हिंदी साहित्य में विमर्शों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इससे समाज की दबी हुई आवाज आम जनता तक दस्तक दे रही है। इन विमर्शों में आदिवासी और दलित की आवाज का शोर दूर तक लोगों को प्रभावित कर रहा है। दलित विमर्श में कहानी, उपन्यास और नाटकों से अधिक दलित आत्मकथाओं ने युवा पीढ़ी को अधिक आकर्षित किया है। हिंदी दलित आत्मकथाओं में मैं भंगी हूं, अपने-अपने पिंजरे, जूठन, तिरस्कृत, नागफनी, मुर्दईया, मेरा बचपन मेरे कंधों पर, मेरा सफर मेरी मंजिल, मेरी पत्नी और भेड़िया, झोपड़ी से राजभवन, दोहरा अभिशाप, शिकंजे का दर्द, बवंडरों के बीच और टूटे पंखों से परवाज तक इत्यादि प्रमुख हैं। इन दलित आत्मकथाओं में स्त्री पुरुष के यथार्थ के संघर्ष और उत्थान को बेबाकी से प्रस्तुत किया गया है।
‘मैं भंगी हूं’ भगवानदास द्वारा कृत एक दलित समाज की आत्मकथा है, जिसमें समाज का अछूतपन, सीवर के अंदर उतरने वाले दलितों की मौत, मैला उठाने की परंपरा, अशिक्षा, बेगारी, बेरोजगारी और सामाजिक पिछड़ापन की विस्तृत चर्चा की गई है। ‘अपने-अपने पिंजरे’ में मोहनदास नैमिषराय ने अभावग्रस्त जीवन की कठिन दास्तान को रेखांकित किया है। ताई और ताऊ द्वारा लालन-पालन, दलित समाज और संस्कृति की झलक, जातिवाद, निर्धनता, छुआछूत, किशोरावस्था का प्रेम, उत्पीड़न, संघर्ष, आत्म सम्मान, सांप्रदायिकता, वेश्यावृत्ति, मेलों की चकाचौंध और शादी विवाह इत्यादि आत्मकथा में देखने को मिलता है।
‘जूठन’ में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित समाज की दरिद्रता और घोर जातिवाद-छुआछूत को कलम बंद किया है। साथ ही दलित समाज की दुर्गति, रूढ़िवादी परंपराएं, पशु बलि, ब्राह्मणवाद, शिक्षा, बेरोजगारी, दलित बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों द्वारा स्कूल कॉलेज में दुर्व्यवहार इत्यादि दिए गए हैं।
‘तिरस्कृत’ में सूरजपाल चौहान ने दलित जीवन की विडंबना, गरीबी, छुआछूत, पशु बलि, दलित स्त्री का खुले आम अपमान की चर्चा विस्तार से की है। वहीं पर रूपनारायण सोनकर ने ‘नागफनी’ में अछूतपन के साथ-साथ दलित जीवन में उत्पीड़न का प्रतिरोध करने की क्षमता को विकसित किया है। तुलसीराम ने ‘मुर्दईया’ में अशिक्षा, दलित उत्पीड़न, ग्रामीण परिवेश की स्थानीय बोली के शब्द, दलित समाज संस्कृति के विविध रंग देखने को मिलते हैं। शयौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में स्त्री उत्पीड़न, बाल मजदूरी, बंधुआ मजदूरी, बेगारी, निर्धनता, अभावग्रस्तता, यौन शोषण तथा शिक्षा से लक्ष्य प्राप्ति इत्यादि देखने को मिलता है। वहीं पर डॉ.डी. आर. जाटव की आत्मकथा ‘मेरा सफर मेरी मंजिल’ में दलित जीवन की उत्पीड़ित घटनाओं की चर्चा की गई है साथ में बाल मजदूरी, शिक्षा और बाबा साहेब डॉ. बी. आर. अंबेडकर के विचारों को प्रसारित भी किया गया।
