14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी भाषा को अखण्ड भारत की प्रशासनिक भाषा के ओहदे से नवाजा था। यही वजह है कि 1953 से प्रति वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन आज देश की यही राज भाषा स्वयं अपने अस्तित्व की तलाश कर रही है। अंग्रेजियत या यूं कहिये पाश्चात्य सभ्यता का अंधाधुंध अनुकरण और अंग्रेजी के अति प्रचार-प्रसार ने मानों हिंदी से उसका अधिकार छीन लिया है। मुझे लगता है लार्ड मैकाले ने तो भारतीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति को तहस नहस करने और भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार और उसके प्रसार के लिए आज की शिक्षा प्रणाली को भारत में थोपा था लेकिन हजारो सालो से हमारे देश की नीव रही हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म करने में सिर्फ और सिर्फ हम भारतियों का ही योगदान है। क्यों की आज हिंदी संप्रदाय विशेष की भाषा बन कर रह गयी है जब कि हिन्दी किसी संप्रदाय विशेष की भाषा नहीं, यह जन-जन की भाषा है। ये दिल की भाषा है। इसकी विशेषता इसकी मिठास है। और आश्चर्यजनक सत्य हिंदी विश्व की सबसे बड़ी भाषा है।

भारतीय हिंदी सिनेमा का हाल और भी बुरा है, सिनेमा के रचनात्मक लोगो का दिवालियापन, मानसिक विकृति, पाश्चात्य सिनेमा की नक़ल, या अर्थ की होड़, कारण कुछ भी हो आज सिनेमा में हिंदी दम तोड़ रही है। आज शुद्ध हिंदी सिनेमा में हास्य के प्रतीक के रूप में प्रयोग की जाती है दुर्भाग्य तो ये है कि विश्व में सबसे ज़्यादा फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड में कहानी, पटकथा, संवाद या पुरस्कार समारोह में भी हिंदी की अवहेलना ही होती हैं। हास्यास्पद ये भी कि हिंदी टी. वी. और सिनेमा के सितारे जो हिंदी फिल्मो में संवाद तो हिंदी में बोलते हैं लेकिन जैसे ही किसी मंच पर पहुचते हैं वो अंग्रेजी भाषा को ही बोलचाल में प्रयोग करते हैं आज मुम्बई के जितने भी फ़िल्म के कथाकार लेखक हैं वो अपनी पटकथा या तो रोमन में लिखते हैं या फिर अंग्रेजी भाषा में। हिंदी सिनेमा के कलाकार या सितारे जिन्हें हमारे देश का बहुतायत युवा अपना आदर्श मानता है उनके रहन सहन बोलचाल का खुद भी पालन करता है वो इनकी नक़ल कर हिंदी का उपहास ही उड़ाता है।

हिंदी को हम अपनी मातृ भाषा कहते तो हैं लेकिन हमारे देश का युवा, जिसे हम देश का भविष्य कहकर बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी सौंप देते हैं, वही युवा ख़ुद हिंदी के महत्व को नकारता जा रहा है। उसके लिए हिंदी बोलना या हिंदी में बोलना अपने व्यक्तित्व को कम करने जैसा है। सिर्फ एक दिन यानी हिंदी दिवस के दिन देश के बड़े बड़े पुरोधा भाषा ज्ञानी तत्ववेत्ता सभी इलेक्ट्रोनिक सोशल मंच पर हिंदी दिवस की शुभकामनाएं प्रेषित तो करते हैं, पर हिंदी के उत्थान की कसमें अंग्रेजी में खाते हैं ये हास्यास्पद होने के साथ बहुत ही पीड़ादायक भी है।

उससे ज्यादा पीड़ा तब होती है जब यही देश के पुरोधा हिंदी दिवस के अगले दिन से ही अपनी अंग्रेजियत प्रेम को जगजाहिर भी कर देते हैं ऐसे में सोचनीय है कि क्या वास्तव में हम हिंदी को महत्व देते हैं। हिंदी दिवस के दिन सभी स्कूल, कॉलेजों में कोई ना कोई आयोजन किया जाता है, जिनमें भागीदारी निभाने वालों की संख्या नगण्य होती है, पर जब बोलचाल और पढ़ाई की बात आती है तो उनकी प्राथमिकता अंग्रेजी को ही जाती है।

हिंदी हमारी मातृभाषा है। जिसको भारत देश के सभी लोग आसानी से बोल सकते हैं और बोलते भी हैं। मगर फिर भी इसका प्रचलन कम क्यों होता जा रहा है। भारत के आलावा फिजी की भी आधिकारी भाषा हिंदी है और उसे वह सम्मान मिलता है सोचनीय है कि हिंदी आज विदेशों ‌में‌ विकसित होकर भारत में पिछड़ गई है।

हम हिंदी दिवस हर वर्ष निर्धारित तिथि को मानते तो हैं परन्तु अब हमें पूरी गंभीरता, पूरे मनोबल से हिंदी को उसका सम्मान और स्थान दिलाना होगा। जब तक सरकार द्वारा और सिनेमा एवं साहित्य के मूर्धन्य तत्ववेत्ताओं द्वारा हिंदी को सम्मान नही दिलाया जाएगा इसका प्रयोग अनिवार्य नही किया जाएगा इसका पतन जारी रहेगा और एक दिन इसका हश्र भी संस्कृत भाषा जैसा ही होगा।

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One thought on “क्यों घटता जा रहा है सिनेमा में हिंदी महत्व ?”

  1. बहुत सुंदर तरीके से बात को रखा ।

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