अति प्राचीन भारत की राष्ट्रीयता के मूल स्वरूप की सांस्कृतिकता को कोई भी आँधी आज तक हिला भी नहीं पाई है। इसीलिए शायद उर्दू कवि इकबाल कहते हैं। ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ यही हमारी राष्ट्रीयता हमारी पहचान है और इसकी झलक हमारी सभ्यता, संस्कृति और जीवन दर्शन में भी है। गीता की तरह ही मनु भी विश्व व्यवस्था का संचालन करते हैं और पृथ्वी पर चारों चरणों से परिपूर्ण धर्म का अनुष्ठान करने की बात करते हैं। गीता का जन्म मानव के इतिहास की एक अद्भुत घटना है जहां महाविनाश की कगार पर, एक दूसरे के खून के प्यासे दो विशाल योद्घा समूहों के बीच खड़े होकर आत्मा-परमात्मा, मन-बुद्घि, चित्त, अहंकार पर गहन चिंतन हुआ है। गीता का यह पहलू इसे इक्कीसवीं सदी के लिए एकदम सटीक बनाता है। सारी धरती पर आज सबसे बड़ी मांग स्वतंत्रता ही है। स्वतंत्रता प्रश्न पूछने की, स्वतंत्रता अपना रास्ता चुनने की, स्वतंत्रता स्वयं को अभिव्यक्त करने की। मानव की नयी पीढ़ी सवाल कर रही है, और वह बिना आनाकानी के उत्तर चाहती है। गीता का समय आ गया है। संभवत: यह काव्य भविष्य को सर्वाधिक अपील करने जा रहा है, जितना इतिहास में कभी नहीं किया होगा।
”गीता सनातन दर्शन का सर्वाधिक स्पष्ट और व्यापक सारांश है, जो न केवल भारत बल्कि सारी मानवता का आधार है।” गीता में भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ही वेद् है। उसमें सब कुछ कर्मों के द्वारा करने की विधि है परन्तु साथ ही कुछ कर्मों को करने का निषेध भी है। यह विधि निषेध कर्मों कि गुण और दोष की परीक्षा करती है। वर्णाश्रम भेद, प्ररिलोम , अनुलोम, वर्ण संकर, कर्मों के उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु , स्वर्ग-नरक सभी का बोध हमें वेदों से ही हुआ है। गीता की यही विशेषता है कि उसमें गुण और दोष में भेद करने वाली दृष्टि है। तभी वह प्राणियों का कल्याण करने में समर्थ हुई है। गीता के 20 वें अध्याय में गुण, कर्म, दोष को लेकर उद्धव के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि प्रिय उद्धव ! मैंने ही वेदों में एवं अन्यत्र भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिए आधिकारिक रूप से तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया है। और वे उपदेश हैं  ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्य के परम कल्याण के लिए इनके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। जो लोग कर्मों तथा उनके फलों से विरक्त हो गए हैं और उनका त्याग कर चुके हैं। वे ज्ञान योग के अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है। उनमें दुःख बुद्धि नहीं हुई है। वे सकाम व्यक्ति कर्मयोग के अधिकारी हैं। और कर्म के सम्बन्ध में जितने भी विधि निषेध गीता में वर्णित है उनके अनुसार तभी तक कर्म करना चाहिए, जब तक कर्ममय जगत और उसे प्राप्त होने वाले स्वर्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाय। कर्म के अधिकारी मनुष्य का शरीर बहुत ही दुर्लभ है और स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकों में रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते हैं। क्योंकि इसी शरीर में अंतः करण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति होती है। ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग से मन परमात्मा का चिंतन करने लगता है।

श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि।

चातुर्वर्ण्य मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धय कर्त्तारव्ययम् ।। 13।। 

