“और इस तरह आज फिर से एक मजदूर ने बिना अपने घर की दहलीज छूए रास्ते में ही दम तोड़ दिया । इन मजदूरों की मौत का जिम्मेदार कौन? ये कोरोना वायरस, ये गरीबी, या फिर हमारी ये असंवेदनशील सरकार !” न्यूज़ ऐंकर ने अभी जानता के सामने कुछ सवाल रखे ही थे कि इतने में ब्रेक हो गया । दामिनी की आंखें भीग चुकी थीं। वैसे ये कोई नयी बात तो थी नहीं, सिरियल देखते हुये वह टीवी के आगे भावुक होने की अभ्यस्त हो गयी थी ।
बगल में बैठे शशिधर बाबू पर इन खबरों का कोई असर नहीं था । अरे नहीं, ये मत सोचिए कि शशि बाबू पत्थर दिल इंसान हैं । दरअसल उनका ध्यान टीवी की तरफ था ही नहीं, वह तो किन्हीं और ही ख्यालों में खोये हुये थे । उनका लॉकडाउन ऐसे ही ख़यालों में खोये हुये कट रहा था ।
“बेचारे मज़दूर, कैसे हर रोज़ अपनी जान गंवा रहे हैं । किसी को कुछ फ़िक्र ही नहीं इनकी । मेरा तो रोना ही बंद नहीं हो रहा ।” दामिनी ने शशि बाबू का ध्यान अपनी तरफ खींचने की कोशिश करते हुये दुप्पटे से अपनी आंखें पोंछी ।
इधर शशि बाबू कोई नया बवाल नहीं चाहते थे इसीलिए उन्होंने दामिनी की तरफ देखते हुए लंबी सांस खींची और बोले “सच में बहुत बुरा हो रहा है ।” मजदूरों की दुर्गति के लिए उनके पास इससे ज़्यादा शब्द थे भी नहीं । वे जानते हैं कि उनके ज़्यादा बोलने या दुखी होने से भी कुछ खास बनने या बिगड़ने वाला तो है नहीं । वैसे भी इंसान जब खुद मुसीबतों से घिरा हो तो उसे दुनिया में बाक़ी सबका दुख कम ही लगता है ।
“बुरा! अरे अन्याय कहो अन्याय । कहां रखेगी ये सरकार इतना पाप । हर किसी को इसकी सज़ा भुगतनी पड़ेगी ।” हवा की रुख से भी तेज़ बदलता है दामिनी जैसी भावुक महिलाओं का मत । ये कभी एक पाले में नज़र नहीं आतीं । जहां अच्छा दिखता है वहां दुआएं देती और तारीफें करती नहीं थकतीं और जहां कुछ बुरा देखा नहीं कि किसी कूढ़े हुए ऋषी की तरह श्राप देने शुरु हो जाती हैं । ये इनका भोला मन ही है जो इन्हें पूरी तरह किसी एक का नहीं होने देता ।
शशि बाबू ने यहां मूड़ हिलाते रहना ही सही समझा । वह जानते थे कि उनकी एक गलत बयानबाज़ी उनके पूरे दिन को नरक कर सकती है । शशि बाबू पहले ही किसी अनजाने भय से भयभीत थे । पिछ्ले कई दिनों से उनका कहीं मन नहीं लग रहा था । मन ही मन चल रहा द्वंद ना जाने उन्हें कैसे निर्णय तक ले जा रहा था ।
पिछ्ले साल इसी महीने वो कितने खुश थे । ऊर्जा से भरे हुए एकदम । हालांकि तब भी परेशानियां थीं, बच्चों की फीस तब भी भरनी पड़ती थी, घर का राशन तब भी खरीदना पड़ता था, मोटरसाइकिल, घर आदी के नाम पर लिए गये लोन की किश्तों ने तब भी शशि बाबू को दबा रखा था, रिश्तेदारीयों में सुख श्राध भुगतने तब भी जाना पड़ता था । हमेशा से ये परेशानियां यथावत थीं । मगर इन सबके अलावा उम्मीद का साथ बना रहता कि वे अपनी मेहनत से सब सही कर लेंगे । उन्हें पता है कि उनके जैसे लोगों का नाम ही भारत है और ये भारत उम्मीदों पर ही खड़ा है ।
