हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय चेतना और संस्कृति के संवाहक लेखकों और कवियों की परंपरा में ‘रामधारी सिंह दिनकर’ का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। आज इस महान विभूति का जन्मदिवस (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974) है। समाज और राजनीति में इन्होंने अपनी रचनाओं से आम जनमानस में राष्ट्र के प्रति एक नई सोच और विचारधारा की भावना पैदा की। अज्ञेय ने उनके बारे में कहा था, ”उनकी राष्ट्रीय चेतना और व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्वों पर बल, उनका सात्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।” यही सारी बातें उन्हें राष्ट्रकवि के रूप में स्थापित करती हैं। अपने कॉलेज के दिनों में अभिनेता मनोज वाजपेयी ने इनकी कविताओं का पाठ खूब किया था। अपनी काव्यपाठ शैली के लिए मनोज काफी प्रसिद्ध थे। कॉलेज में सबको इस बात की उम्मीद रहती थी कि ये जहां भी काव्यपाठ के लिए जाएंगे तो कोई न कोई पुरस्कार जरूर जीत कर आएंगे। अपने संघर्ष के दिनों से लेकर आज तक मनोज इसे गाते रहते हैं। किसी भी परिस्थिति में हार न मानने और आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा मनोज को इससे मिलती रहती है। रश्मिरथी का वो प्रसंग जहां कृष्ण, कौरवों के पास जाते हैं और कहते हैं तुम केवल 5 गांव पांडवों को दे दो। मगर वहां भरी सभा में कृष्ण को ही बांधने की नाकाम कोशिश होती है तो कृष्ण अपना असल रूप दिखलाते हैं। वहां पर सबको आभास होता है कि कृष्ण को बांधना तो दूर ये सोचना भी असंभव है। तब कृष्ण चेतावनी देते हुए जो कहते हैं उसकी पंक्तियां निम्न है-
वर्षों तक वन में घूम घूम
बाधा विघ्नों को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य न सब दिन होता है
देखें आगे क्या होता है
मैत्री की राह दिखाने को
सब को सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को
भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आए
पांडव का संदेशा लाये
दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम
रखो अपनी धरती तमाम
हम वहीँ खुशी से खायेंगे
परिजन पे असी ना उठाएंगे
दुर्योधन वह भी दे ना सका
आशीष समाज की न ले सका
उलटे हरि को बाँधने चला
जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है
हरि ने भीषण हुँकार किया
अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले
भगवान कुपित हो कर बोले
जंजीर बढ़ा अब साध मुझे
हां हां दुर्योधन बाँध मुझे
ये देख गगन मुझमे लय है
ये देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झनकार सकल
मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमे
संहार झूलता है मुझमे
भूतल अटल पाताल देख
गत और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन
ये देख महाभारत का रन…
राष्ट्र सर्वोपरि की भावना से ओतप्रोत दिनकर जी विशेष रूप से आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में जाने जाते हैं। हालांकि एक ओर उनकी कविताओ में आक्रोश और क्रान्ति की अधिकता है तो दूसरी ओर कोमल कांत शब्दों का भी बहुत सुंदर प्रयोग किया है। जिसे हम कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में देख सकते हैं। दोनों ही रचनाएँ दिनकर जी की उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया। दिनकर जी भारतीय संस्कृति व परंपरा के बड़े समर्थक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में इसे प्रमुखता से दर्शाया है। ‘संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने कहा कि ‘सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है, क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है।’

मुख्य कृतियाँ-
कविता संग्रह : रश्मिरथी, उर्वशी,  हुंकार, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार
आलोचना : मिट्टी की ओर, काव्य की भूमिका, पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण, हमारी सांस्कृतिक कहानी, शुद्ध कविता की खोज
इतिहास : संस्कृति के चार अध्याय
सम्मान-
साहित्य अकादमी पुरस्कार
पद्मविभूषण
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार

रचनाओं के कुछ अंश-

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। (सिंहासन खाली करो कि जनता आती है)

“रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीरपर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर” (हिमालय से)

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो; उसको क्या जो दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।” (कुरुक्षेत्र से)

“पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय; नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।” (रश्मिरथी से)

“हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम जाते हैं; दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा, दूध खोजने हम जाते है।”

“सच पूछो तो सर में ही, बसती है दीप्ति विनय की;सन्धि वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।”

“सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है; बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।।”

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,रक्खो अपनी धरती तमाम।(रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)

जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। (रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 3)

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