डॉ. धर्मवीर की आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में अवैध संबंध, घर के लड़ाई झगडे, कोर्ट कचहरी का ढीला रवैया, परिवार के टूटने पर बच्चों की स्थिति, स्त्री-पुरुष संबंध, प्रतिभा को दबाने का प्रयास तथा ईर्ष्या बदले की भावना, दलित जीवन के विविध प्रसंग देखने को मिलते हैं। माताप्रसाद की आत्मकथा ‘ झोंपड़ी से राजभवन ‘ में दलित उत्पीड़न, संघर्ष तथा राजनीतिक जीवन के विविध प्रसंग देखने को मिलते हैं।
‘दोहरा अभिशाप’ कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा है, जिसमें लेखिका ने बचपन में हुए अपमान, छुआछूत, अभावग्रस्त जीवन, बदबू और गंदगी का चित्रण, रूढ़िवादिता का विरोध, शिक्षा एवं स्त्री को बदनाम करने की साजिश तक का मार्मिक चित्रण किया है। ‘शिकंजे का दर्द’ में सुशीला टाकभौरे ने बचपन में भोगे कटु यथार्थ को उकेरा है, वहीं पर, पग-पग पर अपमान सहकर आगे बढ़ी है। बहुत धैर्य से अपमान के खूनी घूंघट को गले में उतारा है। उन्हें बचपन से लेकर कॉलेज शिक्षक बनने के बाद भी अछूतपन का एहसास सवर्ण करवाते रहे।
‘बवंडरों के बीच’ आत्मकथा में कौशल पंवार ने अपने जीवन के संघर्षपूर्ण दिनों को बेबाकी ओरमार्मिकता के साथ लिखा है।बचपन का खुला जीवन, छुआछूत, हंसी-ठिठोली, मां-पिता का आत्मीय संवाद, बेरोजगारी साहस, करुणा, घृणा, शंका, उपेक्षा, प्रताड़ना, ग्लानि तथा पिता को आदर्श मानना इत्यादि शामिल हैं। आत्मकथा नई पीढ़ी की स्त्री को भी एक दिशा दृष्टि प्रदान करती है।
इसी प्रकार ‘टूटे पंखों से परवाज़ तक’ में सुमित्रा महरोल ने दलित स्त्री जीवन की विकलांगता को समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है। आत्मकथा अभावपूर्ण एवं असहाय जीवन की विडंबनाओ को एवं अपनों के द्वारा शोषित अपेक्षित की गई विद्रूपताओं का लेखा-जोखा है। अपने बचपन के कठिन दौर में मुश्किल से अपनी शिक्षा पूरी की, स्कूल-कॉलेज में भी तिरस्कृत होना पड़ा, हमेशा अपनी इच्छाओं को दबाकर रखना पड़ा, स्कूल में दलित विकलांग होने के दंश को झेला।
आज की भक्ति दौड़ती जिंदगी में अपनों द्वारा अपनों का ख्याल रखना तो दूर, बात करना भी पसंद नहीं करते। एक विकलांग व्यक्ति का जीवन कितना बेबस और लाचार है। इस संबंध में सुमित्रा महरोल लिखती है कि “स्त्री, दलित और शारीरिक विकलांग इन तीनों दशाओं को मैंने एक साथ झेला। दलित और स्त्री होने की वजह से विषमतामूलक स्थिति में पड़े रहने के कारणों का विश्लेषण कर समाज व व्यवस्था को उत्तरदाई ठहराया जा सकता है, पर विकलांगता के लिए किसे कटघरे में खड़ा किया जाए- नियति को, प्रकृति को या हालात को। बहुत मुश्किल होता है, अपनी पूर्णता के साथ जीना। अपनी जिजीविषा से आप विकलांगता पर विजय प्राप्त कर भी लें, पर समाज कभी आपको समानता का दर्जा नहीं देगा। कदम-कदम पर आईना दिखाकर कहता रहेगा कि आप अपूर्ण हैं, उनके सामान नहीं।”1.
