“12 Angry Men” Reginald Rose द्वारा लिखी गई अमेरिकी टीवी के लिए एक नाटक। इस नाटक पर 1957 में हॉलीवुड के निर्देशक Sidney Lumet ने फिल्म बनाई जिसका नाम नाटक के शीर्षक पर ही रखा गया “12 Angry Men” फिल्म में एक लड़के द्वारा अपने पिता की हत्या करने का आरोप होता है जिस पर न्यायालय द्वारा 12 लोगों की एक टीम बनाई जाती है जो यह निर्णय ले सके कि लड़का दोषी है या निर्दोष।
इस कहानी पर अनेकों फिल्में बन चुकी हैं। रूस में “12”(twelve) नाम से फिल्म 20 सितंबर, 2007 को रिलीज हुई थी,जिसका निर्देशक Nikita Mikhalkov ने किया। अमेरिका में भी “12 Angry Men”नाम से ही टेलीविजन ड्रामा फिल्म (MGM Television) बनी,जिसका निर्देशन विलियम फ्रायडकिन ने किया। चीन में 15 मई,2015 को आंग जू के निर्देशन में “12 citizens” नाम की फिल्म बनी।  इससे पहले भारत में भी 80 के दशक में रंजीत कपूर ने उसी अंग्रेजी नाटक को “12 Angry Men” का हिंदी रूपांतरण किया, जिसका नाम “एक रूका हुआ फैसला” रखा। उन्होंने इस नाटक का मंचन पूरे देश में किया। नाटक से प्रभावित होकर बासु चटर्जी इस पर एक फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने अपनी इच्छा रंजीत कपूर को बताई। दोनों में सहमति बनी और 1986 में एक रूका हुआ फैसला नाम से ही फिल्म बनकर तैयार हुई। फिल्म की शुरुआत 12 लोग एक एक करके एक कमरे में दाखिल होते हैं। उन 12 लोगों पर अदालत ने एक जिम्मेदारी दी है। एक लड़के पर अपने पिता की हत्या का आरोप होता है।  उसने अपने पिता की  हत्या की है या नहीं इसी संदर्भ में सभी सदस्य एकत्रित हुए हैं ताकि अदालत न्याय कर सके।
12 लोग जो कमरे में एक निर्णय लेने पहुंचते हैं सबकी अपनी-अपनी सोच होती है और  अपनी-अपनी समस्या। किसी को किसी जरूरी काम से जाना होता है तो किसी को फिल्म देखने। लगभग सभी ने अपनी राय बना ली होती है कि लड़का दोषी है। 5 मिनट में निर्णय हो जाएगा और फिर सभी अपने अपने रास्ते। लड़का दोषी है इस पर 12 लोगों की सहमति होना अनिवार्य है। एक सदस्य के सुझाव से वोटिंग शुरू होती है जिसमें 11 वोट लड़के के विपक्ष में तथा एक वोट लड़के के पक्ष में जाता है। सारे सदस्य झुल्ला जाते हैं क्योंकि लगभग सभी ने पहले से मन बना लिया था कि लड़का दोषी है। के.के रैना की सहमति से सभी अवाक रह जाते हैं। खासकर पंकज कपूर जिन्हें इस बात का हंड्रेड परसेंट यकीन होता है कि लड़के ने ही अपने पिता की हत्या की होगी। पर के. के रैना कुछ बातों पर सबका ध्यान दिलाते हैं जिससे एक – एक कर उलझने सुलझने लगती हैं। कुछ लोग के. के. रैना के पक्ष में आ जाते हैं यह देख सदस्य संख्या 10 सब्बिराज आग बबूला हो जाता है। वह कहता है ऐसे परवरिश में पढ़ने वाले बच्चे मुजरिम ही होते हैं। उसके जातीय संस्कार परिवेश आदि पर वह तंज कसते हैं उनका मानना होता है इस तरह के लोगों को समाज में जीने का हक नहीं है ना होना चाहिए। परन्तु के. के. रैना  के तर्क  के आगे सब को धीरे-धीरे उनके पक्ष में आने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन पंकज कपूर अपने निर्णय पर अडिग रहते हैं उन्हें लगता है आजकल के बच्चे जो अपने मां-बाप से लड़ाई झगड़ा करते हैं, मां बाप के साथ दुर्व्यवहार करते हैं उन्हें सजा मिलनी चाहिए । इस घटना को वह अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर देखते हैं क्योंकि उनके बेटे ने उनके साथ जो दुर्व्यवहार किया होता है जिससे वह अपने आपको और इस केस को अलग नहीं कर पा रहे होते हैं परंतु सब के समझाने पर वह मान जाते हैं। फिल्म दर्शकों को उस परिवेश में ले जाती है जहां तर्क-कुतर्क, पक्षपात-निष्पक्षता, पूर्वाग्रहों जैसे संदर्भ आकर दर्शकों के समक्ष अपनी बात पूरी ताकत से रखती है। फिल्म जैसे-जैसे आगे अपने पत्रों के साथ आगे बढ़ती है ,  फिल्म के पात्रों के साथ-साथ दर्शकों का भी निर्णय बदलता है। बासु चटर्जी ने जिस सादगी से अपने पात्रों को तार्किक तरीके से प्रस्तुत किया है वह काबिले तारीफ है।

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2 thoughts on “मूवी रिव्यू : एक रूका हुआ फैसला”

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