बाप ही एक ऐसी सम्पत्ति होता है। जिसे बेटा पूरी तरह दूसरे भाईयों को देने के लिए तैयार रहता है। बुढ़ापा तो उसी दिन शुरू हो जाता है। जब हम जाने अनजाने उसके खिलाफ लड़ाई शुरू कर देते हैं। पिता जी के सिर्फ हाथ और पाँव हमारे हिस्से आते तो और बात थी। लेकिन पूरे पिता जी यानी मुँह और पेट के साथ। किसी के भी घर में जाओ सबसे पहले घर के बूढ़े से ही मुलाक़ात होती है … वही निगरानी करते हैं पूरे घर की। आदमी से लेकर कुत्ते, बिल्ली तक की। बुढा बाप रुई का बोझ होता है। शुरू-शुरू में भारी नहीं लगता लेकिन बढ़ती उम्र का हर पल उसे भिगोता जाता है और बुढा बाप पानी खाए रुई के गठ्ठर की तरह होता जाता है। भारी और भारी और भारी … जिसे हर बेटा अपने सिर से उतार कर फेंकना चाहता है। यह कुछ संवाद हैं साल 1997 में रिलीज हुई फिल्म ‘रुई का बोझ’ के। भारतीय फिल्म उद्योग के सर्वश्रेष्ठ कलाकार रीमा लागू, पंकज कपूर और रघुबीर यादव इस फिल्म में मुख्य भूमिका में नजर आते हैं। रीमा लागू का हाल ही में निधन हुआ है। चन्द्र किशोर जायसवाल के उपन्यास “गवाह गैर हाजिर” पर आधारित इस फिल्म को देखकर यूँ लगता है मानों यह फिल्म भारतीय सिनेमा पर से कभी ना उतरने वाले कर्ज के बोझ तले दबाती है। तीन पीढ़ियों के सम्मिश्रण से बनी यह फिल्म हर एक मोड़ पर आपको सोचने के लिए विवश करती है। साथ ही आपके घर परिवार में या आपके आस-पास जितने भी बुजुर्ग हैं उन सभी के लिए आपके मन में एक कोना बनाती है। बुजुर्ग हमेशा से भारत तथा भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण अंग रहे हैं। हमारा सम्पूर्ण इतिहास इन बुजुर्गों के मजबूत कंधों पर ही टिका हुआ है। पीढ़ियों के मध्य का अंतराल और उनके बीच के संवाद इस उपन्यास की खासियत हैं और उपन्यास की ही भांति पूरी तरह से वे फिल्म में सजीव हो उठे हैं। सुभाष अग्रवाल के निर्देशन में तैयार हुई इस फिल्म को देखते हुए आपको प्रेमचन्द का लगभग पूरा साहित्य जितना भी आपने पढ़ा है आपके जेहन में बराबर चलता रहता है। या यूँ कहें चन्द्र किशोर जायसवाल इस मामले में भारतीय सिनेमा के लिए पूरे प्रेमचन्द बनकर उभरते हैं। महेश चन्द्र की सिनेमेटोग्राफी बेहद कमाल और उम्दा शैली की है। अभिनय के मामले में फिल्म का कोई भी कलाकार या सहयोगी कलाकार आपको निराश नहीं करता। अपितु साहित्य और सिनेमा के ऐसे अनूठे संयोग से बनकर तैयार हुई यह फिल्म आपको घंटों सोचने पर मजबूर करती है। के0 नारायण का संगीत फिल्म के स्तर को ऊँचा उठाता है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम यानी NDFC ने “सिनेमाज ऑफ़ इंडिया” लेबल के तहत इस फिल्म का निर्माण किया। फिल्म में बूढ़े किशनशाह का किरदार निभा रहे पंकज कपूर अपने परिवार के बीच सम्पत्ति को इसलिए अपने जीते-जी बाँट देते हैं ताकि जैसा उन्होंने गाँव में दूसरे परिवारों में होता देखा उसे अपने घर में न दोहयारा जा सके। यानी जमीन जायदाद के लिए, सम्पत्ति के लिए माँ-बाप, भाई-भाई, चाचा-ताऊ आदि में झगड़े इस कदर बढ़ जाते हैं कि वे एक दूसरे को जान से भी मार डालते हैं। किशनशाह अपने सबसे छोटे बेटे राम शरण के साथ रहते हैं। सब कुछ ठीक चलते चलते कभी कभी गलत फहमियाँ आकर परिवार के सदस्यों के बीच तनाव पैदा करती है। और यह तनाव दर्शक और आप हम सब भी अपने लिए महसूस करते हैं। इस तनाव की बारिश में हम इस कदर भीगते जाते हैं कि बूढ़े व्यक्ति के साथ हमें हमदर्दी होने लगती है। उसके साथ-साथ हम भी ओसारे, दालान, छत और खुली जगहों में अपने लिए जगह तलाशते नजर आते हैं। फिल्म में प्रेमचन्द के अति प्रिय पछाईदार बैलों का जिक्र साहित्य प्रेमियों के लिए सुकून देह है। खुश मिजाज तथा फ़िल्मी सितारों की माँ के रूप में हमेशा परफेक्ट नजर आने वाली माँ रीमा लागू फिल्म में महत्वपूर्ण तथा जानदार अभिनय से दिल पर काबिज हो जाती है। जिसका असर देर तक बना रहता है। पंकज कपूर तो बूढ़े के रोल में एकदम फिट हैं हीं और वे फिल्म की रुह बनकर सामने आते हैं। देखा जाए तो आज के दौर में बुजुर्ग अपना सबसे खराब वक्त काट रहे हैं। टूटती प्रथाएँ, मान्यताएँ, संस्कार उनको भी इस कदर भीतर ही भीतर तोड़ रही हैं जिसकी कल्पना हमारे लिए असम्भव है। फिल्म के भीतर कई सारे अंतर्द्वद्व हैं तथा उन अंतर्द्वद्वों से जूझते कलाकारों के साथ-साथ हम भी जूझने लगते हैं। फिल्म की कहानी वृद्ध विमर्श पर आधारित है। उपन्यासकार चन्द्र प्रकाश जायसवाल ने ‘जीवछ का बेटा बुद्ध’, ‘शीर्षक’, ‘चिरंजीव दाह’, ‘माँ’, ‘पलटनियाँ’, ’सात फेरे’ आदि उपन्यास भी लिखे हैं तथा ‘मैं नहीं माखन खाओ’, ‘दुखिया दास कबीर’, ‘किताब में लिखा है’, ‘नकबेसर कागा ले भागा, ‘तर्पण’, ‘अधात पुष्प’, ‘जमीन’ आदि नाम से कई कहानी संग्रह भी लिखे हैं। लेकिन उनकी प्रसिद्धि इस उपन्यास के कारण ही अधिक हुई। कहानीकार एवं उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध जायसवाल नाटककार भी रहे हैं। बिहार में जन्में जायसवाल ने ‘श्रृंगार’, ‘सिंहासन’, ‘रंगमंच’, ‘गृह प्रवेश’, ‘रतजगा’, ‘चीरहरण’ नामक नाटक लिखे तथा उन्हें कई पुरुस्कारों से भी नवाजा गया। इस फिल्म के बारे में बताने लिए प्रिय डॉ0 राम भरोसे सर का दिल से आभार कि उन्होंने मुझे एक फिल्म सुझाई। जिसे देखने के बाद मैं भी उनका उतना ही कर्जदार हो गया हूँ जितना भारतीय सिनेमा इस फिल्म का।

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