कवि हमेशा सीमाएँ तोड़ता है, वे चाहें जिस भी प्रकार की हों— राजनीतिक, समाजिक, धार्मिक अथवा आर्थिक। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना उसका काम नहीं चलता, इसलिए वह सामाजिक नियमों में आसानी से बँध जाता है। यहाँ तक तो ठीक, पर जल्द-ही समाज के ठेकेदार उसे कतिपय निर्देश देने लगते हैं कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं! कभी-कभी ये निर्देश मनमाने और मनुष्य-विरोधी भी होते हैं। तब किसी संवेदनशील व्यक्ति के लिए इनका विरोध आवश्यक हो जाता है। जब यह विरोध किसी कलात्मक विचार द्वारा प्रगट होता है, तो वह ‘कविता’ का रूप धारण कर लेता है।
‘सरहदें’ प्रबुद्ध कवि सुबोध श्रीवास्तव का ऐसा ही काव्य-संग्रह है, जो समाज और राजनीति द्वारा बनायी गयी अनेक प्रकार की सरहदों की पड़ताल कर उन्हें तोड़ने का आह्वान करता है। इस प्रकार, कवि प्रेम से परिपूर्ण वैश्विक समाज की संरचना का स्वप्न देखता है।प्रस्तुत काव्य-संग्रह से पूर्व कवि की काव्यकृति, ‘पीढ़ी का दर्द’ बहुत पहले हिन्दी काव्य जगत में पर्याप्त चर्चित और समादृ त हो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत भी हो चुकी है। कवि ने ‘ईर्ष्या’ शीर्षक से लघुकथा संग्रह भी हिन्दी साहित्य को दिया है। उसने बच्चों के लिए भी कथाएँ लिखी हैं, जो ‘शेरनी माँ’ के नाम से खूब चर्चित है। आशय यह कि कवि सुबोध श्रीवास्तव का नाम हिन्दी जगत में नया नहीं है। कवि के पास सृजन हेतु पर्याप्त काव्यानुभव है। पत्रकरिता उसका पेशा है, इसलिए उसे समसामयिक स्थितियों के देखने, परखने आदि के लिए किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं। काव्य की मुक्तछन्द शैली के अतिरिक्त कवि को छन्दोबद्ध कविता में भी यथेष्ट दक्षता प्राप्त है, यद्यपि छान्दस काव्य में, दोहा, मुक्तक, गीत, ग़ज़ल विधा में उसकी कृतियाँ आनी शेष हैं।
समीक्ष्य कृति, ‘सरहदें’ में इकयावन कविताएँ संगृहीत हैं, जो दो खण्डों : सरहदें और एहसास (प्रेम कविताएँ) में विभाजित हैं। पहले खंड में बयालीस तथा दूसरे खंड में नौ कविताएँ व्यवस्थित हैं। बयासी पृष्ठों में इक्कयावन कविताएँ, अर्थात् प्रत्येक कविता औसत दो पृष्ठों की। सभी कविताओं के प्रारंभ में रेखांकन दिये गये हैं, जो काव्य-वस्तु के सम्प्रेषण में सहायक हैं। इससे कृति का कलात्मक मूल्य भी बढ़ गया है, पर रेखांकन की सीमाएँ भी होती हैं।… सभी कविताएँ मुक्तछन्द श्रेणी की हैं, बल्कि इन्हें यदि गद्यकविता कहा जाए, तो न्यायोचित होगा; तथापि इनमें लय है, जो यति और गति के समन्वय से बनी है। कविताओं का मूल स्वर आशावादी है, प्रकृति से प्रेम है और जीवन की मृदुल स्मृतियों के मध्य निश्छल प्रेम-ममत्व की सांस्कृतिक झाँकियाँ हैं जो पाठक के हृदय को भिगोती चलती हैं और उन्हें एक सहज जीवन का आह्वान करती हैं।