कहावत है कि पति पत्नी गृहस्थी की गाड़ी के दो समानांतर चलने वाले पहिये हैं । ये सच भी है लेकिन बताने वाले ने ये बताया ही नहीं कि इस गाड़ी मे डलने वाले ईंधन का नाम उम्मीद है । बिना उम्मीद के ये गाड़ी चलना तो दूर रेंगती तक नहीं । इन दिनों शशि बाबू इसी उम्मीद के ईंधन को लगातर घटता महसूस कर रहे थे । बीवी बच्चे विचलित ना हो जाएं इसीलिए शशि बाबू को ऐसे दिखाना पड़ता था कि वह ठीक हैं और जल्द ही सबकुछ भी ठीक हो जाएगा । मगर ना वह ठीक थे और ना उन्हें सबकुछ ठीक होता दिख रहा था ।
“कहां जा रहे हैं ।” शशि बाबू को हाथ में मास्क लटकाये देख दामिनी ने टोका ।
“ऐसे वक़्त में कहां जाएंगे, यही वर्मा यहां से आते हैं । घर पर बैठे बैठे मन अगुता गया है ।” दामिनी के कुछ कहने की प्रतीक्षा किए बिना ही शशि बाबू घर से निकल गए । दामिनी ने कुछ बोलना सही भी ना समझा ।
शशि बाबू के कदम बढ़ते चले जा रहे थे । इस काल में पैदल चलने के लिए शारीरिक बल या सहनशक्ति नहीं बल्कि बेचैनी चाहिए । शशि बाबू भी इतने बेचैन थे कि आज कि अगर उनका भी कोई गांव होता तो शायद इन परेशानियों से बचने के लिए आज वह भी गांव की ओर पैदल ही निकल जाते । मगर उनका तो सब कुछ यहीं था ।
अपने मोहल्ले से निकलने के बाद उन्होंने जीटी रोड जाने वाली कच्ची सड़क पकड़ ली । इधर आम दिनों में भी कम लोग दिखते थे, लॉकडाउन के कारण तो वे भी दिखने बंद हो गए थे । सुनसान सड़क पर अकेले ही चले जा रहे शशि बाबू के दिमाग में बिना जवाब के बहुत सारे सवाल तथा मन में हताशा भरी पड़ी थी । बच्चों की फीस से घर का लोन तक हर कुछ नाच रहा था । एक ही कम्पनी में क्लर्क का काम करते करते बहुत मुश्किल से जीवन को जीने लायक बना पाए थे शशि बाबू । लेकिन आज उस कंपनी ने इस मुसीबत की घड़ी में उनका साथ छोड़ दिया ।
हालांकि रास्ते बहुत निकाले जा सकते हैं मगर जब इंसान की आंखें के आगे सिर्फ परेशानियां नाच रही हों तो उसे आगे पीछे का कुछ नहीं सूझता । जीटी रोड आ चुका था । जीटी रोड पर बड़ी गाड़ियों की आवाजाही पहले जैसी ही थी । धीमी पड़ चुकी ज़िंदगी के दौर में गाड़ियों की रफ्तार पहले के मुकबले तेज़ हो चुकी थी । शशि बाबू चलते चले जा रहे थे । लॉकडाउन के वक़्त में भी अगर किसी इंसान की बीच सड़क किसी चलते वाहन के साथ टक्कर हो जाए तो भला आप उसकी किस्मत को क्या कहेंगे । शायद शशि बाबू की किस्मत को भी लोग कुछ ऐसा ही कहने वाले होंगे क्योंकि जिस तरह से वे आगे बढ़ रहे थे उस हिसाब से बिना कोरोन प्रभावित हुए उनका सुरधाम टिकट कटना निश्चित था ।
