“तुलसी बुरा ना मानिए
जौ गंवार कहि जाय 
जैसे घर का नरदहा
भला बुरा बहि जाय “
अर्थात बाबा तुलसीदास कहते हैं कि गंवार व्यक्ति की कही गयी कड़वी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए , जिस प्रकार घर की नाली में घर के कूड़े के साथ अच्छी चीजें भी बह जाती हैं गंदगी के साथ-साथ, वैसे ही गंवार की उज्जडता को बहुत मन पे नहीं लेना चाहिए। गंवार पर तो आप अपने मन को समझाकर तसल्ली  दे लेते हैं, मगर उनका क्या जो सब कुछ जानते बुझते हुए अपने जिद और ऐंठन छोड़ने को तैयार नहीं।बात बात पर लोगों से कहते हैं कि संविधान में ये नहीं लिखा है,संविधान में वो नहीं लिखा है, लेकिन जो लिखा है वो भी तो मानें।संविधान में तो ये भी लिखा है कि आपके अधिकारों की सीमा वहीं खत्म हो जाती है,जहां आप दूसरों के अधिकारों के हनन के मुहाने पर खड़े होने की कगार पर पहुंच जाते हैं।दूसरों के अधिकारों का हनन करना, कहां तक जायज है एक कपोल कल्पित प्रक्रिया को लेकर, जो अभी तक हुआ नहीं वो आगे होगा, ये कैसा डर है, ये तो आईडिया ऑफ़ ब्लैक स्वान है साहब। ये होगा तो वो होगा, इस मुगालते का तो कोई अंत ही नहीं, जिसका जिक्र नहीं उस पर नुक्ताचीनी।
“वो बात जिसका पुरे फसाने में कोई जिक्र ना था,
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है “।
फ़िलहाल देश की आम सहनशील जनता आजकल एक दूसरे को समझाते हुये यही कहती है कि  देखते जाओ, सब्र से ।जो बहुत बोल रहे हैं, बोलते ही जा रहे हैं, लगातार बोलते रहने से उन्हें ये इल्हाम हो रहा है कि जब सुनेंगे ही नहीं तो बोलेंगे क्या, सो इस तरह से अपने वक्त पर ना बोलने की जवाबदेही से बच जाएंगे।लोगबाग हैरान हैं कि ये हो क्या रहा है, शहर -दर-शहर जो जबर्दस्ती के प्रदर्शन हो रहे हैं, और उस पर तुर्रा ये कि हम ये बचाने निकले हैं वो बचाने निकले हैं।एक ऐसी कृतिम भयावहता दिखाई जा रही है मानो  सड़कों पर निकले मुट्ठी भर लोग ही देश के असली हमदर्द  हों।वो जो चाहेंगे, गालिबन वही होगा। मगर ऐसा होगा नहीं ,ऐसी स्थिति कभी आयेगी नहीं। एक ऐसी ही अकल्पनीय स्थिति को ही ब्लैक स्वान इवेंट कहा जाता है जो जिसके होने की संभावना ना के बराबर होती है। नसेम तालेब की थ्योरी “आइडिया ऑफ़ ब्लैक स्वान ” बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों को बहुत लुभाती है, जो एक अकल्पनीय स्थिति को खारिज भी करते हैं और हमेशा कंसीडर करके भी चलते हैं। इसी से मिलती जुलती स्थिति को अंग्रेजों ने “वाइल्ड गूज चेस “भी कहा है। ना जाने अंग्रेजों ने इन निष्फलताओं की थ्योरी को हंसों से क्यों जोड़ा है। हमारे यहां हँस बहुत ही प्रिय और पवित्र भी माने जाते हैं। भारतवर्ष में तो आदिकवि का आगाज़ हंसों की क्रीड़ा में पैदा हुए वियोग से हुआ है, हमारे सौंदर्य की कई उपमाएं हंसों और हंसनियों के इर्द गिर्द घूमती रहती हैं। भारत की मशहूर सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच हुई विवाद की कहानी में ये आइडियोलॉजी निकल कर आयी कि थी हँस पर अधिकार उसी का है, जो बचाने वाला है, ना कि मारने वाला,तो फिर जो जान बचाकर पड़ोसी मुल्कों के अल्पसंख्यक इस सोने की चिड़िया कहे जाने वाले मुल्क में आये हैं, उनको लेकर उहापोह क्यों? जो पात्र हैं, सताए गये हैं, जलावतनी की मार से आज शरणागत हैं, उनके बारे में कुछ उदारता से विचार करने में कैसी बाधा?
