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मूवी रिव्यू : उजड़े चमन की उजड़ी हुई कहानी है उजड़ा चमन

एक प्रोफेसर है उम्र तीस बरस सब कुछ ठीक है। नही है तो सिर पर बाल। इस वजह से वह 30 का होकर भी 40-50 का अंकल टाइप लगता है। ऐसे उजड़े चमन इस दुनिया में बहुत से हैं। लेकिन उनके इस दुःख दर्द को यह फ़िल्म पूरी तरह संवेदनाओं की चाशनी नहीं दे पाती। एक बात जो फिल्म निर्माताओं को सही लगी है, वह है उन कहानियों को बयान करने की जरूरत की समझ जो भरोसेमंद हैं।  दिन-ब-दिन जीवन से कहानियों को उठाते हुए और उसी पर फिल्मों को बनाना एक ऐसा विचार है जो इसके उचित श्रेय का हकदार है।  उजड़ा चमन में, निर्देशक अभिषेक पाठक वही है जिन्होंने प्यार का पंचनामा और उसका सीक्वल बनाया था। वो ही निर्देशक इस बार एक ऐसी कहानी की कहानी पेश करते हैं – जो एक 30 वर्षीय व्यक्ति की है। फ़िल्म का मुख्य पात्र सनी सिंह दिल्ली के एक व्यक्ति चमन कोहली अपनी दुल्हन की तलाश में है। लेकिन समस्या वही बालों की है। वह समय से पहले गंजेपन से निपट रहा है। दूसरा ज्योतिषी के अनुसार उसके पास केवल एक वर्ष है उपयुक्त शादी का मैच को खोजने के लिए नही तो उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ेगा।
चमन के रूप में, सनी ने सही और सटीक भूमिका निभाई है।  इस बीच पारिवारिक दबाव, एक अच्छे दिखने वाले मैच को पाने की इच्छा और इन सबकी चिंता तब महसूस होती है जब उनके सभी साथी शादी करने लगते हैं। सनी ने अपने हाव भाव और प्रदर्शन में कई भावनाओं को संयोजित करने की कोशिश की है। फ़िल्म के  अधिकांश भाग के लिए वह उद्धार कर्ता भी बने हैं। उनका प्रदर्शन आपको उनकी पीड़ा का अहसास कराता है और कुछ ही पलों में आपको चकित कर देता है।  लेकिन बावजूद एक सनी के पूरी फ़िल्म उजड़ा चमन ही साबित होती है। बीच बीच में हंसी के फव्वारे जरूर छूटते हैं। लेकिन कहानी को कहने का जो माद्दा होना चाहिए वह शायद निर्देशक को सनद नही है।
एकता (ऐश्वर्या सखूजा), कॉलेज में चमन की सहकर्मी और चमन और अप्सरा दोनों के माता-पिता सहित सहायक पात्रों में सनी के चमन से लेकर, निर्देशक अभिषेक तक इसमें गहराई तक नहीं उतरते हैं और सभी में, फिल्म एक सतह-स्तर के उपचार के रूप में समाप्त होती है। फ़िल्म का विषय जरूर रुचि प्राप्त करने के लिए विचित्र आधार है, लेकिन फ़िल्म का उपचार इतना विस्तृत नहीं है कि वह फ़िल्म में आपको पूरी तरह से निवेशित रखे।  दूसरे हाफ़ में बहुत सारे दृश्य जरूरी सुसंगत महसूस नहीं करते हैं, और परिणामस्वरूप, फिल्म का मूल विचार, या बल्कि संदेश जिसे निर्माता वितरित करना चाहते हैं, वह फिल्म से भटकता दिखाई देता है।
एक बात जो फिल्म के मामले में सही लगती है, वह है मध्यवर्गीय परिवार का मील का पत्थर साबित होना, खासकर वह दृश्य जिसमें चमन और अप्सरा के माता-पिता मिलते हैं, दोनों एक-दूसरे को अपने बच्चों के भावी ससुराल वालों की तरह अभिवादन करते हैं।  उदाहरण के लिए, एक दृश्य जिसमें दोनों के पिता अस्पताल में बाल उगाने के लिए उसका भुगतान करने के लिए सम्मानपूर्वक लड़ रहे हैं या माताएं अपने संबंधित बच्चों की प्रशंसा कर रही हैं।
फिल्म का एक डायलॉग – “दिलो की बात है ज़माना, बराबर आज मोहब्बत से प्यार ही कर लेते हैं”  फिल्म को अच्छी तरह से इरादे वाली बनाती है। फ़िल्म का सेटअप, लोकेशन, कास्टिंग से लेकर ड्रेस डिजाइन सभी उजड़े चमन ही महसूस होते हैं। और गाने तो माशा अल्लाह किसी ने सुने ही शायद हों। गानों के मामले में भी फ़िल्म उजड़ी चमन ही दिखाई देती है।
अपनी रेटिंग-  ढाई स्टार

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