सामने से एक ट्रक आ रहा था इधर शशि बाबू अभी तक बेसुध अपनी मौत की तरफ बढ़ रहे थे । उनके दिमाग में सिर्फ उनकी 20 लाख की इन्शोरेंस पॉलिसी घूम रही थी जिसका फायदा उनकी मौत के बाद उनके परिवार को होने वाला था । ट्रक की रफ्तार तेज थी और शशि बाबू के अगले दो कदम ट्रक की रफ्तार को कम करने वाले थे । एक कदम बढ़ा और ये अगले कदम के साथ शशि बाबू वो दूर जा के गिरे ।
यहां ट्रक के रुकने के साथ शशि बाबू की सांसों को भी रुक जाना था । उनकी ज़िंदगी के साथ उनकी परेशानियों को खत्म हो जाना था, सड़क को खून से रंग जाना था, फिल्मों कहानियों की मानें तो अभी तक शशि बाबू की आत्मा को उनके शरीर के सामने अचंभित रूप से खड़े होना था लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । शशि बाबू दूर जा कर गिरे ज़रूर मगर ट्रक की ठोकर से नहीं बल्कि किसी के धक्का देने से । कुहनी और घुटने छिल गए थोड़े मगर जान नहीं गयी । शशि बाबू ने कराहते हुए आंखें खोली ही थीं कि सामने एक आदमी को लेटे हुए पाया । संभवतः ये वही था जिसने उन्हें धक्का दिया था ।
पहली नज़र में तो शशि बाबू को लगा शायद उनकी मौत ये सामने पड़ा व्यक्ति मर गया लेकिन गौर से देखने पर पता चल रहा था कि उसकी सांसें अभी बची हैं । उसके सिर से हल्का खून निकल रहा था लेकिन चेहरा भावशून्य था । आंखों से पानी और गले से कराह दोनों गायब थी । ऐसा लग रहा था जैसे गहरी नींद सोया हो । शशि बाबू कपड़े झाड़ते हुए खड़े हुए । झुक कर पहले चोटिल घुटने को छुआ फिर एक नज़र कुहनी की चोट पर डाली ।
“अंधे हैं कि नरभसा गए थे ?” अभी तक बुसुध पड़े इंसान ने शशि बाबू को खड़ा होते देख अचानक से कहा । शशि बाबू थोड़ा हड़बड़ा गए । उन्हें लगा था कि इसे अब हॉस्पिटल में ही होश आयेगा मगर ये तो टनाटन बोल रहा था ।
“ध्यान नहीं दे पाए । तुम ठीक हो ?” सामने वाला शख्स अभी तक आँखें बंद किए वहीं पड़ा हुआ था । शशि बाबू से उम्र में काफी छोटा था ।
“हमारी छोड़िए आप देखिए कहीं हड्डी उड्डी त नहीं टूट गया ?”
“नहीं ठीक है । लेकिन तुम्हारे सिर से खून निकल रहा है । चलो सरकारी अस्पताल पास में ही है पट्टी करवा लो ।” हालांकि शशि बाबू खुद को बचाने के लिए उस बंदे को मन ही मन गरिया रहे थे फिर भी उन्होंने इंसानियत के नाते उससे ये बात कह दी ।
“अरे नहीं अभी बहुत सफर तय करना है, बेर भी डूबने वाला है । आपको बचाने के चक्कर में थोड़ा देर हम भी देह सुस्ता लिए नहीं तो खुद से तो कहीं लेटते नहीं ।” लेटा हुआ वो शख्स अब बैठ गया था ।
“ऐसी बंदी में किधर जा रहे ।”
“गाओं जा रहे हैं ।”
“कितना दूर है ?”
