आर्य समाज भारतीय समाज और जनजीवन को दिशा प्रदान करने का सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। शिक्षा जगत में आज डीएवी संस्था जैसी कोई दूसरी संस्था नहीं है। डीएवी सिर्फ उच्च शिक्षा ही नहीं देता बल्कि विद्यार्थियों के अंदर उच्च संस्कारों को पल्लवित-पुष्पित भी करता है। महात्मा हंसराज ऐसे ही आर्य समाज के हिस्सा हैं जिसका उद्देश्य समाज को विकास और प्रगति के उच्चतम स्थान तक ले जाना है। अपने 74 वर्ष की आयु में महात्मा हंसराज ने भारत को इतना कुछ दे दिया है कि जब तक यह दुनिया रहेगी हम उनके ऋणी रहेंगे। भारतीय समाज में महात्मा हंसराज की छवि त्याग और तप की मूर्ति के रूप में ख्यात है। ज्ञान और विज्ञान की  अद्भुत धारा उनके अंदर से बहती थी जिसमें स्नान कर कोई भी अपने जीवन को महान बना सकता है। उनके लिए समाज का कल्याण सबसे पहले था। स्वार्थ का कोई कोना उन्हें जीवन भर छू न सका। अपने छात्र जीवन में ही हंसराज जी ने आर्य समाज के नियमों को अपना लिया और आजीवन उसी पर चलते रहे। उन्हें महर्षि दयानंद के जीवन और विचार ने इतना ज्यादा प्रभावित किया कि वे आर्य समाज के होकर रह गए।
 नवजागरण से लेकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की परिणति तक भारतीय राजनीतिक पटल पर जिन अनेकानेक घटनाओं का प्रस्फुटन हुआ, उनमें आर्यसमाज का अभ्युदय सर्वाधिक प्रभावकारी घटनाओं में से एक है।आर्यसमाज ने  न केवल ‘स्वराज’ का सर्वप्रथम उद्घोष किया वरन् स्वाधीनता, स्वदेशी, स्वत्व और स्वाभिमान का भी मूल मंत्र दिया। महात्मा हंसराज ने आर्य समाज के इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना किया। आर्यसमाज ने भारतीय समाज में सदभावना और एकता का प्रसार तो किया ही शिक्षा और सामाजिक समस्याओं के लिए भी बेसिक स्तर पर मजबूत किया। भारत में शिक्षा के साथ ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता को भी आर्यसमाज ने विकसित किया। आर्यसमाज ही एक ऐसी संस्था है जिसके विद्यालय और महाविद्याल शहर­शहर में अपना सहयोग देने के लिए स्थापित किए गए हैं।
 आर्यसमाज की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसने भारत को समय­समय पर ऐसे मनीषियों और समाजसुधारकों को जन्म दिया जिन्होंन भारत की परंपरा और संस्कृति को देश के बाहर भी फैलाया और भारत को विश्वगुरू बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया।महर्षि दयानन्द के बाद जिन विद्वानों और समाज सुधारकों नें अपना पूरा जीवन अपने देश को सिर्फ दो खाने और कपड़े के बदले समर्पित कर दिया महात्मा हंसराज उन्हीं आदरणीय लोगों में एक हैं।महात्मा हंसराज ने बालवस्था से ही आर्यसमाज के नियमों और सिद्धांतों को आत्मसात किया और अपनी किशोरावस्था में ही आर्यसमाज के बड़े पदों को सुशोभित किया।मात्र 22 वर्ष की आयु में ही एक  जून 1886 कों ‘दयानन्द एंग्लों वैदिक हाई स्कूल लाहौर’ का प्रधानाध्यापक नियुक्त होना ही उनके जीवन के महत्व को स्थापित कर देता है।प्रेरणा देने वाली बात यह है कि यह पद उन्हें उनके तपस्वी और कुशल प्रबंधन बुद्धि के लिए दिया गया।आज का युवा जिस तरह मल्टीनेशनल कंपनियों के पीछे पैसों के लिए भाग रहा है,समाज क्या परिवार तक जिसकी चिन्ता में नहीं उनके लिए महात्मा जी का यह त्याग किसी प्रेरणा से कम नहीं है।बहुत कुछ पा लेने की होड़ और उत्तरआधुनिक होने की लिप्सा में हम जो लगातार अपनी परंपरा और सभ्यता को भूल रहे हैं उसकी भरपाई किसी भी हालत में संभव नहीं हो सकती।महात्मा हंसराज की जीवन शैली हमें अपनी जड़ो से जोड़े रखने में अहम् भूमिका निभाती है।
 महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जिस वैदिक संस्कृति को आधुनिक संदर्भों में व्याख्या यित किया।महात्मा हंसराज ने उसे और विकसित किया।दयानन्द के आदर्शों और सिद्वांतों को महात्मा हंसराज ने और भी प्रसारित किया। उन्होंने न केवल आर्य सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार में योगदान दिया बल्कि प्राच्य सभ्यता व संस्कृति के गुणगान व राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत भी उल्लेखनीय है।
