“श्रमिक एक्सप्रेस” खुल गई है
शहर, तुम ख़ुश रहो
वो चला गया, अपने गाँव
वही, जिसे तुम मज़दूर कह कर
दया से भर रहे थे।
वही, जो न जाने कितने सालों से
अपने पसीने को
मेहनत की भट्टी में पकाकर
बना रहा था
तुम्हारी सुविधाओं के सामान
सड़क, मेट्रो, पुल
हाईवे, हवाईपट्टी
शहर, तुम ख़ुश रहो
वो चला गया, अपने गाँव
वही जो बनाता था
तुम्हारे बाबा के लिए टेस्टी पकवान,
लाता था तुम्हारे लिए दूध, सब्ज़ी साग
365 दिन लगातार
पर तुम नहीं दे सके भरोसा उसे
65 दिन भी, बिठाकर खिलाने का
शहर, तुम ख़ुश रहो
वो चला गया, अपने गाँव
हालाँकि उसे भी पता है
जल्दी ही आएगी तुम्हें उसकी याद
करोगे फ़ोन, कहोगे
“लौट आ भाई शहर को”
“नहीं है कोई डर, कोरोना का”
वो हिचकिचायेगा
पर आप तो ठहरे मालिक
भरोसे के जादूगर
कहोगे, “आ जा यार” “मैं हूँ न”
माँ की बीमारी, बहन की शादी की चिंता बुला ही देगी उसे शहर, तुम्हारे पास
यह जानते हुए भी कि
“मैं हूँ न”
एक बहुत बड़ा झूठ है
एक मीठा फ़रेब है…

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One thought on “कविता : वो चला गया, अपने गाँव”

  1. बहुत सटीक। अद्भुद चित्रण।

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