समाज में एक दलित विकलांग व्यक्ति की स्थिति। उसे पग-पग पर अपमान का सामना करना पड़ता है। समाज में उसे बार बार उपेक्षित किया जाता है और मजाक बनाई जाती है। इस आत्मकथा ने विकलांग जीवन पर चिंतन करने के लिए विवश किया है।दूसरी तरफ, लेखिका का जीवन संघर्ष, चिंतन और दृष्टि विकलांग ही नहीं उपेक्षित शोषित और हाशिए के लोगों को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करती है। इस संबंध में वे लिखते हैं कि – “सुखद यह है कि अंधड़ से भरे तपते रेगिस्तान के समान उस समय को पार कर आज मैं हरी-भरी तलहटी में हूं इस परवाज में अपने टूटे पंखों को बाधा मैने नहीं बनने दिया।”2.
आधुनिक और दिखावे के दौर में समय का अभाव है, हम अपने स्वार्थवश अपनों से ही मुंह मोड़ते जा रहे हैं। इससे समाज में प्यार-प्रेम और आकर्षक ने ईर्ष्या का रूप धारण कर लिया है। इस संबंध में सुमित्रा मेहरोल लिखती है कि – ” कुछ समय बाद उन्होंने इलाज बंद कर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया। काश! उन तात्कालिक परेशानियों को नजर अंदाज कर किसी ढंग के डॉक्टर से लगकर मेरा इलाज कराया होता तो आगामी जिंदगी में मुझे इतने खून के आंसू ना रोने पड़ते।”3.
बचपन में बच्चों को घूमना-फिरना, सबसे अधिक आकर्षित करता है। स्कूल के भ्रमण में सुमित्रा महरोल भी गई है लेकिन उनकी विकलांगता के कारण उसे चपरासियों के पास छोड़ दिया है ताकि शिक्षकों और बच्चों की मौज मस्ती में खलन ना पड़े। इस संबंध में सुमित्रा मेहरोल लिखती है कि – “मेरी ज्यादा दूर तक चल न पाने की असमर्थता के कारण टीचरों को असुविधा होती, इसलिए मुझे पार्क में चपरासियों के पास छोड़ दिया था। यह सुनते ही मेरा रुदन एकाएक थम गया और चेहरा कागज की भांति सफेद और निर्विकार हो गया।”4.
हाशिए के समाज के बच्चों के प्रति और विक्लांग पुरुष-स्त्री के प्रति सरकारी और गैर सरकारी स्कूल-कालेजों में आज भी उपेक्षित अशोभनीय व्यवहार देखने को मिलता है। हम नई पीढ़ी को सब कुछ बना रहे हैं, लेकिन अच्छा इंसान बना रहे हैं या नहीं यह एक विचारणीय बिंदु है।
समाज में तेजी से परिवर्तन हुआ है, शहरों में जातीय मानसिकता कुछ हद तक कम कही जा सकती है। यह शिक्षा और व्यवसाय या आमदनी के कारण भी हो सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि शहरों में पूरी तरह से जातिवाद और छुआछूत समाप्त हो गया है। शायद, ऐसी मानसिकता वाले लोगों ने अपनी भाषा, सलीका और तरीका बदला है। इस संबंध में सुमित्रा महरोल लिखती हैं कि – “पर तथाकथित शहरी सवर्ण शिक्षितों द्वारा किया जाने वाला भेदभाव इतना अप्रत्यक्ष और महीन होता है कि पीड़ित के अलावा अन्य को दृष्टिगत नहीं होता, जबकि मनोवृति इन लोगों की भी ग्रामीण सवर्ण के समान ही होती है, दलितों को हीन और अपने से कमतर समझने की पर परिवेश की भिन्नता के कारण वह प्रत्यक्षत: है उसका प्रस्फुरण नहीं करते।”5.
