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आजकल अपने अतीत को कुरेद रही हूँ । कई बार जब खुद के बारे में सोचती हूँ तो जीवन के बीते हुए तमाम दिन जुगनू की तरह जगमगाने लगते हैं। ज़िन्दगी उन जुगनुओं की रौशनी में वक्त के अंधेरे में खोयीं हुई कुछ यादों को याद करती हैं। याद करते हुए अपने स्कूल के दिनों में लौटती हूँ। मां की अलमारी में हाथ से लिखे कुछ नीले, पीले, लाल रिपोर्ट कार्ड पड़े हुए हैं। उनसे अपनी ज़िन्दगी का मूल्यांकन करती हूं तो भावुक हो जाती हूँ। आज जब हजारों बच्चों की सुंदर, सजी हुई मार्कशीट देखती हूँ तो उनके सुंदर भविष्य की कल्पना और कामना करती हूँ। अपने स्कूली दिनों और आज के दिनों के बीच आ गए अंकों के फेर को समझने की कोशिश करती हूँ। फेसबुक पर अंकों का खेल देख रही हूँ । यह खेल आज से नहीं वर्षों से चल रहा है। लगभग एक दशक से अंकों की दौड़ शुरू हुई है जिसमें सब केवल एक दूसरे से आगे निकलना चाहते हैं। कोई अपना रास्ता नहीं बनाना चाहता। अजीब दौड़ है ये जिसकी कोई मंजिल नहीं है। अपना कोई मुकाम नहीं केवल दूसरों को दिखाना है कि “लो मैंने कर लिया।” जो बच्चे दिन रात मेहनत करके अंक ले आते हैं उन्हें बधाई और उनके उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएँ । लेकिन दुख तब होता है जब सुनती हूँ कि कम अंक पाने के कारण या फेल होने के कारण किसी बच्चे ने आत्महत्या कर ली। उससे भी ज्यादा दुख तब होता है जब यह सुनती हूँ कि एक बच्चे ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके मैथ्स, अंग्रेजी या कामर्स में 100 आने थे लेकिन 98 ही आए। उन्हें कैसे समझाया जाए कि एक नम्बर से ज़िन्दगी नहीं रुकती है। मैं इसमें बच्चों से ज्यादा गुनहगार उनके अभिभावकों, टीचर्स और आस – पास की दुनिया को मानती हूँ जो अपने बच्चों, शिष्यों और पहचान वालों को रेस का ऐसा घोड़ा बना देना चाहते हैं जो मंज़िल तक पहुँच जाए, बेशक उसका पैर टूट जाए। इस दौड़ में चाहे उसका दम घुट जाए लेकिन नम्बर पूरे सौ में सौ चाहिए।

में अपना बताऊँ तो कभी टॉपर नहीं रही। टॉपर्स की रेस में कभी शामिल भी नहीं हुई। बस हमेशा पिछली बार से बेहतर करने की कोशिश करती रही। अंकों से कभी अपने भविष्य को आंकने की कोशिश नहीं की। मेहनत करने में कभी कमी नहीं की और खुद को अंदर से हमेशा “दी बेस्ट” माना। जीवन में अच्छा किया तो खुद की पीठ थपथपा ली और कभी कुछ कम मिला तो अगली बार मेहनत और बढ़ा दी लेकिन जीवन में कभी हार नहीं मानी। ना घबराई। मुझे मालूम था जो मुझे पाना है उस तक एक दिन पहुँच जाऊंगी। क्या हुआ अगर वहां तक पहुंचने में मुझे अन्य से थोड़ा ज्यादा समय लग जाएगा। मुझे याद है हमारे दौर में सत्तर प्रतिशत पर मेरिट बन जाती थी। आज निन्यानवे प्रतिशत पर भी कोई मेरिट नहीं है क्योंकि निन्यानवे और सौ के बीच एक गहरा फासला है। यह फासला केवल अंकों का नहीं है बल्कि स्टेट्स का भी है। झूठे स्टेटस का, जिसमें बच्चा और अभिभावक उलझे हुए हैं। यही कारण है कि बहुत सारे प्रतिभाशाली बच्चे शानदार पेंटर, गायक, अभिनेता, निर्देशक, फोटोग्राफर, लेखक, खिलाड़ी और डांसर बनने की बजाय खराब डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस और प्रोफेसर बन जाते हैं। दूसरे के सपनों और उम्मीदों को अपने कंधे पर ढोते ढोते उनके कंधे झुक जाते हैं। याद रखिए नम्बर से सोसायटी में कुछ दिन या महीने के लिए आपका स्टेटस बनता है लेकिन ज़िन्दगी नहीं, क्योंकि ज़िन्दगी की तो अलग ही रिक्वायर्र्मेंट है। जीवन धैर्य माँगता है। धारा के विपरीत चलने का साहस माँगता है। अगर आपने साहस कर लिया और टिके रहे तो फिर ज़िन्दगी इतना देती है कि आप संभाल भी नहीं पाएँगे । अब नाइंटी प्लस ले आना हर बच्चे के लिए कोई मुश्किल नहीं है क्योंकि उन्हें सीखा दिया गया है कि इससे कम हुए तो सर्वाइव नहीं कर पाओगे। इसलिए नाइंटी नाइन वाले के चेहरे पर उदासी है क्यों उसके हंड्रेड नहीं आए। नम्बर और प्रतिभा के बीच में जो दूरी बना दी गई है बड़ी भयानक है। एक बात हमेशा याद रखें नंबर की अहमियत हमेशा होती है। नम्बर लाने का प्रयास भी करना चाहिए। टॉपर्स बनने के लिए भी कोशिश करनी चाहिए लेकिन इस कीमत पर नहीं कि जान पर आ जाए। ऐसी हजारों हस्तियां है जो अंकों के खेल में पीछे रह गईं लेकिन दुनिया उनकी तस्वीरें अपने घरों में लगाती है। याद रखना मेरे बच्चों आपका नंबर कम आना या आपका फेल हो जाना केवल जीवन का एक छोटा सा हिस्सा है उससे आपकी ज़िन्दगी कभी नहीं रुकती लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पढ़ना लिखना छोड़ दें, सीखना छोड़ दें या फिर बेहतर करने की कोशिशें छोड़ दें। नम्बर लाना आपकी प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन उसके लिए ज़िन्दगी दांव पर नहीं लगानी है। जिंदगी बहुत खूबसूरत है। आपके आस पास और आपके अंदर बहुत कुछ ऐसा है जो आपके नम्बर से ज्यादा मायने रखता है, बस आपको उसे पहचानना है और आगे बढ़ना है।
आप सभी को ज़िन्दगी जीने की शुभकामनाएँ ।

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