“कभी कहा न किसी से, तिरे फसाने को 
न जाने कैसे खबर हो गयी जमाने को 
अब आगे इसमें तुम्हारा भी नाम आयेगा
जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूं फसाने को “
इधर तो हम विश्वगुरु और सोने की चिड़िया बनने की ओर अग्रसर हैं, वहीं दूसरी तरफ हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सोन चिरैया को मारने की परमिट जारी की जा रही है। तिलोर यानी सोन चिरैया को खैबर पख्तूनवा में मारने की परमिट जारी की गयी है। एक सोनचिरैया को मारने के लिये दो करोड़ रूपये की परमिट जारी की गयी है, एक परमिट पर सौ तिलोर। पैंतीस परमिट पर पाकिस्तान को उम्मीद है उनकी शिक्षा के पूरे बजट का जुगाड़ हो जाएगा। इमरान खान ने एक और जुगाड़ लगाया है कि सोन चिरैया के शिकार के लिये बाज की जरूरत पड़ेगी और डेढ़ लाख रूपये की दर से बाज बेचेंगे सोन चिरैया के शिकार में मदद के लिये। उस पर तुर्र्रा ये कि ये परमिट सिर्फ अरबों के लिये ही है। वैसे सही बात है कि जिस मुल्क में रोटी के लाले हों वहां ऐसे शौक अरबों के लिये ही महदूद किये जा सकते हैं। जिस मुल्क का समूचा शिक्षा का बजट एक चिड़िया को मारने की कमाई पर टिका हो, वहां के तालीमी इदारों से मरने -मारने की आइडियोलॉजी लिए विद्यार्थी नहीं निकलेंगे तो और क्या निकलेंगे, इसीलिये पाकिस्तान को “एक्सपोर्टर ऑफ़ किलर्स “की कुख्यात ख़िताब दिया गया है, शायद यही वजह है कि दुनिया भर के जेहादी तंजीमों के सदर पाकिस्तानी ही होते हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों “अहिंसा परमो धरमः “सिखाते हैं तो दुनिया के टॉप संस्थानों में भारतीय ही दिखाई पड़ते हैं फिर वो गूगल हो या माइक्रोसॉफ्ट। मियां इमरान खान नियाजी का मुल्क कभी सिविल सर्वेन्ट के लिए स्वर्ग हुआ करता था, अब नया फरमान दिया है उन्होंने कि सरकारी मीटिंगों में सिर्फ एक बार चाय आया करेगी, सिर्फ एक बार हाई प्रोफाइल मीटिंग में सरकारी खर्च पर बिस्कुट खा सकेंगे। हर ऑफिस में सिर्फ एक अखबार आयेगा, और हर ऑफिस में सिर्फ एक टेलीफोन होगा।वाह रे न्यू पाकिस्तान, लोग सोशल मीडिया पर चुटकी ले रहे हैं कि वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान के सरकारी अमले कार या जीप से दौरे करने के बजाय गधों पर बैठ कर दौरे करेंगे। इसके फायदे भी सोशल मीडिया गिना रहा है कि जब अवाम गधा गाड़ी पर चल सकती है तो हुक्काम क्यों नहीं। इससे पैसा बचेगा, वातावरण शुद्ध रहेगा, और अवाम-हुक्काम के बीच की दूरियां घटेंगी और पशुपालन को भी बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी मियां नियाजी पशुपालन पर बहुत ध्यान देते हैं, लाहौर की सड़कों पर 42 हजार गधे उतारने के बाद, अब गॉंव की महिलाओं को एक भैंस, एक बकरी, एक मुर्गी देने की परियोजना पर काम कर रहे हैं। अवाम ने पूछा है कि जिस मुल्क के सात करोड़ बाशिंदों के पास छत नसीब ना हो, उस मुल्क में लोग मुर्गियों को पालने के लिये छत का इंतजाम कैसे करेंगे। यानि अपने लिए छत का जुगाड़ भले ही ना कर सको, सरकारी की दी गयी मुर्गियों के लिए छत का इंतजाम जरूर करो। सरकारी मुर्गियां अगर मर गयीं तो फिर जुर्माना भरो या फिर जेल भुगतो। यानी ये रोजगार देने की नहीं बल्कि जुर्माना के जरिये कमाने की एक परफेक्ट योजना है। वाजे तौर पर ये एक ब्लैक स्वान इवेंट ही होगा, गर ऐसा हुआ तो।
 नियाजी के  न्यू पाकिस्तान के नारे पर अवाम ने जवाब दिया है कि –
“हिफ़्ज़ कैसे हो अगर पासवां ही कातिल हो 
गैर से ज्यादा निगाहबानों से डर लगता है “

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