मुख्य धारा और हाशिए के समाज के बीच के अंतर को जानते हुए भी उस खाई को और अधिक गहरी करने की फिराक में समाज के असामाजिक तत्व रहते हैं जोकि नई पीढ़ी को भी उसी तरह के संस्कार दे रहे हैं। इस संबंध में सुमित्रा महरोल लिखती हैंकि ऐसा प्रतीत होता है कांच की एक बारीक आदर्श दीवार मेरे और समाज के बीच आ गई है जो उन्हें मुझेसे और मुझे उनसे जुड़ने नहीं देती। मैं नहीं जानती कि कब और कैसे मैं इस दीवार को गिरा पाऊंगी। मैं यह भी नहीं जानती कि मेरे विकलांग और दलित होने से इस दीवार का कितना संबंध है।”6.
‘टूटे पंखों से परवाज़ तक’ में दलित स्त्री के बचपन की टीस, कुंठा, विकलांगता से असहज जीवन, मां-पिता की लापरवाही, पितृसत्ता, बचपन के खेलकूद से वंचित, बच्चों द्वारा चिढ़ाना, ईर्ष्या, उपहास, अपमान, विकलांग लड़की से सुख सुविधाओं में खलल, विवशता, निराशा, घर में पिटाई, अपंग हो नाचने का दुस्साहस, खुशी का जमीन में धंसना, स्कूल के शौचालय की गंदगी, गर्मी में चलना, विकलांग होना भाग्य कर्मों का फल, अश्लील इशारे, फिकरे कसना, दिशा-निर्देश व प्रेरणा, आत्मविश्वास, मानसिक संबल, अनुशासन, नुक्ताचीनी, दलित, स्त्री और विकलांगता का तिहरा अभिशाप, तिपहिया वाहन से पैदल चलने का छुटकारा, फाइबर से बना केलियर बनवाना, सवर्ण का दलित अफसर के घर चाय पीना, दोगली नीति तथा कुटिलता इत्यादि।
इसी प्रकार फलों से छुआछूत, गला सूखा होने पर भी दलितों का ठंडा पानी न पीना, सामाजिक अवमानना, बहिष्कार के नुकीले दंश, असामाजिकता, संवेदना से रहित, मूल्यहीन समाज, मानसिक विकलांगता और शारीरिक विकलांगता, सामंजस्य बिठाने की क्षमता, मानसिक जुड़ाव, पढ़ी-लिखी आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी लड़की, वाकपटुता, पत्थर के समान भावहीन चेहरा, ग्रामीण पितृसत्तात्मक परिवेश, आत्मविश्वास खंडित कर उन्हें अवसाद की स्थिति तक ले जाना, भोगवादी मूल्यहीन समाज, अवसरों की अनुपलब्धता, भावात्मक वमन, चिंघाड़ते हुए जातिवाचक गालियां, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, परस्पर बातचीत और सामाजिकता, फेसबुक का लाइक दलित-गैर दलित, दीवार के पार की दुनिया, कोलाहल और जीवन इत्यादि देखने को मिलता है।
आत्मकथा में जगह-जगह वर्तनी की त्रुटियोंं की बहुलता है। प्रसंग में लेखिका के अतिरिक्त अन्य पात्रों का विस्तार से कोई संवाद नहीं दिया गया है। कथा में जहां पर नया प्रसंग शुरू हो रहा वहां पर क्रम संख्या या अध्याय का नाम नहीं दिया गया है। अनुक्रमणिका या विषय सूची भी नहीं दी गई। जहां पर प्रसंग का एक अध्याय पूर्ण हो रहा है, वहां पर कोई संकेत चिह्न नहीं है। नए संस्करण में त्रुटियों के सुधार की अपेक्षा है।
‘टूटे पंखों से परवाज तक’ एक ऐतिहासिक आत्मकथामक दस्तावेज है। यह दलित, स्त्री और विकलांग आदि के जीवन पर चिंतन करने के लिए विवश करता है। आत्मकथा नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है, वहीं समाज को अपना नजरिया बदलने के लिए प्रेरित करती है।
संदर्भ सूची : –
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, भूमिका, पृष्ठ – 7
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, भूमिका, पृष्ठ 7-8
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, पृष्ठ – 11
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, पृष्ठ – 27
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, पृष्ठ – 132
- सुमित्रा महरोल, टूटे पंखों से परवाज़ तक, पृष्ठ -160
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