स्त्री सशक्तीकरण की गूंज आज हर गली, मुहल्ले, शहर में सुनने को मिलती है। साहित्य से लेकर सिनेमा तक इसके प्रभाव से अछूता नहीं है। बड़े-बड़े मंच पर स्त्री विमर्श की चर्चा की जाती है। उनकी समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जाती है। स्त्री की जीर्ण-सीर्ण स्थिति को सबसे पहले साहित्य और उसके बाद सिनेमा ने ही अभिव्यक्ति दी और समाज के समक्ष उनकी दयनीय स्थिति को ख़त्म करने की मुहिम चलाई। आज 21वीं सदी में भी स्त्री विमर्श बदस्तूर जारी है। साहित्य और सिनेमा से गुजरते हुए राजनीति का मंच प्राप्त हो चुका है। आज नेता और उनके कार्यकता स्त्री की समस्याओं को नकार नहीं सकते।
पिछले दिनों स्त्री समस्याओं पर बनी फिल्मों को खोजते हुए बांग्ला फ़िल्म “मुखर्जी-दार-बउ” देखने को मिली। अब तक कि देखी हुई फिल्मों में मुझे यह फ़िल्म स्त्री की समस्याओं को उजागर करने वाली फिल्मों में सबसे करीब और बेहतरीन लगी। इस फ़िल्म को बनाने वाली एक नई निर्देशक पृथा चक्रवर्ती ने उस बुनियाद की चर्चा की है जिस पर स्त्री विमर्श की नींव टिकी हुई है।
मुखर्जी-दार-बउ न केवल सास बहू के उलझे रिश्ते को सँवारती हुई फ़िल्म है बल्कि स्त्री विमर्श की नींव को सशक्त और सरल भाव से उजागर करती है। अक्सर पुरुष जब तर्क में हारने लगते हैं तो यह टैग लाइन “स्त्री ही स्त्री के कष्टों का कारण है” कहकर अपनी सारी कुटिलता, चालाकियाँ, शोषण को स्त्री के कंधे पर लाद मुक्त हो जाते हैं। यह फ़िल्म राजेन्द्र यादव जी के टैग लाइन का भी जवाब देती है कि क्यों स्त्री, स्त्री के शोषण में आगे दिखाई जाती रही है।
फ़िल्म की शुरुआत ही मिसिज मुखर्जी जो रिश्ते में सास है के पति की मृत्यु के भोज से होती है। रिश्तेदारों से भरे घर में सास का बहू के प्रति लगाव कम होना पहले ही दृश्य में दर्शकों को दिख जाता है। वो अपनी बहू से अधिक अपनी पड़ोस की बहू से लगाव रखती है कारण उसका पुरानी मान्यताओं को मानना है। मिसिज मुखर्जी (सास) की बहू आधुनिक विचारों की सुलझी हुई महिला है। यही कारण है जब मृत्यु भोज में कैटरर उनकी सास की थाली में माछ (मछली) न डाल आगे जाने लगता है तो बहु उसका प्रतिवाद कर भरी सभा मे सास को माछ खिलाती है। स्त्री सशक्तीकरण का पहला प्रतिवाद यही है जहाँ पुरुष की मृत्यु के बाद साज-सज्जा का ही त्याग नहीं करना पड़ता बल्कि भोजन भी पशुओं से खराब खाने को दिया जाता है। आज भी भारतीय समाज मे स्त्रियों को तामसी भोजन – माछ, मटन से दूर कर दिया जाता है। सास को माछ खिलाना वो भी ससुर के ही मृत्यु भोज में प्रतिवाद की नींव को मजबूत बनाती है।
इस फ़िल्म की सबके खूबसूरत बात यह है कि यह स्त्री विमर्श के उस पहलू पर बात करती है, जिस पर अक्सर लोग चुप्पी साध लेते हैं – “स्त्री की अपनी पहचान। उसका स्पेस…” फ़िल्म बड़ी खूबसूरती से बहू से कहलवाती है “अगर खुद के लिए कुछ करना ही होता तो पहले एक घर लेती, टीवी नहीं। जहाँ सकून से अपना पल जीती”।