इस श्लोक के माध्यम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र इन चारों वर्णों का नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्व, रज, तम इन तीन गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण ईश्वर द्वारा रचे गए हैं। उनमें सात्विक ब्राह्मण के शम, दम, तप आदि कर्म है। तथा जिनमें सत्व गुण गौण है और रजो गुण प्रधान है। जिनमें तमो गुण गौण और रजो गुण प्रधान है। वे वैश्य के कृषि आदि कर्म बतलाए गये हैं। तथा जिनमें  रजो गुण गौण और तमो गुण प्रधान है। उस शुद्र का केवल सेवा कर्म ही है। इस प्रकार गुण और कर्मों के विभाग से चारों वर्ण मेरे (ईश्वर) द्वारा उत्तपन्न किये गये हैं।

शंकरभाष्य के अध्याय 4 के 14वें श्लोक में

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न में कर्मफले स्पृहा।
इति मां योsभिजानाति कर्मभिर्न सबध्यते।। 

अर्थात मुझमें अहंकार का अभाव है, इसीलिए वे कर्म देहादि, उत्पत्ति के कारण बनकर मुझे लिप्त नहीं करते और उन कर्मों के फल में मेरी लालसा अर्थात तृष्णा भी नहीं है। गीता ब्रह्म विद्या शास्त्र है। और यह विद्या शास्त्र हमेशा प्रासंगिक रहेगा। मनुष्य हमेशा कर्म करने की प्रवृत्ति रखता है। वह उससे भिन्न नहीं हो सकता। जीवन में किये जाने वाले नैतिक कर्म हो या नैमित्तिक कर्म मनुष्य कभी उनसे पृथक हो ही नहीं पाया इसीलिए वह इस नश्वर जगत में भटकता रहता है। जीवन चक्र के बंधनों से छुटकारा उसके लिए सम्भव ही नहीं है। उसका सारा कर्म ब्रह्माश्रित है। कर्म का प्रभाव, प्रतिष्ठा, परायण तीनों ब्रह्म ही है। कर्म ब्रह्म से पृथक कभी नहीं रहता अतः ऐसे कर्म के प्रतिपादक गीता शास्त्र को हम ब्रह्म विद्या प्रतिपादक कहने के लिए तैयार है। कर्म जाल इतना टेढ़ा है कि उससे निकलना असाध्य नहीं तो कृच्छ साध्य तो अवश्य ही है। गीता में बार-बार ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहकर कर्म पर जोर दिया गया है। भारत में सारा क्रियाकलाप, सारे धार्मिक कृत्य वेदशास्त्र पर अवलम्बित है। सारे शास्त्र वेदानुकुल है। इन सबका मूल वेद में मिलता है। इसीलिए ये शास्त्र प्रमाणिक भी माने जाते हैं। पाश्चात्य जगत भी वेद की सत्यता को स्वीकार करता है। गीता कहती है, कि मानने से न होगा, सत्य को जानना होगा। उसके लिए अपने दोषों का परिष्कार करना होगा। साधना की आग में स्वयं को तपाना होगा। तब सत्य का दर्शन होगा। गीता निरंतर नये तलों पर गति करती है। गीता में कहा गया है कि साधना का तुम्हारा मार्ग तुम्हारे लिए ही अच्छा है। उसे दूसरे पर मत थोपो।

कर्म शब्द “कृ” धातु से जन्म लेकर अपना विकसित रूप क्रिया अर्थ में दर्शाता है। सबसे पहला शब्द ‘कर्म’ है। ‘कर्म’ शब्द ‘कृ’ धातु से बना है, उसका अर्थ ‘करना, व्यापार, हलचल’ होता है और इसी सामान्य अर्थ में गीता में उसका उपयोग हुआ है, रणभूमि में किसी योद्घा की सभी ज्ञानेन्द्रियाँ  और कर्मेन्द्रियां पूरी त्वरा के साथ सक्रिय होती हैं। ये युद्घ की महिमा का बखान नहीं है, परन्तु युद्घ का आसन्न संकट मानव की क्षमताओं को जीवन और मरण की कसौटी पर कसता आया है। आज के जीवन के हजारों आविष्कार युद्घ की तैयारियों से जन्मे हैं। फिर युद्घ अगर महाभारत जैसा हो, अर्जुन जैसे योद्घा को विषाद हो और कृष्ण जैसा मार्गदर्शक हो, तो गीता का जन्म होता है।
अकर्मणाम् वै भूतानां वृत्ति: स्यान्न हि काचन।

