पिछले 15 सालों में खेती से हुए नुकसान से लगभग 7300 किसान मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। यह आँकड़ा कहने सुनने में छोटा लग सकता है किंतु सोचकर देखें कि जिन किसानों की बदौलत हम अनाज, फल, सब्जियां खाते हैं और जिंदा रहते हैं क्या कभी भी हम उनके प्रति कृतज्ञ हो पाए हैं। नहीं ना? आए दिन अखबारों और न्यूज चैनलों की मात्र ये सुर्खियां बनकर रह जाते हैं। कभी टिड्डी दल तो कभी सफेदा किसानों की फसलों को चौपट कर जाता है।
एक बुजुर्ग एक लड़की को लेकर पानी की टँकी पर चढ़ा हुआ है और उसे मारने की धमकी भी देता है। इस बीच काफी सारी घटनाएं होती हैं। सीरी फ़िल्म की कहानी है ऐसे ही एक किसान की। किसान चंद नाम और उसका दोस्त कीटो आपस में खेती करते हैं। ढाई किले जमीन चंद की है और पाँच किले जमीन ठेके पर लेकर कीटो चंद का सीरी यानी साझेदार किसान मजदूर है। पिछली तीन फसलें बर्बाद हो चुकी हैं कीड़े लगने की वजह से और अबकी बार कीटो को अपनी बेटी की एन आर आई लड़के से शादी भी करवानी है। इस बीच वे अस्सी हजार रुपए कर्जा भी लेते हैं। लेकिन फसल में अच्छा बीज डालने के बावजूद फसल चौपट हो जाती है और कर्जे के चलते कीटो आत्महत्या कर लेता है। कुछ समय बाद खबर आती है कि सरकार किसानों को मुआवजा देगी। लेकिन यहाँ भी साढ़े सात किले जमीन की एवज में चंद के हिस्से मुआवजे के मात्र 2 हजार रुपए आते हैं। इस सबको देख वह लड़ाई लड़ने का फैसला करता है। कोर्ट केस होता है। एक पढ़ी लिखी लड़की के साथ मिलकर पानी की टँकी पर भी चढ़ जाता है। अब समझे वह पानी की टँकी पर क्यों चढ़ा?
सबसे पहले तो धन्यवाद सुरेंद्र सर का जिन्होंने इस फ़िल्म का प्राइवेट लिंक भेज कर मुझे रिव्यू लिखने के लिए कहा। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार विजेता राजीव कुमार ने इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले काफी कसा हुआ रखा है। जिस बदौलत यह फ़िल्म दिल के काफी अंदर तक पैठ बनाती है और सोचने पर मजबूर करती है कि क्या महज किसानों की आए दिन हो रही दुर्दशा को हम यूँ ही देखते रहेंगे।
एक बात और जो इस फ़िल्म में दिखाई गई है वह यह कि आजादी के बाद हमारे पास खाने को गेहूँ नहीं था और गेहूँ हमें अमेरिकासे आयात करना पड़ता था। वह ऐसागेहूँ होता था जिसे वे समुद्र में बहा दिया करते करते थे। उसके बाद उन्होंने हथियारों की खेती छोड़ ज़हरीले यूरिया और अन्य दवाईयां बनाकर अधिक फसल लेने का लालच दिखाया। जिसके कारण मौजूदा हालात यह है कि हमारे देश की मिट्टी का उपजाऊपन जाता रहा है। ना ही वैसा स्वाद अब फल, सब्जी और अनाज में रहा है और न ही वैसी पौष्टिकता।
खैर सीरी फ़िल्म एक बेहद ही जरूरी मुद्दे को उठाती है और बेहद संवेदनशील तरीके से हर किरदार ने अपना श्रेठ प्रदर्शन किया है। फ़िल्म का गीत- संगीत फ़िल्म के स्तर को ऊँचा उठाता है। फ़िल्म की कास्टिंग, ड्रेस, लोकेशन, म्यूजिक सब एक मंझे हुए निर्देशन टीम में ही सम्भव हो सकता है। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार विजेता ‘नाबर’ फ़िल्म प्रोडक्शन के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी के लिए रोबिन कालरा की जितनी तारीफ की जाए कम है। इसी तरह एडिटिंग के लिए दीपक गर्ग भी तालियों के हकदार है। फ़िल्म का म्यूजिक दिया है मनाश बोनहाकुर , कुणाल अग्रवाल ने। फ़िल्म का सबसे अहम और जरूरी हिस्सा उसका गीत होता है गीतकार संतराम उदासी, कर्म जीत भाटी, बलविंदर सिंह की कलम इस मामले में बेहद खूबसूरती से निखर कर सामने आई है।
फ़िल्म चूंकि रिलीज नहीं हुई है ना ही इसका कोई ट्रेलर लॉन्च हुआ है लेकिन फिर भी अपनी और से इस फ़िल्म को साढ़े 4 स्टार