बाद के ‘रिंकू मनोरिया बेवफा है’ (सोनम गुप्ता बेवफा है टाइप) के प्रकरण के बावजूद याद रह जाती है। एक समय गुलशन नंदा आने उपन्यासों से टीनएजर्स के बेहद मुलायम क्षणों के साथी रहे हैं। सिराहने की न जाने कितनी यादों और सपनों में जगह बनाई है उन्होंने। नाई के यहाँ अब चालू शेविंग क्रीम नहीं, जिलेट माँगता है बिल्लू को। आखिर छोटू ने बता दिया है “लड़की सुभ है उसके लिए”।  जितेंद्र अपने रोल में फिट हैं और उन्होंने अपना एक ढब बना लिया एक्टिंग का और वह उसमें समा जाते हैं और लोग उनको वैसे ही पसन्द करने भी लगे हैं। लेकिन दृश्यों में सोमू (सुशान्त तिवारी विजय) और छोटू (मुदित मोहन शुक्ला) को देखना अलग ही आनंद देता है। क्यों डैडी और हाँ डैडी कहकर फिरकी मारने और सुजुकी ब्रांड की बाइक चलाने वाले नौजवान तो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कस्बाई इलाकों में देखे सत्य हैं। निर्देशक की बारीकी लिखने में है यद्यपि बतौर निर्देशक वह फ़िल्म संभालने में थोड़े से डिगते हैं। इसलिए जैसे ही बिल्लू पानवाला मुद्दा बनता है कथा कहने का स्ट्रक्चर ठहरता है। क्योंकि किस्सा उसी बिंदु से एक उम्मीद में खुलकर बन्द होते ही इसको बेमिसाल होने से थाम लेता है। लेकिन तह सब जाने दीजिए याद कीजिए इस तरह के एकतरफा आशिकों के लिए जिनके लिए उनका महामंत्र केवल “छुपाना भी नहीं आता, जताना भी नहीं आता, हमें तुमसे मोहब्बत है बताना भी नही आता” –  भर रहा है। हिंदी पट्टी का हर कस्बा और हर कस्बे का एक मिथुन, एक कुमार शानू और एकाध रवीना टण्डन या सोनाली बेंद्रे रहीं हैं हालांकि उनके हीरो सुविधानुसार ऊपर नीचे होते रहे हैं। अपूर्व धर उसकी ही कहानी को लेकर आये हैं। अंग्रेजी का मास्टर विशाल सर(ज्ञानेंद्र त्रिपाठी) की अंग्रेज़ी गुदगुदाती है और दर्शक साम्य बिठाने की लाख कोशिशों कर ले फिर भी वह ‘फँस गए रे ओबामा’ के अंग्रेजी मास्टर इश्तेयाक खान से अलग ही दिखते हैं। फिर रैपीडेक्स याद है ना!
नेटफ्लिक्स को शुक्रिया कहिए हल्की-फुल्की बातें ट्रेंड एक्टर्स और लोकल अभिनेताओं के स्पोर्ट से एक अलग किस्म की, हमारे आसपास की कहानी कहने का प्रयास कर रहे हैं। तो बड़ी बड़ी बातें फ़िल्म का क्राफ्ट, सिनेमाटोग्राफी, अभिनय, संगीत आदि की सीमाओं से परे यदि आपमें नब्बे के दशक की छौंक भी है तो देख लीजिए। आप इस बोरिंग उदास समय में से थोड़ी मुस्कुराहट ले लीजिए। उम्र के इस पड़ाव पर अपूर्व बड़गैयाँ आपको थोड़ा पीछे ले जाते हैं, बीता वक़्त नहीं आ सकता पर कुछ क्षण और कुछ पहचानी तस्वीरें आँखों से ताजी हो गुज़र जाएंगी। कस्बों से गुजर हम महानगरों में पसर गए हैं पर हिंदुस्तान के किसी कोने में वही गुमटी है, जमावड़ा है, एक गुलाबी कार्ड हवा में अब भी तैर रहा है, कुछ जीवनघड़ी में एक जगह ही ठहरे हुए गीत अब भी बज रहे हैं, दिल का बच्चा हो जाना भी ‘कभी कभार’ ठीक होता है। चमन बहार आपसे इतना ही चाहता है।
एक और बात! जहाँ पान की दुकान हो और लड़की का घर सामने हो तो निर्देशक ने बेशक हीरो के अपने मन:स्थिति और दूसरे लौंडों से प्रतियोगिता को देखते हुए ही सही पर जनहित में यह सूचना जरूर जारी करवा दी है – “सामाजिक स्थल, लिबिर लिबिर न करें, पान दबाओ और जाओ” – जैसे उसूल की बात भी स्थापित कर देते हैं। सच ही तो है स्टाकिंग गलत है और आपराधिक भी। चमन बहार देख लीजिए । वहाँ रिंकू की बनाई वह पेटिंग भी तो है जो बिल्लू जैसे अनगिनत चमन बहारों को मुस्कुराने का हौसला दे देती है और यह हौसला ही तो है तो कोहेकाफ के कोकुनुस पक्षी की तरह हर बार अपने ही राख से उठ खड़ा होता है। यानी फिर मुहल्ले में ऐश्वर्या आयी।
फ़िल्म देखते जिन गानों को याद न रहने की बात हमने की है उसमें ही एक गीत ‘दो का चार’ अपूर्व धर ने लिखी है –
“दो का चार, तेरे लिए सोलह
तू जर्दे की हिचकी, गुलकंद का तोला
तू मीठा पान मैं कत्था कोरिया
मेरा दिल ये बोला
तू राज दुलारी, मैं शम्भू भोला
तू मनमोहिनी, मेरा बैरागी चोला
तू तेज़ चिंगारी, मैं चरस का झोला
तू मीठी रूह अफज़ा, मैं बरफ का गोला
उड़ती है खुशबू किमामी, होता नशा जाफरानी
मैं बेतोड़ दर्द की कहानी, तू ही तो है मेरा मलहम यूनानी।”
ऐसा गीत हुलसाता है। कितने सुंदर और विषयानुरूप शब्द, बरसों बाद लौटा है ऐसा गाना। सुनिए सोनू निगम ने बड़े मन से गाया है।
और हाँ अंत में! वैधानिक चेतावनी : लड़कियों को छेड़ना कानूनन अपराध है।

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