मंज़िलें पास नहीं होतीं, ज़रा दौड़ना सीखो
सफर की रुकावटों को, ज़रा तोड़ना सीखो
ज़िंदगी की राह में मिलते हैं अनेक चौराहे,
यूं हौसले की गाड़ी को, ज़रा मोड़ना सीखो
होती नहीं हर चीज़ हर किसी के मुकद्दर में,
बाक़ी ख़ुदा की मर्ज़ी पे, ज़रा छोड़ना सीखो
न मिलता कभी सुकून अपनों को भुला कर,
उनसे टूटे हुए रिश्तों को, ज़रा जोड़ना सीखो
चलते हैं जुबाँ के तीर हर तरफ से कितने ही,
तुम बधिरता के कवच को, ज़रा ओढ़ना सीखो
निशब्द होना भी तो ज़िंदगी पे बोझ है ‘मिश्र’,
जिगर में भरे ज़हर को, ज़रा निचोड़ना सीखो