(वनपर्व 32/8)

कर्म न करने वाले मनुष्यों की भी जीविका का कोई साधन सिद्ध नहीं होता।
मनु का भी यही सिद्धान्त है कि कर्म करना ही चाहिए। 
कर्तव्यमेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चय:। 

(वनपर्व 32/31)

कर्म कोई भी क्यों न हो फल अवश्य ही उत्पन्न करता है। फल परमात्मा के लिए बंधन स्वरूप है। आवागमन के रूप चक्र में डालने वाला है। इस फलोत्पत्ति में परमेश्वर तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता। कर्म में अनिवार्य रूप से गुण, दोष मिश्रित रहते हैं। शुभ, अशुभ (गुण और दोष) कर्मों का अलग अलग ही फल होता है। इन शुभाशुभ कर्मफल के अनुसार सम्पादित कर्म भी इस प्रकार ही परम्परा के शुभाशुभ कर्मफल उत्पन्न करते रहते हैं और कर्म चक्र सदैव चलता रहता है। कर्म क्या है और अकर्म क्या है। को श्लोक से कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण इस तरह व्याख्यायित करते हैं।

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्माणि च कर्म य:।
स बुद्धि मांमनुष्येषु स युक्त: कृत्स्त्रकर्मकृत।। 

अर्थात केवल देहादि की चेष्टा का नाम कर्म है और उसे न करके चुपचाप बैठ रहने का नाम अकर्म है, उसमें जानने की बात ही क्या है? यह तो लोक में प्रसिद्ध ही है।
जिन संसारी मनुष्यों का कर्मों में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा अभिमान रहता है एवं जिनकी उन कर्मों में और उनके फलों में लालसा रहती है। उनको कर्म लिप्त करते हैं। और जो यह देखते हैं कि ‘मैं कर्मों का कर्त्ता नहीं हूँ’ मेरी कर्मफल में स्पृहा भी नहीं है। वह भी कर्मों से नहीं बंधता। गीता के अनुसार कर्म का निवास प्रत्येक प्राणी के उस लिंग शरीर में होता है जो मन सहित छः इंद्रियों का है। कर्म का करना और न करना दोनों ही कर्त्ता के व्यापाराधीन है और कर्त्ता का व्यापार वह प्रवृत्ति हो चाहे निवृत्ति कर्म ही है। कर्म मनुष्य ही नहीं देवों-अधिदेवों से भी नहीं छूट सकता। इसकी सत्यता में श्री कृष्ण कहते हैं। हे पार्थ! यद्यपि मेरे लिए तीनों लोकों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो करना आवश्यक हो और कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है। जो अप्राप्त हो, इस पर भी मैं सतत कर्म करता हूँ। यदि मैं कर्म ना करूँ तो यह सम्पूर्ण विश्व ही नष्ट हो जाय। परन्तु कर्म के बंधन में बंधे होने के बाद भी परमात्मा इसके बंधन में नहीं है। क्योंकि वह प्रकृति से परे है। जबकि मनुष्य पुनः कर्मभूमि में लौट आता है और कर्म फल की पूर्व प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। गीता में यह वर्णित है कि जब अर्जुन कर्म करने से (युद्ध करने से) इंकार कर देता है। तो केशव अर्थात कमलनयन भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तू पूर्वजों द्वारा सदैव कृत कर्म अवश्य कर और अहंकार वश तू ऐसा नहीं कर रहा है तो भी प्रकृति तुझे ऐसा करने के लिए विवश कर देगी और जिस कर्म को तू मोहवश नहीं करना चाहता है। उसको अपने स्वभाव से उत्पन्न होने वाले कर्म से बंधा हुआ तू परवश होकर करेगा। कर्म का बंधन तोड़ना ही होता है। प्रकृति के हाथों में स्वयं खेलने की अपेक्षा उस पर शासन करना ही होगा। यही हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है। अभिप्राय यह है कि कर्म निरन्तर करो, परन्तु उनमें आसक्ति का भाव मत आने दो। अनासक्ति का यह भाव ही मनुष्य को कर्म के, प्रकृति के भीषण बंधन में पड़ने से बचाएगा।

