किसी की मोहब्बत में खुद को मिटा कर कभी हम भी देखेंगे 
अपना आशियां अपने हाथों से जला कर कभी हम भी देखेंगे
ना रांझा ना मजनूं ना महिवाल बनेंगे इश्क में किसी के 
महबूब बिन होती है ज़िंदगी कैसी कभी हम भी देखेंगे
मधुशाला में करेंगे इबादत ज़ाम पियेंगे मस्जिद में 
क्या सच में हो जायेगा ख़ुदा नाराज़ कभी हम भी देखेंगे
प्रेम तो पर्याय होता है अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा का
बनकर अपनी उर्मिला का लक्ष्मण कभी हम भी देखेंगे
कहते हो ख़ुदा की कोई जाति नहीं होती अच्छा मज़ाक है 
ऐसा ही एक मज़ाक तेरे साथ करके कभी हम भी देखेंगे

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