ऊजे केरवा जे फरेला घवद से
ओह पर सुगा मडराय
ओह पर सूगा मडराय
उजे खपरी जरईबे आदित के
सूगा दिहले जुठिआई
उजे मरबो रे सुगवा धनुष से
सुगा गिरे मुरछाई….!
इस गीत की महक से शुरू हुआ यह पर्व इतनी तेजी से फैलता जा रहा है कि लगता ही नहीं है कि यह पहले एक छोटी सी जगह से शुरू हुआ था। इसके विस्तार में इस पर्व की महत्ता है। जो भी इस पर्व को रखते हैं उनकी मनोकामना पूर्ण होती है जिसके कारण यह दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। छठ आज सम्पूर्ण भोजपुरिया समाज की संस्कृति बनती जा रही है। यह बहुत पवित्र पर्व है। इस पर्व के मायने बहुत हैं। यह पर्व भोजपुरिया समाज की एकता को भी दर्शाता है। यही कारण है कि इस पर्व के आने पर अहिन्दी भाषी क्षेत्रो में भी छठ को लेकर मंत्री, सांसद और विधायक के साथ साथ पार्षद भी खासे उत्साहित दिखते हैं। घाटों की सफाई कराई जाती साथ ही प्रकाश इत्यादि का प्रबन्ध भी इन लोगो को द्वारा की जाती। किन्तु जो वास्तविक रूप से कुछ भोजपुरिया समाज के लिए किया जाना चाहिए उसके लिए कोई आगे नही आता। यह बिडम्बना है। आज इतनी संख्या होने के बाद भी हमारी लोक भाषा जो हमारी सांसो में बसती है वह संविधान की अनुसूची में नहीं जा पाया। केवल छठ में जाकर फ़ोटो भर खिचवा कर हम भोजपुरिया समाज के हितैषी नही बन सकते। खैर यह बिडम्बना है जो जल्द नही सुलझ सकता। आइये कुछ अब अपने इस पर्व को भी जान लें….।
हमें लगता है यह अकेला ऐसा पर्व है जिसमें उगते सूर्य के अलावा डूबते सूर्य को भी अर्ध्य दिया जाता है, पूजा की जाती है। यह हमारे समाज की एक जीवंत परम्परा है और सूर्य देव की उपासना का यह सलीका सम्पूर्ण विश्व में अद्भुत हैै। इसके गीत भी इस पर्व की महत्ता से भरे पड़े हैं। एक गीत देखिए जिसमें इस छठ माता के पर्व की एक परम्परा का चित्रण कितना जीवंत किया गया है….
कांचे ही बांस के बहंगिया
बहंगी लचकत जाए
बहंगी लचकत जाए
होहिहें बलम जी कहरिया
बहंगी घाटे पहुंचाए
बहंगी घाटे पहुंचाए
बाट जे पूछे ला बटोहिया
बहंगी केकरा के जाए
बहंगी केकरा के जाए
तू त आंहर हवे रे बटो हिया
बहंगी छठ मइया के जाए
बहंगी छठ मइया के जाए।
इस गीत में छठ मइया के पूजा उपासना का वर्णन किया गया है। यह पर्व कितनी पवित्रता से रखा जाता है इसका भाव इसमें है। छठ पर्व धीरे धीरे आम जनमानस के भीतर एक आस्था, विश्वास और भक्ति का भाव पैदा कर विस्तृत होता जा रहा है। सूर्य देव का यह पर्व विशेषतः बिहार राज्य से प्रचलन में आया फिर धीरे धीरे अपने माहात्म्य के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश में विस्तृत होने लगा। वैसे यह पर्व बहुत सात्विकता और त्याग का पर्व है। इसमें स्त्रियां तपस्विनी सी आचरण करती। भगवान सूर्य को अर्ध्य देती। इस पर्व में डूबते हुए सूर्य देव को पहले अर्ध्य देती फिर सुबह उगते हुए सूर्यदेव को जल बीच खड़े होकर। ठंडक में आस्था ही उनको जल में खड़े रखता है। उनका दृढ़ निश्चय ही उन्हें रोके रखता। इसके पीछे तमाम कथाएं हैं जो गीतों के द्वारा लोक में प्रचलित है।
सच में यह पर्व कई विलुप्त होती परम्पराओं को अपने भीतर समेटे हुए है। तमाम तरह के फलों को इसमें चढ़ाया जाता है। बांस से बनने वाले सुप बहंगी में सफाई के साथ रख फल इत्यादि जलाशय या नदी तक लाया जाता है। इस पर्व में नदी और जलाशय जहाँ पूजा होती है वहाँ पूरी तरह स्वच्छ किया जाता है। हमारे पौराणिक मान्यताओ के अनुसार यह पर्व चलता है। अस्ताचल और उदयाचल सूर्य देव को अर्ध्य देकर उपासना की जाती है।
बहुत सुंदर लेख डॉक्टर साहब, साधुवाद, 7806938161