सुनिए ‘आशा ताई’,
हां?
अरे सुनिए तो,
कहिए तो..
“आप सुनती हीं कहाँ हैं?
कब से आशा ताई आशा ताई कर रहें हैं।”
अरे, कब से सुन ही तो रही हूँ।
वैसे आज आप बड़ी तारीफ़ कर रहे हैं।
आशा ताई…
अब देखो बातों को घुमाना तो मुझसे आता नहीं।
समझदार को इशारा काफ़ी है।
अब सुना भी दीजिए।
“मेरा मूड नहीं है फिर कभी”
“ऐसे कैसे मूड नहीं हैं, मूड बनाइएना”
“मुझे आशा ताई का गाना गाना नहीं आता न,
‘अलका याग्निक’ चलेगी”
“अरे हाँ हाँ दौड़ेगी”
हूँह! झेलो मेरी कर्कश आवाज़ को फिर,
“तुम पास आये, यूँ मुस्कुराये तुमने न जाने क्या सपने दिखाये अब तो मेरा दिल, जागे न सोता है क्या करूँ हाय, कुछ कुछ होता है”
“अरे कहाँ खो गए”
बस कही नहीं, बस मेरे दिल में भी कुछ कुछ हुआ।
जब तुमने इस गीत को गाया था, उस चौबारे में सच में दिल में कुछ हुआ था।
तुम्हारे चेहरे की स्मृतियां जरूर फीकी-फीकी सी पड़ गई हैं। मगर आज भी इस संगीत को लेकर ऐसा लगता है कि जैसे यह संगीत तुमने कल हीं गाया था।
यह संगीत जब भी सुनता हूँ दिल में तुम्हारी स्मृतियां बन जाती हैं। हाय “कुछ कुछ होता है”
हालांकि मेरी आवाज़ सुंदर नहीं थी इसलिए प्रत्युत्तर में कोई गाना भी नहीं गा सकते थें,
इसका प्रत्युत्तर मैंने लिख कर दिया था। कैसे तुमने हंसकर कहा था। वो हँसी और बातें आज भी ह्रदय की शीर्षस्थ स्मृतियों में से एक है. तो महोदय आप तारीफ़ के साथ-साथ लिख भी लेते हैं।
मैनें कहा था कि मोहतरमा ये पहली बार ही आपके लिए लिखा है, मेरे लिए इसमें मेरा ज़िक्र तो नहीं है, मैने कहा था दिल लगाकर ढ़ूढियेगा तो मिलेगा न।
“जैसे विंची की तस्वीरों में पहेली है, जैसे खुसरो के साहित्य की पहेली है उसी तरह इसमें भी पहेली है”
मुझे पक्का यकीन है। इसमें ख़ुद को तुम ढूंढ ही लोगी और तुमने किस तरह से उसे ढूंढ ही लिया था।
अरे बाप रे इसमें तो लाजिक के साथ मेरा ही नाम लिखा हैं।
कैसे तुमने कहा था। जनाब मुझे आपका ये अंदाज़ बहोत पसंद आया, अब जब कभी भी लिखना तो इसी अंदाज में लिखना। जिसमें की मैं अपने आप को ढूंढूं.
“मैंने कहा था प्रामिस।”
“यकीन है तुम पे पक्का वाला”
आज तुम मुझसे दूर हो गई हों।
मुझे नहीं पता तुम कहाँ हो, बस तुमसे यही सवाल है कि-
“क्या वह अखबार का पन्ना जिस पन्ने पर मेरी ग़ज़लें लगती है तुम तक पहुँच तो जाती हैं न?
क्या आज भी उन ग़ज़लों में तुम अपने नाम को ढूंढ लेती हों?
तुम्हें मुझ पर यकीन तो है न?