शीर्षक कविता, ‘सरहदें’ के अन्तर्गत ग्यारह छोटी-छोटी कविताएँ हैं। इनकी वर्ण्यवस्तु देशज सीमाएँ ही नहीं, आदमी-आदमी के बीच पनप आयीं दूरियाँ भी हैं। इन कवितायों में कवि इन तरह-तरह की दूरियों को पहचान कर उन्हें दूर करने के उद्यम भी सुझाता है और बिखरे हुए हृदय को प्रेम और विश्वास को संजोकर फिर से जीना सिखाता है। सरहदों का बनना, उनका बने रहना, उनमें घुट-घुट जीना, सरहदों का टूटना और सरहद के वज़ूद को परे झटक देना आदि अनेक पहलुओं पर कवि की दृष्टि गयी है और उसने विभिन्न अभिव्यक्तियों में यही प्रयास किया है कि पाठक सरहदों को समझे और अव्वल उनमें पड़े नहीं और अगर पड़ ही गया हो, तो उनसे कैसे बाहर निकले? इस शीर्षक की पहली कविता है—
हमेशा/क़ायम नहीं रहतीं सरहदें… ।
याद है मुझे/उस रोज़ जब/अतीत की कड़वाहट/भूलकर उसने/भूले-बिसरे सपनों को फिर संजोया,
यादों के घरौंदे में रखी/प्यार की चादर ओढ़ी/और उम्मीद की उंगली थामकर चल पड़ा
उसे मनाने/तेज़ आवाज़ के साथ टूटीं सरहदें/और रूठ कर गयी ज़िन्दगी/वापस दौड़ी चली आयी…।
कविता के समाप्त होते-होते पाठक को अजीब-सी राहत मिलती है। यही इस कविता की ताक़त है। कवि को यक़ीन है कि कैसी भी सरहद हो, एक दिन वह टूटकर रहेगी, बशर्ते हम माहौल बनाने की कोशिश करें। ‘सरहदें’ की पाँचवी कविता है—
टूटकर रहेंगी सरहदें/भले ही खड़े रहो तुम/मजबूती से पाँव जमाये तरफ़दारी में।
विश्वास है मुझे/जब किसी रोज़/क्रीड़ा में मगन/मेरे बच्चे/हुल्लड़ मचाते गुजारेंगे क़रीब से/
सरहद के/एकाएक/उस पार से उभरेगा एक समूह स्वर, / “ठहरो! खेलेंगे हम भी तुम्हारे साथ…”
एक पल को ठिठकेंगे फिर सब बच्चे हाथ थामकर एक-दूसरे का/दूने उत्साह से निकल जायेंगे दूर
खेलेंगे संग-संग/गायेंगे गीत प्रेम के, बन्धुत्व के/तब/न रहेंगी सरहदें/न रहेंगी लकीरें…
संग्रह की प्रारम्भिक कविताओं में एक कविता है, ‘उसे आना ही है…’। कविता का शीर्षक स्वयं में कविता है और अपने आशय का सकारात्मक संकेत देती है। कविता देखें—
खोल दो/बंद दरवाज़े-खिड़कियाँ/मुग्ध न हो, न हो प्रफुल्लित/जादू जगाते/दीपक के आलोक से।
निकलो/देहरी के उस पार/वंदन-अभिनंदन में/श्वेत अश्वों के रथ पर सवार/नवजात सूर्य के।
वो देखो/चहचहाने लगे पंछी/सतरंगी हो उठी दिशाएँ/हाँ, सचमुच/कालिमा के बाद आना ही है उसे
रश्मियाँ बिखेरकर/आह्लादित करने/विश्व क्षितिज को… ।
कविता ‘थमती नहीं नदी’ में कवि नदी से निरन्तरता, निर्भीकता, चंचलता, चारुता, गंभीरता आदि गुणों का संचय करता है और उन्हें पाठकों के सामने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करा है, मानो वह पहली बार नदी से मुखातिब हो। पंक्तियाँ देखें—
कभी/किसी से रोकने से नहीं रूकती नदी/न ही किसी पड़ाव पे/रुकावट से भयभीत हो/रुख बदलती है।
नदी चंचल होती है/लेकिन गाम्भीर्य भी नहीं खोती/कभी वात्सल्य उड़ेलती है/
हमेशा/बड़े दुलार से दोनों किनारों पर।
मैं, पुल होकर/साक्षी हूँ उसकी निरंतरता का/इसलिए भाता है मुझे/उसको अपलक निहारते रहना।
नदी- जो दोनों किनारों को/दुलराती तो है, मगर/तनिक भी जन्मने नहीं देती मोह/
शायद इसीलिए कभी थमती नहीं वह/बहती जाती है, बहती जाती है…।