गीता के दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में इसीलिए कहा गया है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुभूर्मा ते संग्गोsस्त्व कर्माणि।। 

अर्थात जो कर्म यज्ञ की भावना से सम्पन्न होता है, उस कर्म को छोड़कर यह सारा संसार कर्म बंधन में डालने वाला है। अतः मुक्त संग होकर यज्ञ की भावना से ही कर्म करना चाहिए। कर्म के इस अत्युत्तम ढंग का नाम ही कर्मयोग है। जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में कर अनासक्त भाव से कर्मेन्द्रियों के द्वारा इस कर्मयोग का आचरण करता है। वह श्रेष्ठ है और मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्मों का त्याग करना आवश्यक है।

संदर्भ ग्रन्थ
1. शुक्र नीति भाग-1; व्याख्याकार डॉ० जगदीश चंद्र मिश्र; चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन वाराणसी; संस्करण 2009
2. संस्कृत साहित्य में राष्ट्रवाद और भारतीय राजशास्त्र; डॉ० शशि तिवारी; विद्यानिधि प्रकाशन; दिल्ली; प्रथम संस्करण 2013
3. श्री भागवत सुधा सागर (शुक सागर); गीता प्रेस गोरखपुर; छब्बीसवाँ संस्करण संवंत 2042
4. गीता प्रवचन; विनोबा; सर्व सेवा संघ प्रकाशन; राजघाट वाराणसी
5. भगवद गीता का योग श्री कृष्ण प्रेम; अनुवादक डॉ० जगदीश नॉटियाल, सतीश दत्त पांडेय; नेशनल पब्लिशिंग हाउस; नयी दिल्ली
6. गीता हृदय स्वामी सहजानंद सरस्वती; श्री स्वामी सहजानंद सरस्वती स्मारक; न्यास बक्सर, भोजपुर; द्वितीय संस्करण
7. श्री मद्भगवद्गीता यथा रूप (सम्पूर्ण एवं अखंड संस्करण); श्री श्रीमद् ए. सी. भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद ; अनुवादक डॉ० शिवगोपाल मिश्र; भक्ति वेदांत बुक ट्रस्ट; मुम्बई
8. महाभारत तृतीय खंड (उद्योग पर्व और भीष्म पर्व);अनुवादक साहित्याचार्य प. रामनारायण दत्त शास्त्री पांडेय; गीता प्रेस गोरखपुर
9. श्री मद्भगवद्गीता मूल कथा (भाग 2) ; डॉ० राहुल, डॉ० कर्ण सिंह; स्टैंडर्ड पब्लिशर्स (इंडिया) नयी दिल्ली
10. गीता रहस्य;  मराठी अनुवाद – लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हिंदी अनुवाद – माधवराय सप्रे; शारदा प्रकाशन नई दिल्ली
11. भगवद्गीता विमर्श आचार्य विष्णुदेव उपाध्याय;आत्माराम एंड संस; दिल्ली
12. महाभारत खंड चतुर्दशो भाग; डॉ० श्री कृष्ण सेमवाल; अनुवादक डॉ०सरस्वती बाली; दिल्ली संस्कृत अकादमी, दिल्ली
13. कर्मयोग रहस्य (तृतीय खंड) ; प. मोतीलाल शास्त्री; राजस्थान पत्रिका लिमिटेड, जयपुर
14. श्री मदभगवद्गीता (शंकर भाष्य हिंदी अनुवाद सहित); श्री हरिकृष्ण दास गोयन्दका
15. भीष्मचरितम: एक समीक्षात्मक आकलन; डॉ तीजवन्ति पूनिया (पीएचडी शोध प्रबंध 2004)

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