poem chahat lekah ki

चाह नहीं मैं एम.पी. बनकर,
संसद में बहस लगाऊँ
चाह नहीं मैं वक्ता बनकर,
दुनिया को हीं मूर्ख बनाऊँ

चाह नहीं मैं पहलवान बनकर,
कमजोरों को खूब सताऊँ
चाह नहीं मैं मालिक बनकर,
ऑर्डर नौकर पर बेहिसाब चलाऊँ

चाह नहीं मैं उद्योगपति बनकर,
रूपया-डॉलर बेशुमार कमाऊँ
चाह नहीं मैं पढ़-लिख कर,
डॉक्टर-इंजीनियर बन जाऊँ

चाह नहीं मैं नेता बनकर,
जनता को लेक्चर सुनाऊँ
बस यही चाह एक मेरी की,
हृदय-व्यथा लिख लेखक बन जाऊँ

अनुभव-ए-मनोहर के साहित्य से मैं,
समाज को सत्य का बेखौफ दर्पण दिखलाऊँ

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