 महात्मा हंसराज ने हिन्दी भाषा के प्रति अपनी कठोर निष्ठा का आजीवन पालन किया।दयानन्द सरस्वती ने अपने अनुयायियों को राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत­प्रोत स्वदेशी पत्रों के प्रकाशन, संचालन के लिए प्रबल समर्थन व प्रोत्साहन भी दिया।वे हिन्दी भाषा को आर्य भाषा कहकर संबोधित करते थे।निःसंदेह हिन्दी को व्यवहार भाषा,संपर्क भाषा,लोकभाषा तथा माध्यम भाषा बनाने में महर्षि दयानन्द की महत्वपूर्ण भूमिका है। महर्षि दयानन्द ने भारतवासियों को न केवल मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर की प्रेरणा दी वरन् हिन्दी के उन्नयन के लिए भी यह उद्घोषणा की थी कि ‘हिन्दी ही राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध सकती है।’ उन्होंने हिन्दी के प्रचार प्रसार को बढ़ावा देने के लिए अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन किया ओर उन्हें हिन्दी के लिए काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया।महात्मा हंसराज स्वयं हिन्दी के विद्वान और वक्ता रहे।उनकी सभाओं और संगोष्ठियों में श्रोताओं की संख्या दयानन्द से कम कभी नहीं रही।
 महात्मा हंसराज ने हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी साहित्य के विकास व उसके प्रचार­प्रसार में अपनी महत् भूमिका अदा की है, वहीं हिन्दी पत्रकारिता के विकास में भी अपना अमूल्य योगदान दिया है।आर्यसमाज के ही प्रयोगों से हिन्दी प्रेस ने भारतीय जन­गण को लोकतंत्र का प्रथम मंच प्रदान किया। इस संबंध में पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने कहा भी है कि “यदि स्वदेशी प्रेस न होती तो भारत की आज़ादी उतनी शीघ्रता से न मिल पाती।”
 स्वतंत्रता के संघर्ष से लेकर स्वातंत्र्योत्तर परिस्थितियो में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका अहम् रही है और हिन्दी पत्रकारिता के विकास में आर्यसमाज का योगदान रहा है।इसका एक प्रमाण यह है कि हज़ारों की संख्या में वरिष्ठ पत्रकारों व संपादकों का संबंध प्रत्यक्ष रूप में आर्यसमाज,गुरूकुलों तथा आर्य समाजी परिवारों  से रहना है।या तो ये पत्रकार गुरूकुलों अथवा आर्य संस्थाओं में शिक्षित हुए हैं अथवा आर्यसमाजी माता पिता की संताने हैं।
 यह कहना गलत न होगा कि आर्यसमाज एक ऐसा भट्टा है जिसनें हिन्दी पत्रकारिता के भवन को अनगिनत चट्टानें, ईंट और स्वर्णिम कलश­कंगूरे प्रदान किए हैं आर्य समाज के मार्गदर्शन में आज भी हिन्दी पत्रकारिता को एक दिशा प्राप्त हो रही है जिसमें महात्मा हंसराज ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
 आर्यसमाज के धार्मिक सिद्वांतो को महात्मा हंसराज ने और विकसित किया उन्होंने ऐसे धर्म से लागों को परिचित करवाया जो कभी भी आस्था को रूढ़ नहीं बनाता बल्कि उसे रूढ़ियों से मुक्ति दिलाता है।आर्यसमाज के बहुतायत संख्या में लोगों का जुड़कर कार्य करना यह दर्शाता है कि आर्यसमाज ने भारतीय समाज में धर्म को लेकर जो अंधमान्यता थी उसे दूर की।उसमें धर्म के वैदिक स्वरूप को विकसित किया जो कर्मकांड और आडम्बरों से दूर है। महात्मा जी ने आजीवन व्यवसायिक धर्म का विरोध किया और भारतीय धर्म पर आने वाली बाह्य शक्तियों को रोका भी।ईसाई मिशनिरों के आगमन और उसके प्रचार प्रसार का विरोध सबसे अधिक महात्मा हंसराज ने ही किया।वे जानते थे कि यह बाहरी मानसिकता हमारी पुरातन सभ्यता और संस्कृति को नुकसान पहुंचा देगी।इसलिए उन्होंने भारत की वैदिक परंपरा का समर्थन किया।
संक्षेप में देखें तो महात्मा हंसराज का पूरा जीवन प्रेरणाओं से भरा हुआ है। उन्होंने बचपन में ही अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दे दे दिया ,जिस उम्र में आज जीवन जीने वाले लोग इस मायावी दुनिया की रंगीनियों में उलझकर भ्रमित होते हैं उस उम्र में महात्मा ने अपना पूरा जीवन समाज को समर्पित कर दिया ।
 आज जब देश में शिक्षा सिर्फ व्यवसाय का माध्यम बनती जा रही है। ऐसे में महात्मा हंसराज के आदर्शों और सिद्धांतों को अपनाना बहुत आवश्यक हो चुका है। उनके जीवन का तप और त्याग प्रत्येक अध्यापक के लिए सीखने योग्य है।अखंड कर्मयोगी को नमन एवं पुण्य स्मरण।

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