ये मेरे भीतर छिपी व्याकुलता ही है,
जिसने मेरे स्वभाव में अधीरता को जन्म दिया है।
माना मेरी बुद्धि संकीर्ण थी
और बुद्धजीवियों के व्यापक
परंतु, इस संकीर्ण ने ही ढांढस बंधा स्वयं को
संभाला, विपरीत व्यथाओं मेँ हर-पल।
प्रतिकार, चितकार, अन्तः इंद्रियाँ भलीभाँति परिचित थी
संवेदनशील परिस्थितियों से,
ध्यान लगा ईश्वर का जुड़ गयी तिसपर
प्राप्त होगा एक अन्य तिरस्कार, ये भय न था।
प्रयास किए बगैर अन्तः चित्त का ढांढस बंधाना, बस गंवारा न था।।