ढाई आखर का शब्द ‘प्रेम’ विश्व साहित्य में शायद सर्वाधिक चर्चित या कि विवादित रहता आया है।
पुराख्यानों से लगायत अधुनातन साहित्य तक काव्य और कथा सर्जना के केन्द्रीय तत्व के रूप  में प्रेम को व्यापक स्वीकृति एवं अभिव्यक्ति मिलना जीवन में इसकी अनिवार्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। कोई इसके चाक्षुष – दैहिक रूप तो कोई इसके आत्मीय (रूहानी) स्वरूप को श्रेष्ठ बताता रहा है। मानवीय गुणों में प्रेम को सर्वोच्च प्रतिष्ठा दी गयी है,परंतु लोकप्रियता के शिखर पर मुकुट की तरह सजे रहनेवाले इस शब्द की सर्वमान्य और सटीक व्याख्या अबतक नहीं हो पायी है। आगे हो पायेगी की नहीं, कहा नहीं जा सकता।
           अध्यात्मिक ऊर्जा से भरपूर,संस्कारवान और विनम्र स्वभाव वाले युवा उपन्यासकार वरुण पाण्डेय  ने मुझसे मिलकर जब अपना हिन्दी में लिखा (उनके अनुसार) पहला उपन्यास ‘नेत्रा’ दिया तो  मुखड़ा देख कर ही न जाने क्यों मेरे मन में  एक अलग किस्म का  कौतूहल भाव जागृत हो आया। औपचारिक आव-भगत के बाद जब पाण्डेय जी चले गये तो उत्सुकतावश पुस्तक को उलट पलट कर देखने लगा। आम तौर से सरसरी निगाह डालकर किताब को रख दिया करता हूं, पर उसदिन ऐसा नहीं हो सका।
              जिज्ञासा हुई कि साहित्य और भाषा के क्षेत्र से इतर कामर्स  डिग्रिधारी यह बैंककर्मी कितना कल्पनाशील है जिसने नेत्रा जैसे कुछ अटपटे नाम वाला यह उपन्यास लिख डाला है, तत्काल पढ्ने की जिज्ञासा बलवती हुई और पढ्ना शुरु कर दिया।
             अनुक्रमणिका के अलग अलग कहानी नुमा शीर्षकों में सबसे पहले एकवचन ने ही  पारिवारिक प्रेम संवादों से ऐसा बांधा कि बस पढता ही चला गया,तंद्रा तब टूटी जब बहू ने आकर पूछा ‘पापाजी,भोजन लगाऊँ  क्या?”
तबतक आधा उपन्यास पढ गया था।बोलचाल की चलती फिरती ,नदी के प्रवाह की भांति भाषा मानो तट के रंग विरंगे दृश्यों का दिग्दर्शन कराते बहाये लिये जा रही हो।
पढ्ना शुरु करने पर  कब कब, किन किन स्थलों पर अनजाने आपकीआँखे भीग जायेंगी,इसकी कोई गारंटी नहीं। उपन्यास के स्त्री पुरुष पात्र अपने सगों की तरह पाठक पाठिकाओं के भीतर कब आवाजाही करने लगेगे पता नहीं चलता। पारिवारिक स्नेह, वात्सल्यऔर अनुराग, प्रेमपूर्ण व्यंगय और चुहल के साथ जगह,जगह लुकाछिपी करते नजर आएंगे। शाश्वत, नैसर्गिक प्रेम का अलौकिक स्वरूप कैसे उद्दाम दैहिक आकर्षण पर संयम बनाये रखता है, उपन्यास के नायक आकाश और नायिका अमृता के चरित्र में सहज एवं स्वाभाविक रूप से गुम्फित हुआ है। श्री पांडेय इस उपन्यास में प्रेम केअलग तेवर का सर्जन करते हुए युगों युगों से चली आ रही समाजिक रूढियों तथा अन्ध विश्वासों पर प्रहार के हथियार के बतौर जब इसका इस्तेमाल करते हैं तो मानना पड़ता है कि प्रेम की ताकत और इसकी व्याप्ति सामाजिक बुराइयों  के उन्मूलन की दिशा में नई संभावनाओं का द्वार खोलने वाली है।
‘नेत्रा’ के कथावस्तु की बुनावट साधारण मध्य वर्गीय पर खुले विचार के पूर्वाग्रह विहीन दो उत्तर भारतीय पडोसी परिवारों के इर्दगिर्द रची गई है,जिनके सदस्यों के बीच कुण्ठा रहित आत्मीय, निश्छल और स्नेह पूर्ण पारिवारिक सम्बंध विकसित होते हैं। इस औपन्यासिक आख्यान की एक और शिफत यह है की इसमें कोई खलनायक पात्र नहीं है। नायक,नायिका दोनोंके माता पिता एक दूसरे का सुख-दुख बांट कर सन्तोष वृत्ति से रहनेवाले आदर्श पडोसी हैं ।
बाल्यावस्था से साथ साथ खेलने और पढ्ने वाले आकाश और अमृता युवावस्था आते आते कब एक दुसरे के लिये अपरिहार्य बन जाते हैं पता नहीं चलता।फिरभी परस्पर पूर्णतया समर्पण के बावजूद अपनी अपनी नैतिक और सामाजिक सीमाएं पहचानते हैं यद्यपि उनके अभिभावक  दोनों के विकसित हो रहे संबंधों के प्रति सजग एवं सकारात्मक हैं, तो भी दोनों के व्यवहार कहीं संशय नहीं पैदा करते। स्थूल दैहिक आकर्षण के मोह भंवर में डूबती उतराती वर्तमान युवा पीढ़ी के लिये यह कथा न केवल रोशनी की शलाका के रूप में आश्वस्तिदायक है,वरन सामाजिक बदलाव की मशाल भी बनने की क्षमता रखती है। युवाओं को भटकाव का रास्ता छोड़कर सहज पारिवारिक सम्मान और सच्चे प्यार की पुनर्स्थापना की राह पर चलने का संदेश इस उपन्यास की मुख्य थीम है, ऐसा मेरा मानना है।
इससे भी आगे बढ़कर यह हर प्रकार से वर्जनामुक्त परम्पराध्वन्सी  समकालीन समाज में व्याप्त रुढियोंके प्रति दकियानूसी नजरिए के खोखलेपन के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की प्रेरणा भी देता है,जो सामाजिक बदलाव में साहित्य की महती भूमिका  को रेखांकित करता है।वरुण पाण्डेय की लेखनी ‘नेत्रा’ के माध्यम से वर्तमान समाज के बिखर रहे पारिवारिक ताने बाने को सहेजने का ईमानदार कोशिश करती नजर आरही है। मैं इन्हें आश्वस्तिदायक भविष्य की शुभ कामनाएँ देता हूं।

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