फ़िल्म “मुखर्जी-दार-बउ” में न सिर्फ स्त्री के मनोविज्ञान को दर्शाया गया है बल्कि सामाजिक संघर्ष और प्रश्नों को भी पर्दे पर बेहतरीन तरीके से उकेरा गया है। फ़िल्म एक दृश्य में जब मनोविज्ञान की डॉ. कहती हैं कि आप दोनों की सबके बड़ी समस्या आपकी पहचान की है। समाज दोनों को ही – सास और बहू – मिसिज मुखर्जी ही पुकारता है। जिससे उनका अस्तित्व सिर्फ एक ‘सरनेम’ में सिमट कर रह गया है। यह समस्या सिर्फ इनकी ही नहीं है संपूर्ण स्त्री समाज की है वो जन्म लेते ही xyz की बहू, बेटी, पत्नी, माँ बनकर ही पूरी ज़िंदगी बिता देती है।
जीवन में प्रमाणिकता प्रतिबद्धता से आती है। यही प्रतिबद्धता दो रिश्तों की बुनियाद को गहराई देती है। उसे प्रेम, समर्पण की कसौटी पर कसकर खरा बनाती है। सामाजिक ताने बाने में “माँ” ही एकमात्र है जो इस धरातल पर निस्वार्थ प्रेम और समर्थन की साकार मूर्ति होती है क्योंकि वो अपनी संतानों में बिना भेद किए उनके प्रति प्रतिबद्ध रहती है। परंतु कब यही रिश्ता ‘सास’ का रूप धारण करता है तो बहू के प्रति वो समर्पण, प्रेम और प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। ऐसा नहीं है कि वो बहू से नफरत करती है बल्कि उसके अंतर्मन में जो पितृसत्ता की अदृश्य बेड़ियों का जाल वर्षों से बन गया है वो समय आने पर बहू के कदमो में डाली जाने लगती हैं। ऋतुपर्ण सेन जो एक साइकोलॉजिस्ट रहती हैं, उनके सामने ‘सास’ श्रीमती मुखर्जी यह स्वीकार करती हैं कि बचपन में उन्हें ‘नाच’ का बड़ा शौक था। एक दिन मुहल्ले के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेती हैं पर जब कार्यक्रम शुरू होने वाला होता है तभी उनकी ‘लाल साड़ी’ कहीं खो जाती है और वो भाग नहीं ले पातीं। कार्यक्रम के ख़त्म होने पर वही साड़ी उनकी माँ की अलमारी से मिलती है। सास के अंतर्मन में यह बात एक गाँठ की तरह बैठ गयी कि यह नैतिकता के खिलाफ है। यही कारण है कि बहू (मिसिज मुखर्जी) के सारे एपॉइनमेंट लेटर छुपा देती है जिससे वो नौकरी न कर सके, क्योंकि स्त्रियों का नौकरी करना, नाचना नैतिकता के विरुद्ध है। समाज के ताने बाने में फिट नहीं बैठता।
फ़िल्म स्त्री सशक्तीकरण की बात करते हुए किसी भी रिश्ते के कमजोर होने पर उसे तोड़कर चले जाने की हिमायत नहीं करती बल्कि उस रिश्ते में पड़ी दरार को कम करने के लिए इसके उपचार की हिमायती है। पति की मृत्यु के बाद बहू के साज-सज्जा, उसकी साड़ी, पति के साथ समय बिताने को देख जब सास मानसिक तौर पर दिन-प्रतिदिन अजीब हरक़तें करने लगती है तो छुपकर सयकोलॉजिस्ट के पास ले जाती है और खुद के रिश्ते में बड़ी दरार को पाट देती है।
मात्र दो घण्टे की फ़िल्म स्त्री के स्पेस, उसकी चाहत, कमजोरी, उसके अस्तित्व को परत दर परत बखूबी खोलती जाती है।
यह फ़िल्म हर लड़की/लड़के, स्त्री-पुरुष सभी को देखनी चाहिए। यकीन मानिए #बॉलीवुड की बोगस फिल्मों को देख समय बर्बाद करने से अच्छा है इसे देख मानवीय मूल्यों की नींव को मजबूत किया जाए। फ़िल्म बांग्ला भाषा में है। पर यकीन माने इसे देखते हुए भाषा बाधा नहीं बनेगी।
इतनी खूबसूरत फ़िल्म को बनाने के लिए पृथाजी आपको खूब सारा प्यार और धन्यवाद…!