commanman

सभ्य व आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा व क्षमता के द्वारा सुख साधनों को बढ़ाने चाहिए जो दूसरो की सवंत्रता में बाधक न हो यदि बाधक हो, तो उनका सहयोग करे ।
*You must know whole to live.*
संसार में भांति – भांति की विचार – धारा के लोग रहते है , जिनके अपने स्वार्थ वह उनकी प्रतिभा क्षमता , दक्षता और बुद्धि का लेवल अलग – अलग होता है।
जिससे आपस में टकराव आ जाता है , जो हमारे कर्म व विचारो से सहमत नही होते है , परेशानियां उत्पन्न करते है , यही तो वास्तविक जीवन है, ऐसी विपरीत परिस्थितियों को उल्ट देने की क्षमता को सांस्कृतिक विजयश्री कहते हैं।।
किसी ने लिखा है what is life ? Life is struggle किसी ने लिखा No life is beautiful तीसरे ने लिखा Life is beauty.मैने सोचा तो जीवन सौंदर्य लगा । जब जाना तो जीवन कर्तव्य है और जब समझा तो ऐसा लगा कि जीवन का आधा भाग सौंदर्य व आधा भाग कर्तव्य है ।

प्रकृति का विचित्र खेल है, कि जीवधारी के लिए जो चीज जितनी आवश्यक है उसे उतनी ही मात्रा में उपलब्ध कराने के लिए अति सुंदर व्यवस्थित की है।
मनुष्य के कर्म ही सुख दुख अशांति और पराधीनता के कारण होते है, प्रकृति के सिद्धांत और कर्म के फल अटल है कर्मो का निर्धारण मनुष्य का मन करता है।
और मन पर धर्म का नियंत्रण होता है , धर्म ही मन की सात्विक शक्ति है जिसे पाना ही हमारा लक्ष्य है।
लक्ष कर्तव्य निर्वाह से प्राप्त होता है, इसलिए कर्तव्य पालन भी धर्म अनुसार होना चाहिए यहां धर्म से अभिप्राय जाती सूचक नहीं है यहां धर्म से अभिप्राय व्यक्ति मनुष्य से लिया गया जो उसका कर्तव्य है।

स्वतंत्रता के समय शहीदों की आंखो में क्या सपने थे और हम सर्वाधिक भ्रष्ट व विखंडित समाज के रूप में क्यों जी रहे हैं।
आज भ्रष्ट आचारो की दलदल में फंसकर आपस में टकरा रहे हैं, कही ऐसा तो नहीं कि निर्माण व विकास के लिए बनाया गया संवैधानिक रास्ता ही गलत था।

*”देखकर ऐसा लग रहा है*
*विकास की संभावना मुश्किल यहां है*
*चारो तरफ गुजरती सिक्को की खनन*
*जिसमे खो गई सभी इंसानियत है।।”*

यह हमारी संस्कृति के विपरीत है पर वे संस्कृति क्या है ,जानते भी है या नहीं यह कहना मुश्किल है।
संस्कृति तो मानवीय संवेदनाओं से युक्त मनोकामनाओं की प्रस्फुटिक एक भाव – धारा है और इस प्रकार के जीवन के स्वरूप की जन – जन की सुखद अनुभूतियों की निराकार व उद्देश्य शक्ति जिस के प्रभाव का केवल अनुभव किया जा सकता है।
हमारी संस्कृति कहती है कि समाज हित को करने वाला साधन ( व्यक्ति ) भी पवित्र होना चाहिए।

व्यक्ति से समाज याने राष्ट्र की भव्य कल्पना परिस्थिती अनुसार बदलने वाली चीज नहीं है।
महाभारत याने अनेकता में एकता का भाव हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक आध्यात्मिक तथा सभी क्षेत्रों में उस दिव्य दीपक के समान है जो चारो और से विवध रंगो के शीशों से घिरा हुआ होकर उसके भीतर का प्रकाश दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार अलग – अलग रंगीन प्रतिबिंब की छाया के रूप में प्रकट होता है। याने सर्वसाधारण दृष्टिकोण ही हमारी संस्कृति है।
संस्कृति राष्ट्र की आत्मा है , प्राण है सांस्कृतिक चेतना से राष्ट्र बनते हैं एवम् अचेतना से काम बिगड़ते है ।

आज हम अपने सुख में वृद्धि करने के लिए दिनों – दिन प्रयास कर रहे है तथा भांति – भांति के सुविधा – साधनों को सुख का आधार मानकर नीति – अनिती , उचित , अनुचित या किसी भी तरह संसार के भोग पदार्थो को छीन लेना चाहते हैं ,ऐसी विवेक हीनता से मनुष्य खोखला होता जा रहा है और सुख के बजाय दुखी हो जाता है।
हमारे पूर्वजों ने संसार हित के लिए अपना जीवन लगा दिया जिसमे समाज सुख और स्वतंत्रता का अनुभव करता रहे व प्रगतिशील होकर कर्मो का पालन करें । समाज यदि अपने मूल तत्वों को खो बैठे तो मानवता की मूल्यवान नीति कंगाल हो जाएगी।।

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *