“एक सामान्य स्त्री जो मर्यादा, सीमाओं, इज्जत और कर्तव्यों के ऐसे चक्रव्यूह में होती है जिसे पार करना असंभव सा प्रतीत होता है, फिर भी उसकी आकांक्षाएं उसे उस चक्रव्यूह के पार सोचने के लिए मजबूर करती है और यह काम “शिक्षा” भलीभांति करती है। शिक्षा किसी भी व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन करती है और नई सोच स्थापित करती है। उसी प्रकार जब एक स्त्री कुछ पढ़ीलिखी बातें करने लगती है तो यह बात समाज को खटकती है और उसे असभ्य घोषित कर दिया जाता है जैसे अगर हम एक आधुनिक स्त्री अपने लिए कैसा जीवनसाथी चाहती है उसके बारे में सोचे तो – वह एक ऐसे विवाह की कल्पना करती है, जिसमें अभिनय करने वाले दो पात्र ऐसे हो जो सर्वथा बराबरी की भावना रखते हो। दोनो ही पात्रो में न किसी के अधिकार ज्यादा हो और न किसी के कम, न कोई किसी का स्वामी और न कोई किसी का दास। वो बस जीवनसाथी हों जो सम्पूर्ण जीवन के प्रत्येक क्षण और परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ निभाये। दोनो ही विवाह रूपी इस नाटक में बराबरी का अभिनय करते हो, और दोनों ही पात्र नाटक की मुख्य भूमिका निभाये ताकि एक के बिना दूसरे का जीवन व्यर्थ हो। एक ऐसा संबंध जिसमें दोनों का एक- दूसरे के प्रति अटूट विश्वाश हों, दोनो को एक-दूसरे के सपनो, इच्छाओं, सुख-दुख और पसंद की निस्वार्थ परवाह हो। एक साथी दूसरे साथी के होठों पर मुस्कुराहट देखने के लिए हर संभव प्रयास करे। एक ऐसा रिश्ता जो रूढ़िवादी परम्पराओं और विचारों में बंध कर न रह जाए । दोनो में एक-दूसरे के लिए अधिक से अधिक प्रेम,सम्मान और निष्ठा हो। जो समाज के बनाये हुए स्त्री-पुरुष के नियमों, मर्यादाओं और दायित्वों को निभाने में न सिमट जाए, उनकी सोच उन सब तथ्यों को पार कर जाए जो उन्हें एक दूसरे को कम आंकने के लिए मजबूर करती हो।”