कई महीनों से
बल्कि साल के बराबर
वैसे देखा जाए तो हमेशा से..
रैक में पड़ी किताबे जद्दोजहद करने के बाद भी,
सड़को पर निकलकर
सांस्कृतिक
सामाजिक
राजकीय विद्रोह कर पाने में नाकामयाब रही हैं।
शायद, यह पूरी तरह सच ना भी हो
पर, पूरी तरह झूठ भी तो नहीं !
आखिरीबार न जाने किस शख़्सने,
पन्ना नंबर तीन को मोड़ कर रखा था जिस पर सूची के अलावा कुछ भी नहीं होता।
अब उस पन्ने को मोड़ कर रखनेवाला शख्स
ख़ुद किताब को भी याद नहीं।
किताबों को ख़रीद कर,
कमरों की सजावट बनाना जितना नाटकीय होता हैं।
उतना ही नाटकीय, सिर्फ़ किताबों को पढ़ कर क्रांति को महसूस करते रहना हो जाता हैं।
असल में क्रांति के क़दमों की आहट को समझ पाना उतना ही मुश्किल हैं, जितना क्रांति की परिभाषा को समझना।
किसी लाइब्रेरी का नाम,
‘राहुल सांकृत्यायन’ भले ही हो सकता है।
लेकिन उसके बाद भी…
किताबें वोल्गा से गंगा तक का सफ़र,
तय नहीं कर पातीं तो ज़रा रुक कर,
संभल कर हमें सोचना होगा गलती किसकी हैं ?
कितने दशकों का यह जुर्म हैं किताबों पर ?
जो समाज से जात, पितृसत्ता, पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने में असफल रही।