‘नहीं चाहिए चाँद’ कविता में कवि की प्रकृति के प्रति झुकाव सम्बन्धी दृष्टिसम्पन्नता हमें आश्चर्यचकित करती है। वह आकाश अथवा उसमें बसे चाँद-तारों का आग्रही नहीं, सूरज को भी मुट्ठी में बंद करने का इच्छुक नहीं; वह तो बस धरती में रच-बस कर जीना चाहता है— किसानों के हल के साथ सोंधी मिट्टी में गतिशील रहकर, बच्चों के खेलों में मगन और पंछियों की चहचहाहट में मुग्ध रहते हुए… लेकिन यह तभी संभव है जब उसके भीतर एक आम आदमी साँस लेता रहे—
मुझे नहीं चाहिए चाँद/और न ही तमन्ना है/कि सूरज क़ैद हो मेरी मुट्ठी में/
हालांकि भाता है मुझे दोनों ही का स्वरूप।
सचमुच/आकाश की विशालता भी मुग्ध करती है/लेकिन तीनों का एकाकीपन/अक्सर/
बहुत खलता है शायद इसलिए मैंने कभी नहीं चाहा कि हो सकूँ\/
चाँद/सूरज और आकाश जैसा, क्योंकि/मैं घुलना चाहता हूँ खेतों की सोंधी माटी में/
गतिशील रहना चाहता हूँ/किसान के हल में/खिलखिलाना चाहता हूँ दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ/हाँ, मैं चहचहाना चाहता हूँ।
साँझ ढले, घर लौटते/पंछियों के संग-संग/चाहत है मेरी/कि बस जाऊँ वहाँ-वहाँ/
जहाँ साँस लेती है ज़िन्दगी और/यह तभी संभव है/
जबकि मेरे भीतर ज़िन्दा रहे/एक आम आदमी।
खण्ड-दो : एहसास में लघु कलेवर की प्रेम कविताएँ हैं, जिनमें चिड़िया, फूल, सूरज समुन्दर आदि के बहाने प्रेमाभिव्यक्ति की गयी है। कवि की कोमल अनुभूतियाँ जहाँ पाठक के हृदय में प्रेम जगाती हैं, वहीं समय की निष्ठुरता को भी सामने लाती हैं। ‘मौसम-सी तुम’ कविता में नायिका को मौसम की तरह मानकर उसे संबोधित किया गया है। इसमें नायक की गहरी प्रेमानुभूति है, तो नायिका के बदलते जाने का चित्रण भी है, लेकिन वह बदलाव किसी मौसम की तरह है—
मेरे अपने!/वादा था तुम्हारा. लेकिन वापस नहीं लौटे तुम…
मझे इस सब पे की ताज्जुब भी नहीं,/न ही कोई टीस है अंतर्मन में मेरे,
क्योंकि एहसाह है मुझे/कि वादे ज़्यादातर तोड़ दिए जाते है/और
अक्सर लौटते भी नहीं जाने वाले।
आजकल मौसम का मिजाज़ भी तो
कुछ ऐसे ही है, बिलकुल तुम्हारे जैसा !
इन कविताओं के अलावा, संग्रह में आज भी, वर्षा : एक शब्दचित्र, बेहतर दुनिया के लिए, अपराजित, जब एक दिन (पर्यावरण कथ्य पर),उसकी चुप (मदर टेरेसा के शव देखने पर), सुबह, नियति, आदि पठनीय और उद्धरणीय कविताएँ हैं।
कविताओं की भाषा बोलचाल की है। उनमें अपेक्षित रवानी भी है, इसलिए पाठक कविताओं में डूबता चलता है। यों संग्रह की सभी कविताएँ अपने उद्देश्य में सफल हैं, पर बन्दूकें और वो दरख़्त कविताएँ अधूरी सी प्रतीत होती हैं। कविताओं में तमाम बोलचाल के उर्दू के शब्द नागरी लिपि में लिखे गये हैं, जो रवानी बढ़ाने के कारण स्वागतेय हैं।
आशा है, संग्रह की कविताओं का खूब स्वागत होगा और कवि सुबोध श्रीवास्तव अपने नये काव्य संग्रह के साथ बहुत शीघ्र हिन्दी साहित्य-जगत के सम्मुख प्रस्तुत होंगे। कवि और प्रकाशक को एक अच्छे काव्य-संग्रह के प्रकाशन हेतु बधाईयाँ!
समीक्षक : राजेंद्र वर्मा, समीक्षित कृति : सरहदें (कविता संग्रह), रचनाकार : सुबोध श्रीवास्तव ISBN 978-93-83969-72-2 प्रथम संस्करण-2016/मूल्य 120 रु.(पेपर बैक)/ प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद 211003/ फ़ोन-9453004398/
ईमेल : anjumanprakashan@gmail.com
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