न मैं चल ही सका,
न मैं रो ही सका।
जिंदगी को मानो,
व्यर्थ ही गँवा दिया।
तभी तो तन्हा रह गये,
और तरस गये प्यार के लिए।
पर प्यार करने वाला,
कोई मिला ही नहीं।
इसलिए तन्हा जिंदगी
आज तक जी रहा हूँ।।
बहुत ही जला हूँ
इस जमाने में।
कई बार मरा हूँ,
इस जमाने में।
किसी को भी,
तरस नहीं आया।
और बर्बादियों का,
जश्न मानता रहा।
डूब गया हूँ अब,
मैं उस सागर में।
जिसकी गहराई को
कोई नाप न सका।।
माना कि मैं जिद्दी हूँ,
बातों से मुकरता नहीं।
जमाने की चकाचौंध ने,
असर डाला बहुत।
पर इरादे मेरे वो भी ,
बदल न सके।
इसलिए माँ भारती को,
कभी छोड़ा नहीं।
भले ही छोड़कर मुझे,
अपने ही चले गये।
पर हिंदी साहित्य को,
कभी छोड़ ही नहीं।।

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