“अभी तो 400 किमी चले हैं 1200 किमी और बाक़ी है ।” इतना सुनते ही शशि बाबू उसके कपड़ों को गौर से देखने लगे जिन पर उनकी पहले नज़र नहीं गयी थी । शशि बाबू ने पहली बार सामने से कोई पैदल सफर करने वाला मजदूर देखा था । अभी तक उन्होंने ऐसे मजदूर सिर्फ टीवी पर ही देखे थे ।
“क्या थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकते थे ? इतनी दूर पैदल ही निकल जाना तो पागलपन जैसा ही है ।” ये वो सवाल थे जो शशि बाबू के ज़हन में हमेशा उछल कूद करते थे मगर वो असंवेदनशील कहलाने के डर से मुंह नहीं खोलते थे । आज मौका था सो उन्होंने पूछ लिया ।
“इंतज़ार ! 23 दिन बैठे रहे ये सोच कर कि हालात सही होंगे, कोई सहयता के लिए आएगा । सप्ताह भर में ठेकेदार भाग गया हमारा । बाक़ी के साथी एक एक कर चले गए । कुछ दिन अपना राशन चला, कुछ दिन लोग सब बांटने आया उससे काम चलाए लेकिन पिछ्ले सप्ताह रासन एकदम खतम हो गया । एको दाना खाने के लिए नहीं बचा । जब पेट में भूख और सर पर मौत नाचता है तो सब समझदारी तेल लेने चला जाता है साहब । चार आदमी साथ चले थे, दो का रस्ता अलग था, एक बचा था जो बूढ़ा था, सो एक ट्रक वाला का हाथ पैर जोड़ के उसको बैठा दिए । हम अकेले अपना मंजिल तय करने निकल पड़े । चल रहे हैं तो ज़िंदगी के लौटने की उम्मीद बनी है, रुके रह जाते तो हम और ज़िंदगी दोनों मर जाते ।” मजदूर बोलता रहा शशि बाबू सुनते रहे । उसकी आखिरी बात जैसे किसी को गहरी नींद से जगाने वाला ज़ोरदार धक्का थी । शशि बाबू ने महसूस किया कि जैसे उन्हें भी इस मज़दूर ने धक्का दे कर जगाया हो । ‘चल रहे हैं तो ज़िंदगी के लौटने की उम्मीद बनी है’ ये बात तो जैसे दिमाग में छप गयी थी उनके ।
“कुछ खाए कि नहीं?” शशि बाबू ने बात को और ज़्यादा ना बढ़ाते हुए सीधे मतलब का सवाल पूछ लिया ।
“हां, आप जैसे ही एक साहब मिल गए थे तो उन्होंने खिला दिया था खाना ।” वो शख्स अब उठ खड़ा हो गया ।
“आगे ?” शशि बाबू ने पूछा
“राम भरोसे ।” वो शख्स मुस्कुरा कर बोला । शशि बाबू भी मुस्कुरा दिए । वो अपने सफर पर आगे बढ़ चला ।
“ये रख लो ।” शशि बाबू ने पीछे से आवाज़ देते हुए कहा । वो शख्स पीछे मुड़ा तो देखा शशि बाबू के बढ़े हुए हाथ में सौ सौ के चार नोट हैं ।
“अरे नहीं साहब, इसकी कोई ज़रूरत नहीं है ।” वो शख्स हाथ जोड़ते हुए बोला ।
“रख लो, हर जगह कोई खाना खिलाने वाला नहीं मिलेगा ।” शशि बाबू मुस्कुरा कर बोले । शख्स ने कुछ पल उन्हें देखा तथा फिर पैसे ले लिए । वो मुड़ने लगा इतने में अचानक उसे कुछ याद आया ।
“वैसे आप सच में आत्महत्या करने जा रहे थे क्या ?”
शख्स की बात सुन कर शशि बाबू थोड़ा चौंके लेकिन अगले ही पल मुस्कुराते हुए बोले “बताया ना थोड़ा ध्यान भटक गया था ।”
“फिर से भटक गए तो?” शख्स ने हँसते हुए पूछा ।
“नहीं अब नहीं भटकेंगे ।” शशि बाबू मुस्कुरा कर बोले तथा हाथ हिलाते हुए घर के रास्ते की तरफ लौट गए । इधर उस शख्स ने उन पैसों को रखने के लिए अपना फटा हुआ पर्स खोला । पर्स देख कर अचानक से मुस्कुराया नज़र अपने आप ही आसमान की तरफ उठ गयी । अब पर्स में 402 रुपये थे ।