ये चट्टान हैं…
आजाद -ए- दौर की,
इसे चाहे तुम कह दो जो तुम्हारे जी में आए
खालिस्तानी, आतंकवादी जो तुम्हे सही लगे।
जोड़ दो चाहे रिश्ता उनका चीन और पाकिस्तान से
फिर भी उनके हौसले बुलंद हैं,
उनके रगों में खून माफ़ी नामों का नहीं
भगतसिंह, आजाद और दुर्गा भाभी का दौड़ता हैं।
कईयों ने कोशिश की थी चट्टानों को ढहाने की
लेकिन संघर्ष के इस दौर में कोई नहीं बचा,
फिर वह हिटलर हो या फिर सांडर्स
क्या तुम भूल गए हो सांडर्स की हत्या को?
लाहौर की दीवारों में गूंजती सरफरोश की तमन्ना को।
अगर भूल गए हो तो याद कर लो,
अब वह दौर फ़िर आया हैं
कल चलेजाओ कहा था..
आज उखाड़ फेखना हैं।
याद रखना वह किसान हैं
वह चट्टान हैं
अपने दिलों में इन्कलाब लेकर चलते हैं।